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सतगुरु है सत पुरुष अकेला ...

भजन - सतगुरु है सत पुरुष अकेला ...

हरिभक्त कवियोंकी भक्तिपूर्ण रचनाओंसे जगत्‌को सुख-शांती एवं आनंदकी प्राप्ति होती है।


सतगुरु है सत पुरुष अकेला, पिंड ब्रह्माण्डके बाहर मेला ॥

दूरतें दूर, ऊँचतें ऊँचा, बाट न घाट गली नहिं कूचा ॥

आदि न अंत मध्य नहिं तीरा, अगम अपार अति गहिर गँभीरा ॥

कच्छ दृष्टि तहँ ध्यान लगावै, पलमहँ कीट भृंग होइ जावै ॥

जैसे चकोर चंदके पासा, दीसै धरती बसै अकासा ॥

कह 'यारी' ऐसे मन लावै, तब चातक स्वाँती-जल पावै ॥

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Last Updated : December 25, 2007

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