अनन्त व्रत कथा वर्णन करते हुए भगवान् श्री सूतजी बोले-हे ऋषिश्वरो ! किसी समय पुण्य सलिला भागीरथी के किनारे पाण्डु-पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने जरासन्ध को मारने के लिये राजसूय यज्ञ प्रारम्भ किया भीमसेन व अर्जुन सहित श्रीकृष्ण भगवान् ने स्वागत पूर्वक अतिथि राजाओं को रत्न-रचित यज्ञशाला में ठहराया, मोतियों की झालरों से वह शाला इन्द्र-भवन के समान सुशोभित हो रही थी । उसी समय वहाँ कुरुनन्दन दुर्योधन ने पदार्पण किया । सूखे स्थल को जल-युक्त जान दुर्योधन वहाँ पर अपने वस्त्रों को उठाकर शनैः शनैः चलने लगा । यह देख द्रौपदी आदि रानियाँ हँसने लगीं ।
दूसरे स्थान पर जल-युक्त स्थान को थल समझकर दुर्योधन बुरी तरह गिर पड़ा । तब तो सभी ऋषिगण, राजा लोग तथा समस्त रानियाँ हँस पड़ीं । सबको हँसते देखकर दुर्योधन अत्यन्त कुपित होकर मामा शकुनि सहित वहाँ से लौट गया । क्योंकि मामा शकुनि ने यही सलाह दी कि क्रोध को त्याग कर अपने कार्य को देखो और यहाँ से शीघ्र ही घर चलो । अतः मामा की सलाह मान शीघ्र दुर्योधन हस्तिनापुर चला गया । यज्ञ समाप्त होने पर सभी अतिथि राजा अपने अपने घर चले गये । घर पहुँच कर दुर्योधन ने युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डवों को जुए के लिए आमन्त्रित किया और जुए में उसने उसका राज्य, धन, गृह तथा कोषादि सब जीत लिये । पाप रहित पाण्डवों का सब कुछ जीतकर उन्हें बनोवास दे दिया । वे लोग द्रौपदी सहित वनवासी वन वनों में निवास करने लगे ।
पाण्डवों का वनोवास सुनकर कृष्ण भगवान् अत्यन्त दुःखित हुए और भाइयों को देखने के निमित्त जिस वन में वे निवास करते थे वहाँ पहुँचे श्रीसूतजी कहते हैं कि हे ऋषिश्वरो । वनोवास से दुःखित पाण्डवों ने जब अपने भ्राता श्रीकृष्ण को आते देखा तो हर्ष से गद्गद् हो सब प्रणाम कर परस्पर मिलने लगे । युधिष्ठिर बोले, हे केशव ! हे जनार्दन ! मैं भ्राताओं व द्रौपदी सहित इस वन में घोर दुःख को प्राप्त हुआ हूँ । क्या इस दुःख सागर से मैं छुटकारा पा सकता हूँ ? कोई ऐसी युक्ति है जिससे मैं अपना राज्य फिर प्राप्त कर सकूँ ? कोई ऐसे देव का आराधन पूजन व व्रतादि मुझे बताने की कृपा कीजिये जिससे मैं इस संकट से निकल कर फिर से अपना राज्य, धन प्राप्त कर लूँ । श्रीकृष्णजी बोले-हे राजन् ! अनन्त भगवान् का व्रत व पूजन ऐसा है जिससे मनुष्यों के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं । भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है जिसके अनुष्ठान से ही अनेक कष्टों से मुक्ति हो जाती है । तब युधिष्ठिर बोले-हे मधुसूदन ! आपने जिन अनन्त भगवान् का वर्णन किया है वे कौन हैं ? क्या शेष भगवान् हैं अथवा तक्षक हैं ? या परमेश्वर को ही अनन्त कहते हैं या ब्रह्मदेव इस नाम से पुकारे जाते हैं ? हे देवेश ! मुझे कृपा कर विस्तार से समझाइये कि अनन्त भगवान् किसे आपने कहा है ? श्रीकृष्ण भगवान् बोले-हे युधिष्ठिर ! अनन्त मैं ही हूँ । आदित्य आदि जितने महीने हैं तथा काल, कारण, दिवस, रात्रि, मुहूर्त, पक्ष, प्राणी, वर्षा, युग, काल आदि की व्यवस्था यह सब समय के विभाग आदि को कहे गये हैं यह सब अनन्त ही हैं । अर्थात् ये सब मैं हूँ और मैं ही पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अवतीर्ण हुआ हूँ ।
दैत्यों का विनाश करने को ही मैंने अवतार धारण कर वसुदेव के वंश को उज्ज्वल किया है । हे युधिष्ठिर ! साधु लोगों की रक्षा और दुष्टों का नाश करने के निमित्त ही मैं अवतार लेता हूँ । अनादि, मध्य, निधन (अन्त), कृष्ण, विष्णु, ब्रह्म, शिव, वैकुण्ठ, सूर्य, चन्द्रमा, ईश्वर, विश्वरुपा, महानवाहु, योगी, सर्वरुप, अनन्त, चौदहों इन्द्र, वसु, बारहों सूर्य, ग्यारह रुद्र, सप्तऋषि, समुद्र, पर्वत, नदी, नक्षत्र, दिशा, पृथ्वी, पाताल तथा भूर्भुवादिक लोक ये समस्त मुझसे ही हैं मैं ही इनका निमित्त कारण हूँ यह निस्संदेह सत्य है । युधिष्ठिर बोले-हे जनार्दन ! अब कृपा कर मुझ से इस व्रत की विधि वर्णन कीजिये और यह भी कहिये कि इसका क्या फल होता है ? यह किस देवता का पूजन है ? सबसे पहिले यह व्रत किसने किया था और फिर किस प्रकार इसका विस्तार हुआ यह सब वर्णन करने की कृपा कीजिये ।
श्रीकृष्ण भगवान् बोले-हे युधिष्ठिर ! सतयुग के मध्य में ब्राह्मण रहता था, जिसका नाम सुमन्त था, उसका विवाह वशिष्ठ गोत्रीय भृगु की कन्या से हुआ था । विवाह के कुछ काल उपरान्त उसके सर्व गुण सम्पन्न एक कन्या उत्पन्न हुई । उसका नाम पिता ने शीला रखा । वह शीला धीरे-धीरे बड़ी होने लगी । उस समय उसकी माता ज्वर से ग्रस्त हो गई और काल के वशीभूत हो नदी में गिर कर मर गई । तब उस सुमन्त ब्राह्मण ने दुःशीला नाम की कर्कशा ब्राह्मण कन्या से दूसरा विवाह कर लिया । वह दुःशीला कटु भाषी अत्यन्त दुष्ट प्रकृति की एवं बुरे स्वभाव वाली थी । शीला पिता के घर में ही पूजा आदि किया करती थी वह खम्भों व दीवालों पर विविध रंगों के शंख पद्म तथा स्वास्तिक आदि बनाती रहती थी । इसी प्रकार खेल कूद में उसकी कौमारावस्था व्यतीत हुई और युवावस्था में उसने पदार्पण किया । कन्या को युवा देख सुमन्त उसके लिये योग्य वर मिलने की चिंता में दुःखित रहने लगा । उन्हीं दिनों में मुनियों में श्रेष्ठ श्री कौंडिन्य उस कन्या से विवाह करने की इच्छा से सुमन्त के घर आये । सुमन्त से अपनी इच्छा प्रकट की कि मैं तुम्हारी कन्या से विवाह करना चाहता हूँ । ब्राह्मण सुमन्त बहुत प्रसन्न हुआ और उसने गृह सूत्र की विधि के अनुसार शुभ दिन शुभ नक्षत्र में अपनी कन्या का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया । स्त्रियों नें मंगल गान करे, ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया तथा बन्दीजनों ने विरदावली बखानी । जब विवाह की सभी विधि सम्पूर्ण हो गई तब सुमन्त ब्राह्मण ने पत्नि से कहा कि जमाई को कुछ दहेज आदि देना चाहिये । दहेज की बात सुन वह दुष्टा अत्यन्त कुपित हुई और धन आदि आभूषण सब एक संदूक के अन्दर बन्द करके रख दिये और पति से बोली घर में तो कुछ भी नहीं है आप देख लीजिये । मैं क्या करुँ जमाई यों ही चले जावें, उसके वचनों को सुनकर ब्राह्मण बहुत उदास हुआ और कौंडिन्यजी भी उदास हो पत्नी सहित रथ में बैठकर चल दिये । जो कुछ भोज्य पदार्थ भोजनोपरान्त बचा था वह रास्ते में खाने को जमाई के साथ ब्राह्मण ने रख दिया । यमुना किनारे पर पहुँच कर कौंडिन्य ऋषि नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिये चल दिये । उधर वहीं नदी किनारे शीला ने देखा कि कुछ स्त्रियों के झुण्ड लाल-लाल कपड़े पहिने मध्याह्न के समय अनन्त भगवान् का पूजन कर रही हैं । वह चतुर्दशी का दिन था । उन्हें देख शीला भी उनके निकट पहुँच गई और उनसे बोली-हे बहिनो ! आप किस देवता का व्रत व पूजन कर रही हैं । उसके प्रश्न के उत्तर में वे स्त्रियाँ बोलीं-हे बहिन ! यह व्रत ’अनन्त व्रत’ कहलाता है । हम लोग अनन्त भगवान् का पूजन कर रही हैं यह सुन शीला ने कहा मैं भी यह व्रत करुँगी कृपया यह बताइये कि इस व्रत का क्या विधान है तथा इसमें किसकी पूजा की जाती है और क्या दान किया जाता है । तब स्त्रियों ने कहा-हे बहिन ! एक सेर शुद्ध अन्न का पकवान बनाकर आधा ब्राह्मण को खिलावे और आधा आप खावे तथा यथा शक्ति श्रद्धा पूर्वक दक्षिणा देवे । यह व्रत किसी नदी के तीर करना चाहिये तथा वहीं भगवान् की कथा सुने । कुशा के शेषनाग बनाकर बाँस की टोकरी में रखे फिर स्नानादि से निवृत्त होकर उनका पूजन करे । धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य तथा पकवानों से उनका पूजन करे । तत्पश्चात् मजबूत सूत लेकर उसे हल्दी में रंगे और उसमें चौदह ग्रन्थि लगाकर भगवान् के आगे रखे फिर उसे भगवान् का ध्यान करके स्त्री अपनी बांयी भुजा में बाँध ले । यदि पुरुष पूजन करे तो दाँयी भुजा में बाँध ले । सूत बाँधते समय यह मन्त्र पढे़ "हे वासुदेव ! इस संसार समुद्र में मैं डूब रही हूँ आप मुझे उबारिये आप इस अनन्त रुपी सूत में बिराजमान हैं आपको बार बार नमस्कार है" । इस प्रकार उस अनन्त सूत्र को चित्त स्थिर करके आदि अन्त रहित परमेश्वर का ध्यान करके बाँध ले । हे बहिन ! यही व्रत का विधान है । भगवान् श्रीकृष्ण बोले-हे युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन स्त्रियों के मुख से व्रत का सम्पूर्ण विधान सुनकर शीला अत्यन्त प्रसन्न हुई तथा चौदह गाँठ लगाकर वह सूत्र उसने अपनी भुजा में बाँध लिया तथा व्रत भी किया जो मार्ग के लिये भोजन बाँधा था उसमें से आधा ब्राह्मण को खिलाया और थोड़ा सा आप खाकर पति के साथ रथ में बैठ कर चल दी । पति के घर पहुँच कर उसे सुन्दर शुभ शकुन हुए । व्रत के करने से उसके यहाँ धन धान्य गौध न सब की वृद्धि हुई । वह सदैव मणियों की करधनी व कण्ठहार आदि से शोभायमान रहती थी । वह अतिथि सत्कार एवं पति परायण सदैव कार्यों में लगी रहती और अपने पति को सुखी रखती, एक दिन वह बैठी थी कि ऋषि की दृष्टि उस डोरे पर पड़ी । कौंडिन्य ऋषि ने पूछा हे शीला ! यह पीला डोरा तुमने क्यों कर बाँधा है क्या इसके द्वारा तुम मुझे अपने वश में रखना चाहती हो ? मुझे इसका ठीक-ठीक कारण बताओ । शीला ने कहा-हे पतिदेव ! यह अनन्त भगवान् का सूत्र है । इसके द्वारा मनुष्य धन धान्य तथा ऐश्वर्य आदि सर्व सुखों की प्राप्ति करता है । इसी कारण यह सूत्र मैंने धारण किया है । यह सुन धनान्ध कौंडिन्य ऋषि ने वह सूत्र तोड़ डाला और उसे फटकारते हुए बोले-हे दुष्टा ! वह कौन अनन्त भगवान् है जिसके विषय में तू बकवास कर रही है । कौंडिन्यजी ने वह अनन्त सूत्र अग्नि में फेंक दिया किन्तु शीला ने झपट कर उसे उठा लिया और दुग्ध पात्र में डाल दिया इस प्रकार अनन्त सूत्र को तोड़ कर फेंकने से ऋषि का धन ऐश्वर्य सब नष्ट प्रायः हो गया । गौओं की चोरी हो गई, गृह में अग्नि लग गई, धन धान्य सब नष्ट हो गया, जिससे बन्धु भी दुश्मन हो गये परिवार में कलह ने प्रवेश कर लिया । इस प्रकार अनन्त भगवान् का निरादर करने से कौंडिन्य के गृह में दारिद्रय का पूर्ण रुप से निवास हो गया । श्रीकृष्ण बोले-हे युधिष्ठिर ! पड़ौसियों ने वार्तालाप बन्द कर दिया, वे तन मन धन सबसे अत्यन्त कष्ट को प्राप्त हुए । अत्यन्त दुःखित हो एक दिन कौंडिन्य अपनी स्त्री से बोले-हे शीला ! यह एकाएक कैसी विपत्ति मेरे ऊपर आई है जिसके प्रभाव से मेरे पास कुछ भी नहीं रहा, यहाँ तक कि बन्धु बांध वों से भी कलह हो गई, कोई मुझसे बोलता नहीं क्या कारण है यह किस पाप का फल है, क्या तुम कुछ बता सकती हो कि अब किस प्रकार मेरी स्थिति में सुधार हो । तब वह अत्यन्त चतुर स्त्री मीठी वाणी से समझा कर कहने लगी । शीला बोली-हे पति श्रेष्ठ ! उस दिन जो आपने अनन्त सूत्र तोड़ कर फेंक दिया था और अनन्त भगवान् की अपशब्दों में निन्दा की थी उसी का यह दण्ड भोगना पड़ रहा है । हे प्रभो ! आप उसी के निमित्त कुछ करिये तभी आपका भला हो सकता है । अपनी पत्नी की बात सुनकर कौंडिन्यजी ने भगवान् का स्मरण किया । और गृह त्याग वन में तपस्या करने लगे । वह रात दिन यही विचार करते कि मैं कहाँ पर उन भगवान् को ढूँ-ढूँ जिनकी कृपा से मुझे हर प्रकार का सुख प्राप्त था और जिनकी निन्दा से सब कुछ नष्ट हो गया । हाय ! यह धन ही इसका कारण हुआ । इसी से मुझे सुख दुःख प्राप्त हुआ । इसी तरह अनेक प्रकार की चिन्तायें करते हुए वे वन-वन में घूमते रहे । एक दिन जंगल में उन्होंने फलों से लदे आम्र वृक्ष को देखा, जिसके फलों को किसी ने नहीं खाया था और वे सड़ने लगे थे, पक्षी तक उस वृक्ष पर नहीं थे । कौंडिन्य ने उस वृक्ष से पूछा-हे वृक्ष ! तूने अनन्त भगवान् को कहीं देखा है ? यदि देखा हो तो कृपा कर मुझ से कह । तब वृक्ष बोला-हे ऋषि ! मैंने कभी भी अनन्त भगवान् को नहीं देखा । तब तो ऋषि अत्यन्त खिन्न हो गये और दुःखी हृदय से वहाँ से चल दिये । श्री भगवान् बोले-हे युधिष्ठिर ! इस प्रकार वृक्ष से अनन्त भगवान् का पता न मिलने पर खिन्न मन कौंडिन्य आगे बढे़ और हृदय में तीव्र इच्छा यही लगी हुई थी किसी प्रकार अनन्त भगवान् का साक्षात्कार हो । इसी आशा में वन-वन में भ्रमण करते फिरते थे । अकस्मात उन्हें एक गौ का दर्शन हुआ जो बछड़ों सहित थी । कौंडिन्यजी ने उससे भी वही प्रश्न किया कि हे गौ माता ! क्या तुमने अनन्त भगवान् देखे हैं । तब गौ बोली-हे विप्रवर ! मैं नहीं जानती कि अनन्त भगवान कौन हैं , देखना दूर की बात है । ऋषि वहाँ से आगे बढ़े तो क्या देखते हैं एक बैल घास चर रहा है । कौंडिन्यजी ने पूछा-हे वृषभ ! क्या तू अनन्त भगवान् को जानता है ? क्या कभी तूने उनका दर्शन किया है ? बैल ने उत्तर दिया हे ऋषिश्वर मैंने कभी भी अनन्त भगवान् को नहीं देखा । वहाँ से भी कौंडिन्यजी आगे को चल दिये । मार्ग में दो सुन्दर तलैया उन्हें दिखाई दीं । जिनमें सुन्दर-सुन्दर कमल व कुमुद खिले हुए थे जिनसे उनकी शोभा और भी बढ़ रही थी । अनेक प्रकार के पक्षी जैसे चकवा चकवी, बगुले, सारस, हंस उनमें जल क्रीड़ा का आनन्द ले रहे थे । सुन्दर लहरें उठ रही थीं जो आपस में उछल-उछल कर खेलती हुईं बालिका सी प्रतीत होती थीं । उन तलैयों को देखकर कौंडिन्यजी बोले-हे पुष्करिणियो ! क्या तुमने अनन्त भगवान् देखे हैं ? यदि देखे हों तो कृपया मुझे बताओ । ऋषि का प्रश्न सुन पुष्करिणियाँ बोलीं-हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! हम नहीं जानतीं कि अनन्त भगवान् कैसे हैं क्योंकि हमने उन्हें कभी नहीं देखा । बेचारे ऋषि हर बार अपने प्रश्न का उत्तर नकारात्मक रुप में पाकर बड़े दुःखी हो फिर आगे को चल दिये । चलते-चलते रास्ते में उन्हें एक गधा मिला । गधे से भी उन्होंने अनन्त को पूछा किन्तु गधे का भी वही उत्तर मिला जो सबने दिया था । अब तो अत्यन्त निराश हुए कौंडिन्य आगे बढ़े चले जा रहे थे । कुछ आगे चलकर उन्हें एक हाथी मिला । हाथी से भी उन्होंने पूछा-हे गजानन ! क्या तुमने अनन्त भगवान् को देखा है ? हाथी ने उत्तर दिया हे ऋषि ! मैंने अनन्त को कहीं नहीं देखा । इस प्रकार सब ओर से निराश हो कौंडिन्य ऋषि वहीं जंगल में आँख मूँद कर बैठ गये और अत्यन्त दुःखित उच्छवासें लेते हुए परम कातर हो हाय भगवन् ! हाय भगवन् ! उच्चारण करते हुए ध राशायी हो गये । उन्हें अपने शरीर की सुधि भी भूल गई और इसी प्रकार मूर्च्छावस्था में कुछ देर पड़े रहे । जब चैतन्यता आई तो फिर अनन्त-अनन्त रटते हुए उठ बैठे और यह प्रण किया कि अब अपने शरीर को छोड़ दूँगा । बिना अनन्त भगवान् का दर्शन किये जीवन व्यर्थ है । इस प्रकार प्राणों का मोह छोड़कर कौंडिन्य ने एक वृक्ष में फांसी के लिये रस्सी लटकाई ज्यों फंदा अपने गले में डालने को हुए कि अनन्त भगवान् प्रकट हो गये । वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रुप धरे हुए कौंडिन्य के निकट आये और अत्यन्त प्रेम भरी वाणी से कौंडिन्य का हाथ पकड़ कर बोले-हे विप्र ! मेरे साथ चलो । ऐसा कहकर और कौंडिन्य को साथ लिये एक पर्वत की कंदरा में चले गये । कौंडिन्यजी ने देखा कि वहाँ उनकी एक सुन्दर पुरी है जहाँ बहुत से स्त्री-पुरुष निवास करते हैं उसी पुरी में उन्होंने एक दिन कौंडिन्य को अनन्त भगवान् का दर्शन कराया । देवाधिदेव, सदैव अजय (किसी से न जीते जाने वाले ) ऐसे विश्वरुप अनन्त भगवान् को देखकर कौंडिन्यजी गद्गद् हो गये और परम विह्वल कण्ठ से स्तुति करने लगे । कौंडिन्यजी बोले-हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं महा अधम और पापी हूँ मुझ पापात्मा ने अनेक पाप कर्म किये हैं तथा मैं पाप से ही उत्पन्न हूँ आप मेरी रक्षा कीजिये । कौंडिन्य ऋषि की सुन्दर स्तुति सुनकर अनन्त भगवान् बोले-हे कौंडिन्य ! आज मैं तुझसे परम प्रसन्न हूँ तू बिना किसी भय के अपने हृदय की बात मेरे आगे स्पष्ट कर । तब भगवान् की अभय करने वाली सुन्दर वाणी सुनकर कौंडिन्यजी बोले-हे भगवान् ! मैं धन ऐश्वर्य के मद में चूर था । मैंने घमण्ड में तुम्हारा तिरस्कार किया और अनन्त का डोरा तोड़ कर फेंक दिया उसी का फल मुझे भोगना पड़ा । मेरा धन ऐश्वर्य आदि नष्ट हो गये । हे प्रभो ! अपने जीवन से अत्यंत निराश हो आपकी शरण में आया हूँ ! हे भगवान् , देवों के देव ! आपने कृपा करके मुझे दर्शन दिया और मेरे जीवन को सार्थक किया । हे विश्वरुप ! मेरे इस पाप कर्म का प्रायश्चित बताइये । अनन्त बोले-हे कौंडिन्य ! अब तू शीघ्र अपने घर को प्रस्थान कर और चौदह वर्ष पर्यन्त अनन्त व्रत का अनुष्ठान कर । तब तेरे समस्त पापों का नाश होगा । हे विप्र ! मेरे वर से तुझे अटल भक्ति मिलेगी । सांसारिक कोई शक्ति तुझे अब मेरी भक्ति से विमुख नहीं कर सकती । इस लीला के लिये व्रत की सुन्दर कथा को पठन-पाठन करने वाला और शीला के सदृश यह अनन्त भगवान् का व्रत करने वाला इसके प्रभाव से समस्त पापों से छूटकर शीघ्र मेरे परमानन्द पद को प्राप्त होवेगा । हे कौंडिन्य ! तू जिस-जिस रास्ते से होकर यहाँ आया है उसी से अपने घर को वापिस लौट जा । अनन्त भगवान् के ऐसे वचन सुनकर कौंडिन्यजी बोले-हे प्रभो ! जब मैं आपकी खोज में वन-वन भटक रहा था तब मैंने जंगल में आम्र का वृक्ष, गौ, बैल, कमल पुष्पों से सुशोभित दो सुन्दर पुष्करणीं, गधा तथा हाथी देखे थे और उनसे मैंने वार्तालाप भी किया । कृपया मुझे यह बताने का अनुग्रह कीजिये कि वे सब कौन थे । भगवान् बोले-हे कौंडिन्य ! प्रथम जो आम्र वृक्ष तूने देखा था वह पूर्व जन्म में एक विज्ञ ब्राह्मण था जो विद्यार्थियों को विद्या दान नहीं करता था उसी पाप से वह वृक्ष हुआ । वह गौ पृथ्वी थी उसने पूर्व ही बीज चुराया था और बैल धर्म है । वे दोनों पुष्करणीं ब्राह्मण की दो सुन्दर बालिका थीं । वे ब्राह्मणों व अतिथियों का स्वागत सत्कार कभी नहीं करती थीं । इसी पाप करके वह पुष्करणीं हुईं और धर्म अधर्म के कारण वह एक दूसरे में लहराती रहती हैं । वह गधा जो तुझे मिला था वह क्रोध है । हाथी मद है और जो वृद्ध ब्राह्मण तुझे यहाँ तक लाया वह मैं ही अनन्त भगवान् हूँ । यह कह कर अनन्त भगवान् अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर कौंडिन्यजी अपने घर को वापिस आये । श्रीकृष्ण भगवान् बोले-हे युधिष्ठिर ! कौंडिन्यजी ने चौदह वर्ष पर्यन्त अनन्त व्रत किया और अनन्त भगवान् ने जिस प्रकार कहा था वही समस्त सुखों को भोगकर अन्त समय भगवान् का ध्यान करते हुए उनके धाम को गये । हे पाण्डव श्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम चौदह वर्ष अनन्त व्रत करो और कथा श्रवण करो । हे युधिष्ठिर ! यह समस्त व्रतों से उत्तम व्रत मैंने तुम्हें सुनाया है । इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य समस्त पापों से छूटकर अनन्त लोक को प्राप्त करता है । हे युधिष्ठिर ! जो शुद्ध सरल हृदय वाले मनुष्य इस संसार में सुखसे रहना चाहते हैं वे विश्वरुप अनन्त भगवान् का पूजन व व्रत करके अपने हाथ में चौदह गाँठ लगाकर अनन्त देव का डोरा बाँधते हैं ॥
॥बोलो श्री अनन्त भगवान् की जय॥