श्रीनाथ ! बुलाओ मुझको भी नाथद्वारा
चरणों में रखलो मुझको देकर कृपा सहारा ॥ टेर ॥
है मोहजालमिथ्या अब तक फँसा था जिसमें ।
अब मैं समझ सका हूँ संसार एक कारा ॥१॥
झूँठे गृहस्थ सुख में होकर प्रसन्न मैंने ।
सत्यसौख्य के विधाता भगवान् तुम्हें विसारा ॥२॥
सब स्वार्थ के सगे हैं कोई नहीं है अपना ।
परमार्थ विघ्नकारक हैं बन्धु पुत्र दारा ॥३॥
सेवक तुम्हारा ’धरणीधर’ दीन बिचारा ॥
दो भक्ति भीख इसको सत्संग आदि द्वारा ॥४॥