स्वापमहोत्सव
( मदनरत्न ) -
आषाढ़ शुक्ल एकादशीको भगवान क्षीरसागरमें शेष - शय्यापर शयन करते हैं । अतः इसका उत्सव मनोनेके लिये सर्वलक्षणसंयुक्त मूर्ति बनवावे । अपनी सामर्थ्यके अनुसार सोना, चाँदी, ताँबा या पीतलकी या कागजकी मूर्ति ( चित्र ) बनवाकर गायन - वादन आदि समारोहके साथ विधिपूर्वक पूजन करे । रात्रिके समय ' सुप्ते त्वयि जगन्नाथे०' से प्रार्थना करके सुखसाधनोंसे सजी हुई शय्यापर शयन करावे । भगवनका सोना रात्रिमें, करवट बदलना संधिमें और जागना दिनमें होता है । इसके विपरीत हो तो अच्छा नहीं । यह विशेष है कि शयन अनुराधाके आद्य तृतीयांशमें परिवर्तन श्रवणके मध्य तृतीयांशमें और उत्थान रेवतीके अन्तिम तृतीयांशमें होता है । यहे कारण है कि आषाढ़ भाद्रपद और कार्तिकमें एकादशीके व्रतवाले पारणाके समय आषाढ़में अनुराधाका आद्य तृतीयांश, भाद्रपदमें श्रवणका मध्य तृतीयांश और कार्तिकमें रेवतीला अन्तिम तृतीयांश व्यतीत होनेके बाद ( या उसके आरम्भसे पहले ) पारण करते हैं । ( स्मरण रहे कि एक नक्षत्र लगभग ६० घड़ीका होता है अतः उसके २०-२० घड़ीके तृतीयांश बनाकर पहला, दूसरा या तीसरा देख लेना चाहिये । ) देवशयनके चातुर्मासीय व्रतोंमे पलंगपर सोना १' भार्याका सङ्ग करना, मिथ्या बोलना, मांस, शहद और दूसरेके दिये हुए दही - भात आदिका भोजन करना और मूली, पटोल एक बैगन आदि शाक २ - पत्र खाना त्याग देना चाहिये । ' रामार्चनचन्द्रिका ' में भगवानकी मूर्तिको रथपर चढ़ाकर घण्टा आदि बाजोंकी ऊँची आवाजके सहित जलाशयमें ले जाकर जलमें शयन करानेका विधान बतलाया है ।
१. सुप्ते त्वयि जगन्नाथे जगत् सुप्तं भवेदिदम् ।
विबुद्धे च विबुध्येत प्रसन्नो मे भवाव्यय ॥ ( रमार्चनचन्द्रिका )
२. निशि स्वपो दिवोत्थानं संध्यायां परिवर्तनम् । ( ब्रह्मपुराण )
३. मैत्राद्यपादे स्वपितीह विष्णुः
श्रुतेश्च मध्ये परिवर्तमेति ।
जागर्ति पौष्णस्य तथावसाने
नो पारणं तत्र बुधः प्रकुर्यत् ॥ ( नारदपुराण )
४. मञ्चखटवादिशयनं वर्जयेद् भक्तिमान्नरः ।
अनृतौ वर्जयेद् भार्यां मांसं मधु परौदनम् ॥
पटोलं मूलकं चैव वृन्ताकं च न भक्षयेत् ॥ ( स्कन्द )
५. मूलपत्रकरीरग्रफलफाण्टाधिरुढकाः ।
त्वकपत्रपुष्पकं चैव शाकं दशविधं स्मृतम् ॥