ऋषितर्पण
( उपाकर्मपद्धति आदि ) -
यह श्रवण शुक्ल पूर्णिमाको किया जाता है । इसमें ऋक्र, यजु; सामके स्वाध्यायी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ या वानप्रस्थ किसी आश्रमके हों अपने - अपने वेद, कार्य और क्रियाके अनुकूल कालमें इस कर्मको सम्पन्न करते हैं । इसका आद्योपान्त पूरा विधान यहाँ नहीं लिखा जा सकता और बहुत संक्षिप्त लिखनेसे उपयोगमें भी नहीं आ सकता है । अतः सामान्यरुपमें यही लिखना उचित है कि उस दिन नदी आदिके तटवर्ती स्थानमे जाकर यथाविधि स्त्रान करे । कुशानिर्मित ऋषियोंकी स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करे और रक्षा - पोटलिका बनाकर उसका मार्जन करे । तदनन्तर आगामी वर्षका अध्ययनक्रम नियत करके सायंकालके समय व्रतकी पूर्ति करे । इसमें उपाकर्मपद्धति आदिके अनुसार अनेक कार्य होतें हैं, वे सब विद्वानोंसे जानकर यह कर्म प्रतिवर्ष सोपवीती प्रत्येक द्विजको अवश्य करना चाहिये । यद्यपि उपाकर्म चातुर्मासमें किया जाता है और इन दिनों नदियाँ रजस्वला होती हैं, तथापि
' उपाकर्मणि चोत्सगें प्रेतस्त्राने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते ॥'
इस वसिष्ठ - वाक्यके अनुसार उपाकर्ममें उसका दोष नहीं माना जाता ।