मङ्गला गौरीव्रत
( व्रतराज, भविष्यपुराण ) -
यह व्रत विवाहके बाद स्त्रीको पाँच वर्षोतक प्रति श्रावणामें प्रति भौमवारको करना चाहिये । विवाहके बाद प्रथम श्रावणमें पीहरमें तथा अन्य चार वर्षोमें पतिगृहमें ही यह व्रत करना चाहिये । इसकी विधि यह है कि देश - कालादिका कीर्तन कर
' मम पुत्रपौत्रसौभाग्यवृद्धये श्रीमङगलागौरीप्रीर्यर्थं पञ्चवर्षपर्यन्तं मङ्ग्लागौरीव्रतं करिष्ये '
ऐसा संकल्प कर पीठके ऊपर गौरीको पधराकर उनके सामने लोक - व्यवहारानुसार पिट्ठेका पत्थर, रत्न बनाकर रखे । आँटेका एक बड़ा - सा १६ मुखवाला दीपक १६ बत्तियोंसे युक्त घृतपूरित कर प्रज्वलित करे । फिर षोडशोपचारसे भगवती गौरीकी पूजा करे । फिर बाँसके पात्रमें सौभाग्यादि द्रव्योंको रखकर
' अन्नकंचुकिसंयुक्तं सवस्त्रफलदक्षिणम् । वायनं गौरि विप्राय ददामि प्रीतये तव ॥ सौभाग्यारोग्यकामानां सर्वसप्मत्समृद्धये । गौरीगिरीशतुष्टयर्थं वायनं ते ददाम्यहम् ॥'
इन दोनों मन्त्रोंसे वायन दे । फिर माताको सौभाग्य द्रव्यके साथ लड्डु, कंचुकी, फल, वस्त्रके साथ ताम्रपात्रमें वायन दे । फिर १६ मुँहवाले दीपकसे नीराजन ( आरती ) करे । फिर थोड़ा - सा दीपका पिष्ठ तथा बिना नमकका अन्न खाकर रातको जागरण करे तथा प्रातःकालमें गौरीका विसर्जन कर दे ।
कथाका सार यह है कि कुण्डिन नगरमें एक धर्मपाल नामका धनी सेठ था । उसकों कोई पुत्र न था । इसलिये दम्पति बड़े व्याकुल थे । उनके यहाँ प्रतिदिन एक जटा - रुद्राक्षमाल्यधारी भिक्षुक आया करता था । पतिकी इसपर भिक्षुकने उसे अनपत्यता ( संतानहीनता ) का शाप दे डाला । फिर बहुत अनुनय करनेपर गौरीकी कृपासे उसे एक अल्पायु पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे गणपतिने १६ वें वर्ष सर्पद्मशनका शाप दे दिया था । पर काशीके मार्गमें उस बालकका विवाह एक ऐसी कन्यासे हुआ जिसकी माताने मङ्गला गौरीव्रत किया था, इसलिये वह शतायु हो गया और मङगला गौरीकी कृपासे न तो साँप ही डँस सका न यमदूत ही १६ वें वर्ष उसके प्राण ले जा सके । वे जब कुण्डिनपुर लौटे तो माता - पिताने उनका बड़ा सोल्लास स्वागत किया ।