जन्माष्टमी
( शिव, विष्णु, ब्रह्म, वह्नि, भविष्यादि ) -यह व्रत भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको किया जाता है । भगवान् श्रीकृष्णका जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवारको रोहिणी नक्षत्रमें अर्धरात्रिके समय वृषके चन्द्रमामें हुआ था । अतः अधिकांश उपासक उक्त बातोंमें अपने - अपने अभीष्ट योगका ग्रहण करते हैं । शास्त्रमें इसके शुद्धा और विद्धा दो भेद हैं । उदयसे उदयपर्यन्त शुद्धा और तदगत सप्तमी या नवमीसे विद्धा होती है । शुद्धा या विद्धा भी - समा, न्यूना या अधिकाके भेदसे तीन प्रकारकी हो जाती हैं और इस प्रकार अठारह भेद बन जाते हैं, परंतु सिद्धान्तरुपमें तत्कालव्यापिनी ( अर्धरात्रिमें रहनेवाली ) तिथि अधिक मान्य होती हैं । वह यदि दो दिन हो - या दोनों ही दिन न हो तो ( सप्तमीविद्धाको सर्वथा त्यागक ) नवमी - विद्धाका ग्रहण करना चाहिये । यह सर्वमान्य और पापघ्रव्रत बाल, कुमार, युवा और वृद्ध - सभी अवस्थावाले नर - नारियोंके करनेयोग्य है । इससे उनके पापोंकी निवृत्ति और सुखादिकी वृद्धि होती है । जो इसको नहीं करते, उनको पाप होता है । इसमें अष्टमीके उपवाससे पूजन और नवमीके ( तिथिमात्र ) पारणासे व्रतकी पूर्ति होती है । व्रत करनेवालेको चाहिये कि उपवासके पहले दिन लघु भोजन करे । रात्रिमें जितेन्द्रिय रहे और उपवासके दिन प्रातःस्त्रानादि नित्यकर्म करके सूर्य, सोम, यम, काल, सन्धि, भूत, पवन, दिकपति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्म आदिको नमस्कार करके पूर्व या उत्तर मुख बैठे; हाथमें जल, फल, कुश, फूल और गन्ध लेकर
' ममखिलपापप्रशमनपूर्वंकसर्वाभीष्टसिद्धये श्रीकृष्णजन्माष्टमी - व्रतमहं करिष्ये '
यह संकल्प करे और मध्याह्नके समय काले तिलोंके जलसे स्त्रान करके देवकीजीके लिये ' सूतिकागृह ' नियत करे । उसे स्वच्छ और सुशोभित करके उसमें सूतिकाके उपयोगी सब सामग्री यथाक्रम रखे । सामर्थ्य हो तो गाने - बजानेका भी आयोजन करे । प्रसूतिगृहके सुखद विभागमें सुन्दर और सुकोमल बिछौनेके सुदृढ़ मञ्चपर अक्षतादिका मण्डल बनवाकर उसपर शुभ कलश स्थापन करे और उसीपर सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, मणि, वृक्ष, मिट्टी या चित्ररुपकी मूर्ति स्थापित करे । मूर्तिमें सद्यःप्रसूत श्रीकृष्णको स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किये हुए हों - ऐसा भाव प्रकट रहे । इसके बाद यथासमय भगवानके प्रकट होनेकी भावना करके वैदिक विधिसे, पौराणिक प्रकारसे अथवा अपने सम्प्रदायकी पद्धतिसे पञ्चोपचार, दशोपचार, षोडशोपचार या आवरणपूजा आदिमें जो बन सके वही प्रीतिपूर्वक करे । पूजनमें देवकी, वसुदेव, वासुदेव, बलदेव, नन्द, यशोदा और लक्ष्मी - इन सबका क्रमशः नाम निर्दिष्ट करना चाहिये । ........ अन्तमें '
प्रणये देवजननीं त्वया जातस्तु वामनः । वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः ॥ सपुत्रार्ध्यं प्रदत्तं मे गृहाणेमं नमोऽस्तु ते ।'
से देवकीको अर्घ्य दे और
' धर्माय धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः । '
से श्रीकृष्णको ' पुष्पञ्जलि ' अर्पण करे । तत्पश्चात् जातकर्म, नालच्छेदन, षष्ठीपूजन और नामकरणादि करके
' सोमाय सोमेश्वराय सोमपतये सोमसम्भवाय सोमाय नमो नमः ।'
से चन्द्रमाका पूजन करे और फिर शड्खमें जल, फल, कुश, कुसुम और गन्ध डालकर दोनों घुटने जमीनमें लगावे और
' क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिनेत्र समुद्भव । गृहाणार्घ्यं शशाड्केमं रोहिण्या सहितो मम ॥
ज्योत्स्रापते नसस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते । नमस्ते रोहिणीकान्त अर्घ्य में प्रतिगृह्यताम् ॥'
से चन्द्रमाको अर्घ्य दे और रात्रिके शेष भागको स्तोत्र पाठादि करते हुए बितावे । उसके बाद दूसरे दिन पूर्वाह्णमें पुनः स्त्रानादि करके जिस तिथि या नक्षत्रादिके योगमें व्रत किया हो उसका अन्त होनेपर पारणा करे । यदि अभीष्ट तिथि या नक्षत्रादिके समाप्त होनेमें विलम्ब हो तो जल पीकर पारणाली पूर्ति करे ।