वृष्टिप्रदव्रत
( बृहदृग्विधान ) - उस मनुष्यको धन्य कहना चाहिये जिसके धन - रत्नादिसे भरे हुए सौ ऊँट, सौ ऊँटनी, पुत्र, पत्नी और पुत्रवधू आदि सभी एक - एक करके बाढ़में बह गये तो भी उसने वर्षाके विषयमेम यही कहा कि
' वर्षा तो बरषी भली, होनी हो सो होय ।'
वास्तवमें संसारके जितने भी पदार्थ और प्राणी हैं, वे रातभरकी वर्षासे ही सस्ते, सुलभ और सुखी हो जाते हैं तथा अवसरपर वर्षा न होनेसे ही सब महँगे, दुर्लभ और दुःखी हो जाते है । अतः वृष्टिके निमित्त नियमपालनपूर्वक व्रतविधानादिका करना - कराना नितान्त आवश्यक है । व्रतीको चाहिये कि वह जलद अथवा वारुणयोगमें प्रातःस्त्रानादि करके गीले वस्त्र धारण किये सूर्यके सम्मुख शुभासनपर बैठे । काम - क्रोधादिका त्याग करे तथा ब्रह्मचर्यका पालन और भूशयन करते हुए निराहार रहे । यथोचित वर्षाके अतिशीघ्र होनेकी आशा, विश्वास और अनुरागको अपने अन्तः करणमें सुस्थिर करके हाथमें जल, फल, गन्धाक्षत और पूष्प लेकर
' मम समस्तलोकोपकारकामनासिद्धयर्थं वृष्टिप्राप्तये ऋग्वेदीय ' अच्छावदेति०' सूक्तस्यानुष्ठानमहं करिष्ये ।'
यह संकल्प करके १ ' अच्छावदत०', २ ' विवृक्षान्हन्ति०', ३ ' रथीव कशया०', ४ ' प्रवाता वान्ति०', ५ ' यस्य व्रते०', ६ ' दिवो नो वृष्टिं०', ७ ' अभिकन्दस्तनय०', ८ ' महान्तं कोश०', ९ ' यत्पर्जन्य कनिक्रदत्०', और १० ' अवषीर्वर्ष०' इस सूक्तसे अथवा इसकी प्रत्येक ऋचासे अयुतवेतसी ( आम्लवेत जिसको कुछ लोग जलबेत कहते हैं ) की दस हजार समिधाओंको, जिनकी लम्बाई एक बित्तेसे कम न हो, घी और दूधमें प्लावित करके सूक्त अथवा ऋचाके साथ - साथ ' पर्जन्याय स्वाहा ' कहकर हवन करे । इस प्रकार भूख - प्यास और जागरणका कष्ट सहन करते हुए अथक परिश्रम और उत्साहसे युक्त होकर ( आधिक - से - आधिक ) पाँच राततक जप और हवन करे । यदि हो सके तो आप अकेले ही सारी रात जागकर अनुष्ठान करें, न हो सके तो तीन अन्य व्यक्तियोंकों सहायक बना ले । एक - एक आदमी एक - एक प्रहर अनुष्ठानमें लगे रहें । इस प्रकार पाँच राततक अखण्ड अनुष्ठान चालू रखे । ऐसा करनेसे निश्चय ही भारी स्मरण करना सर्वोत्कृष्ट है ।