प्रजापति n. एक वैदिक देवता, जो संपूर्ण प्रजाओं का स्रष्टा माना जाता है । महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट ‘ब्रह्मा’ देवता से इसे वैदिक देवता का काफी साम्य है, एवं ब्रह्मा की बहुत सारी कथाएँ इससे मिलती जुलती हैं (ब्रह्मन देखिये) । ऋग्वेद के दशम मण्डल में चार बार प्रजापति का नाम एक देवता के रुप में आया है । देवता प्रजापति को बहुत सन्तानों ‘प्रजागों’ को प्रदान करने के लिये आवाहन किया गया है
[ऋ.१०.५८.४३] । विष्णु, त्वष्ट्रु तथा धातृ के साथ इसकी भी सन्तान प्रदान करने के लिए स्तुति की गयी है
[ऋ.१०.१८४] । इसे, गायों को अत्यधिक दुग्ध्वती प्रशस्ति कहा गया है
[ऋ. १०.१६९] । इसकी प्रशस्ति में ऋग्वेद का एक स्वतंत्र सूक्त हैं, जिसमें इसे पृथ्वी का सर्चोच्च देवता कहा गया है
[ऋ.१०.१२१] । इस सूक्त में, आकाश एवं पृथ्वी, जल एवं सभी जीवित प्राणियों के स्त्रष्टा के रुप में इसकी स्तुति की गयी है, तथा कहा गया है, पृथ्वी में जो कुछ भी है, उसके अधिपति (पति) के रुप में प्रजापति का जन्म (जात) हुआ है । यह श्वास लेनेवाले समस्त गतिशील जीवों का राजा है । यही सब देवों में श्रेष्ठ है । इसी के विधानों का सभी प्राणी पालन करते हैं । यही नहीं, इसका यह विधान देवताओं को भी मान्य है । इसने आकाश तथा पृथ्वी की स्थापना की है, यही अन्तरिक्ष के स्थानों में व्याप्त है, तथा समस्त विश्व तथा समस्त प्राणियों को अपने भुजाओं से अलिंगन करता है । अथर्ववेद तथा वाजसनीय संहिता में साधारणतया, ब्राह्मण ग्रन्थों में नियमित रुप से, इसे सर्व प्रमुख देवता माना गया है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, यह देवों का पिता है
[श.ब्रा.११.१.६] ;
[तै.ब्रा,८.१.३] । सृष्टि के आरम्भ में अकेले इसी का अस्तित्त्व था
[श.ब्रा.२.२.४] । एवं यह पृथ्वी का सर्वप्रथम याज्ञिक था
[श.ब्रा.२.४.४,६.२.३] । देवों को ही नहीं, वरन् असुरों को भी इसनी बनाया था
[तै.ब्रा.२.२.२] । सूत्रों में, इसे ब्रह्मा के साथ समीकृत किया गया है
[आश्व.गृह.३.४] । ‘वंशब्राह्मण’ में इसे ब्रह्मा का शिष्य कहा गया है, एवं इसके शिष्य का नाम मृत्यु कहा गया है
[वं.ब्रा.२] । ऋग्वेद के कई सूक्तों का यह मन्त्रद्रष्टा भी है
[ऋ.९.१०१.१३-१६] ।
प्रजापति n. उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में, इसे सर्वप्रमुख देवता के स्थानपर प्रतिस्थापित किया गया है । उपनिषदों के दर्शनशास्त्र में इसे ‘परब्रह्म’ अथवा ‘विश्वात्मा’ कहा गया हैं । तत्त्वज्ञान के संबंध में जब कमी किसीप्रकार की शंका उठ खडी होती थी, तब देव, दैत्य, एवं मानव प्रजापति के पास आकर अपनी शंका का समाधान करते थे
[ऐ.ब्रा.५.३] ;
[छां.उ. ८.७.१] ;
[श्वेत.उ.४.२] । ऋग्वेद, ब्राह्मण एवं उपनिषद् ग्रन्थों में प्रजापति को प्रायः देवता के रुप में माना गया है । लेकिन, इन्ही ग्रन्थों में कई स्थानों में इसे अन्य रुपों में भी निरुपित किया गया है । ऋग्वेद में एक स्थानपर, प्रजापति उस ‘सवितृ’ की उपाधि के रुप में आता है, जिसे आकाश को धारण करनेवाला, एवं विश्व का प्रजापति कहा गया है
[ऋ.४.५३] । दूसरे एक स्थानपर इसे सोम की उपाधि के रुप में प्रस्तुत किया गया है
[ऋ.९.५] । ब्राह्मण एवं उपनिषद ग्रंथो में, प्रजापति शब्द, विभिन्न अर्थोसे प्रयुक्त किया गया है, जिनमें से कई इस प्रकार हैः---यज्ञ, बारह माह, वैश्वानर, अन्न, वायु, साम एवं आत्मा । इससे प्रतीत होता है कि, उस समय किसी भी वस्तु की महत्ता वर्णित करने के लिए, ‘प्रजापति’ उपाधि का प्रयोग होगा था । पंचविंश ब्राह्मण में, सभी का महत्त्व वर्णन करने के लिए, उन्हें प्रजापति उपाधि दी गयी है
[पं.ब्रा.७.५.६] ।
प्रजापति n. आरंभ---वैदिक वाङ्मय में प्रजापति के जीवन सम्बन्धी कई कथार्ये दी गयी है जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैः--- प्रजापति की आस्थि संधियों ढीली हो गयी थीं, तब देवों ने यज्ञ के उन्हें ठीक किया
[श.ब्रा.१.६.३.३५] । प्रजापति सर्वप्रथम अकेला था । कालान्तर में, प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से, उसने अपने शरीर के मॉंस को निकालाकर उसकी आहुति अग्नि में दी । अगि से इसके पुत्र के रुप में बिना सींगों का एक बकरा उत्पन्न हुआ
[तै.सं.२.१.१] । प्रजापति के द्वारा उत्पन्न की गयी प्रजा इसके अधिकार के अन्दर रहकर वरुण के अधिकार में चली गयी । जब इसने उन्हें वापस बुलाना चाहा, तब वरुण ने उन्हें अपने कब्जे से छोडने के लिए इन्कार कर दिया । फिर प्रजापति ने एक सफेद खुरवाला कृष्णवर्णीय पशु वरुण को भेंट स्वरुप प्रदान करने का आश्वासन दिया । इस पर प्रसन्न होकर, वरुण ने प्रजा के उपर का अपना अधिकार उठा लिया, और प्रजापति प्रजा का स्वामी बन बैठा
[तै.सं.२.१.२] । पृथ्वी उत्पन्न होने के बाद, देवों की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा हुई, और उन्होंने प्रजापति के कथनानुसार तपश्चर्या कर, अग्नि के आश्रय से एक गाय उत्पन्न की । उस गाय के लिए सब देवों ने प्रयत्न कर अग्नि को संतुष्ट किया । बाद में, उस गाय से प्रत्येक देव को तीन सौ तेंतीस देव प्राप्त हुए । इस प्रकार असंख्य प्रजा उत्पन्न हुई
[तै.सं.७.१.५] । प्राचीन काल में, प्रजापति ने यज्ञ की ऋचाओं एवं छंदो का परस्पर में वितरण किया । उस समय इसने अपना अनष्टुप छंद ‘अच्छावाकीय’ नामक ऋचा को प्रदान किया अनुष्टुम नाराज होकर प्रजापति को दोष देने लगा । फिर सोमयज्ञ कर प्रजापति ने उस यज्ञ में अनुष्टूप् छंद को अग्रस्थान दिया । तब से उस छंद का उपयोग वैदिक ‘सवनों में सर्वप्रथम होने लगा । प्रजापति की प्रजा जब उसे त्याग कर जाने लगी, तब इसने अग्नि की सहायता से प्रजा को पुनः प्राप्त किया
[ऐ.ब्रा.३.१२] । इसने ‘अग्निष्टोम’ नामक यज्ञ कर, उसमें अपने आप को समर्पित कर, देवों से अपनी प्रजा पुनः प्राप्त की
[पं.ब्रा.७.२.१] । मनुष्य होते हुए भी देवत्व प्राप्त ऋषिओं को, एकबार प्रजापति ने ‘तृतीयसवन’ में बुलाकर, उनके साथ सोमपान किया । इसको उचित न समझकर, अग्नि आदि देवताओं ने इसकी कटु आलोचना की अ
[ऐ.ब्रा,३३०] ।
प्रजापति n. राक्षसों की उग्र तपस्या से सन्तुष्ट होकर, प्रजापति राक्षसों के पास आया, इसने उनसे वर मॉंगने को कहा । राक्षसों ने कहा ‘हम सूर्य से लडना चाहते हैं’। प्रजापति ने उनकी मॉंग स्वीकार कर, उन्हें वर प्रदान किया । तब से प्रतिदिन सूर्यादय से सूर्यास्त तक राक्षस सूर्य से लडते रहते हैं । इस युद्ध में सूर्य की सहायता करने के लिये, ब्रह्मनिष्ठ लोग पूर्व की ओर भगवान् सूर्य को अर्घ्यदान देते हैं । अर्घ्य के जल का एक एक बूँद वज्र बनकर राक्षसों का प्रहार करता हैं । इससे पराजित होकर राक्षसगण अपने ‘अरुणद्वीप’ नामक देश को भाग जाते है
[तै.आ.२.२] ।
प्रजापति n. प्रजापति ने देव तथा असुर निर्माण किये, परन्तु राजा उत्पन्न नहीं किया । बाद में, देवों के प्रार्थना करने पर इसने इन्द्र उत्पन्न किया । त्रिष्टुप नामक देवता ने १५ धाराओं का वज्र इन्द्र को प्रदान किया । उस वज्र से इन्द्र ने असुरों को पराजित कर, देवों के लिए स्वर्ग प्राप्त किया । स्वर्ग के भोगभूमि समझकर सभी देवगण आये थे, पर वहॉं पर खानेपीने की कोई वस्तु न पाकर उन्होंने ‘अयास्य’ नामक आंगिरस गोत्र के ऋषि को, यज्ञ अनुष्ठान की कार्यप्रणाले से अवगत कराकर उसे पृथ्वी पर भेजा । भूलोके पर जाकर ‘अयास्य’ ने यज्ञानुष्ठान कर देवों को हविर्भाग देने की कल्पना प्रसारित की
[तै.ब्रा.२.२.७] । इन्द्र तथा वृत्र में घोर युद्ध हुआ । युद्ध में वृत्र ने तीव्र गति से अपनी श्वास को छोडकर इन्द्र के पक्ष के सभी योद्धाओं को भयभीत कर भगा दिया, पर मरुतों ने इन्द्र का साथ न छोडा । मरुतों की सहायता से इन्द्र ने वृत्र का वध कर प्रजापति का मान प्राप्त करना चाहा । उसकी यह इच्छा तो पूरी न हो सकी, पर प्रजापति ने उसके इस कार्य से प्रसन्न हो कर उसे ‘महेन्द्र’ पदवी दी ।
[ऐ.ब्रा.३.२०-२२] । प्रजापति के नेतृत्त्व में, देवों ने इन्द्र का राज्याभिषेक किया, जिससे उसे सभी अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्त हुयी । इन समस्त शक्तियों को पाकर अन्त में, उसने मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की
[ऐ.ब्रा.८.१२,१४] ।
प्रजापति n. एक बार प्रजापति ने यज्ञ किया, जिसमें यह स्वयं ‘होता’ बना । इस समय सभी देवताओं की इच्छा थी कि, मुझे अधिष्ठाता मान कर यह यज्ञ किया जाय । ऐसी स्थिति में, प्रजापति ने ‘आपो रेवती’
[ऋ.१०.३०.१२] मन्त्र के द्वारा यज्ञारम्भ किया । ‘आप’ तथा ‘रेवती’ इन दो शब्दों से सब देवों का निर्देश होता है, इसलिये प्रत्येक देव को संतोष हुआ कि, यज्ञ का प्रारंभ मुझे सम्बोधित करके किया गया है
[ऐ. ब्रा.२.१६] । एक बार इसके तीनों पुत्र---देव, मनुष्य तथा असुर उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से आये । प्रजापति ने उन तीनों को ‘द’ का उपदेश दिया । इस ‘द’ उपदेश का आशय हर एक पुत्रों के लिए भिन्न भिन्न था । देवों के लिए दमन, मनुष्यों के लिए दान, तथा असुरों के लिए दया का उपदेश देकर, इसने उन्हें अपनी मुक्त प्राप्त करने का एकमेव साधन बताया
[बृ.उ.५.१-३] ।
प्रजापति n. एक बार प्रजापति के मन में सृष्टिजन की इच्छा उप्तन्न हुयी । इसने अपने अन्तर्मन से एक धूम्रराशि का निर्माण किया, जिससे अग्नि, ज्योति, ज्वाला एवं प्रभा आदि उत्पन्न हुए । पश्चात्, उन सबने मिलकर एक ठोस गोले का रुप धारण किया, जिससे प्रजापति का मूत्राशय बना । इस मूत्राशय को परमेश्वर ने फोडा, जिससे समुद्र की उत्पत्ति हुयी । समुद्र, क्योंकि मूत्राशय से उत्पन्न हुआ है, इसी से उसका पानी खारा रहता है तथा वह पीने लायक नहीं होता । जलमय समुद्र से ही प्रजापति ने क्रमानुसार पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा द्यौ उत्पन्न किये । इसके बाद, अपने शरीर से असुरों का निर्माण कर, दिवस रात्रि तथा अहोरात्रि के संधिकाल को बनाया । इस प्रकार, प्रजापति ने सारी प्रजा का निर्माण किया
[तै. ब्रा.२.२.९] । देवों को पैदा करने के उपरात्न प्रजापति ने देवों में कनिष्ठ इन्द्र को उत्पन्न कर, उससे कहा, ‘मेरी आज्ञा से तुम स्वर्ग में जाकर देवो पर शासन करो ।’ इन्द्र स्वर्ग गया, पर वहॉं किसी ने उस को अपना राजा न माना, क्योंकि वह सबसे आयु में छोटा, तथा शक्ति में अधिक था । इन्द्र वापस आया, और प्रजापति से देवों के कथन को दुहरा कर उसने अपने विशेष तेज को देने की याचना की । प्रजापति ने इन्द्र से कहा ‘यदि मै तुम्हें अपना तेज द्दे दूँगा, तो फिर मुझे कौन पूँछेगा?’। इस पर इन्द्र ने उत्तर दिया, ‘तुम ‘क’ नाम से प्रसिद्ध होगे । अपना तेज मुझे दे डालने के बाद भी तुम्हारा प्रजापतित्व कायम रहेगा’ । इतना सुन कर प्रजापति ने अपने तेज को एक ‘पदक’ का रुप देकर उसे इन्द्र के मस्तक पर बॉंध दिया । तब कहीं इन्द्र इस योग्य बना कि, वह देवों का अधिपति बनकर उन पर राज्य कर सके
[तै.ब्रा.२.२.१०] ।
प्रजापति n. एक बार प्रजापति ने सोम एवं तीन वेद नामक पुत्र, तथा सीतासावित्री नामक कन्या उत्पन्न की । उन में से तीन वेदों को सोम ने अपनी मुठ्ठी में बन्द कर रखा था । पश्चात् सीतासावित्रों के मन में सोम से विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हुयी । पर सोम सीतासावित्री को न चाह कर, प्रजापति की श्रद्धा नामक अन्य कन्या से विवाह करना चाहता था । प्रजापति के सहानुभूति सीतासावित्री के प्रति अधिक थी, और यह चाहता था कि, सोम का विवाह सीतासावित्री से ही हो । इसी कारण, सलाह लेने के लिए आयी हुयी सीतासावित्री को, इसने एक वशीकरण मंत्र से अवगत कराया । ‘स्थागर’ नामक एक सुगन्धमय वनस्पति को घिसकर, इसने उसके मस्तक में चन्दन की भॉंति टीका लगाकर, उसे आशीष देकर विदा किया । तब सीतासावित्री सोम के यहॉं गयी । वशीकरण के प्रभाव से, सोम उस पर मोहित हो कर प्रेमभरा व्यवहार करने लगा, और शादी के लिए तैयार हो गया । किन्तु, शादी के पूर्व सीतासावित्री ने सोम की प्रेमपरीक्षा लेने के लिए उसके सामने शर्त रखी, ‘वह उसके सिवा किसी अन्य नारी से भोग न करेगा, तथा मुठ्ठी में छिपी हुयी वस्तु का उसे स्पष्ट ज्ञान करायेगा’। सोम को ये शर्ते मंजूर हुयीं और सीतासावित्री का विवाह सोम के साथ सम्पन्न हुआ । इसप्रकार वशीकरण के प्रभाव के दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । तैत्तिरीय ब्राह्मण में, प्रजापति का यह वशीकरणप्रयोग विस्तार के साथ बताकर कहा गया है कि, जो इस वशीकरण का प्रयोग करेगा उसे इच्छित वस्तु प्राप्त होगी
[तै.ब्रा.२.३.१०] । ऐतरेय ब्राह्मण में, प्रजापति की कन्या का नाम ‘सूर्यासावित्री’ बताया गया है
[ऐ. ब्रा.४.७] । अपनी इस कन्या का विवाह प्रजापति ने सोम के साथ निश्चित किया । ‘सूर्यासावित्री’ के विवाहोत्सव में, प्रजापति ने सारे देवों को निमंत्रित किया । उस समय प्रजापति ने सहस्त्र ऋचाओंवाला एक ‘आश्विन स्तोत्र’ का निर्माण कर, उसे उन देवों के सन्मुख प्रस्तुत किया । उस स्तोत्र को सुन कर सभी देवताओं के मन में उसके प्राप्ति की अभिलाषा उत्पन्न हुयी । ऐसी स्थिति में, देवों के बीच उत्पन्न हुयी कलह को मिटाने के लिए प्रजापति ने एक प्रतियोगिता रक्खी, जिसके अनुसार, यह तय किया गया कि, जो देवता गाहर्पत्य तक दौड में प्रथम आयेगा उसे ही यह स्तोत्र प्रदान किया जायेगा । इस दौड में अश्विनीकुमार प्रथम आये, और उन्हे स्तोत्र की प्राप्ति हुयी
[ऐ.ब्रा.४.७] ।
प्रजापति n. ऐतरेय ब्राह्मण एवं मैत्रायणी संहिता में, प्रजापति के अपनी कन्या ‘उषस’ पर ही आसक्त हो जाने की कथा प्राप्त है
[ऐ. ब्रा.३.३३] ;
[मै.सं.४.२] । एक बार, अपनी ही कन्या ‘द्यौ’ तथा ‘उषस्’ को देखकर, प्रजापति के मन में कामचासना उत्पन्न हुयी, एवं यह उनके पीछे दौडने लगा । इससे डरकर इसकी कन्याओं ने रोहित नामक मृगी का रुप धारण कर लिया । तब इसने ऋष्य नामक मृग का रुप धारण कर, उनसे मैथुन किया । सारे ‘देवाताओं ने ‘दुहितागमन’ का यह निन्दनीय कर्म देखकर, इस पापी पुरुष को नष्ट करने की ठान ली । फिर, हर एक देव ने अपने रौद्रांश को एकत्र कर ‘भूतवान’ नामक एक भयंकर पुरुष का निर्माण किया, जिसने प्रजापति का पापी देह नष्ट किया । प्रजापति का मृगरुपी मृतदेह मृगनक्षत्र के रुप में आज भी आकाश में दिखाई पडता है । जिस बाण से प्रजापति का हनन किया गया था, उस बाण की नोंक, मध्य तथा फाल आज भी हमें आकाश में दिखाई पडती है । रोहिणी नक्षत्र ही प्रजापति की कन्या है । उस समय जो प्रजापति का वीर्य गिरा उससे निन्मलिखित प्राणी इस क्रम से उत्पन्न हुएः---अग्नि, वायु, आदित्य, तीन वेद, भू; भूव;, स्व;, अ उ म
[ऐ.ब्रा.३.३३,५.२] । कामी प्रजापति ने अपनी ‘द्यौ’ एवं ‘उषस्’ नामक कन्याओं से भोग करते समय, जो वीर्य असावधानी में नीचे भूमि पर स्खलित किया था, कालान्तर में वही वीर्य चारों और बहने लगा । मरुतों ने उसे एकत्र कर उसका पिंड बनाया । उस पिंड से आदित्य एवं वारुणि भृगुओं की उत्पत्ति हुयी । उन दोनों के निर्माण के पश्चात्, शेष बचे हुए वीर्यकण दग्ध होकर अंगार के समान फूलने लगे । उन अंगारों से अंगिरस निर्माण हुए । जो अंगार जलकर कोयले के समान काले हो गये, उनसे कृष्णवर्यीय पशुओं की उत्पत्ति हुयी । उन अंगारों के सहयोग से पृथ्वी का जो भाग तृप्त होकर लाल हो गया, उनसे रक्तवर्णीय पशुओं का निर्माण हुआ
[ऐ.ब्रा.३.३४] । शतपथ ब्राह्मण में भी प्रजापति द्वारा प्रजोत्पत्ति की यही कथा इसी प्रकार दी गयी है । किन्तु इस ग्रन्थ में प्रजापति के हनन के लिए देवों द्वारा उत्पन्न किये भयंकर पुरुष का नाम ‘भूतवान’ की जगह ‘रुद्र’ दिया गया है, एवं इसके स्खलित वीर्य से उत्पन्न पुत्र का नाम ‘अग्नि मारुत उत्थ’ दिया गया है
[श.ब्रा.१.७.४] । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, प्रजापति का वध करने के पश्चात्, देवों का क्रोध पुनः शान्त हुआ, और उन्होंने फिर से इसका अभिषेक किया, एवं इसे ‘यज्ञ प्रजापति’ नाम प्रदान किया
[श. ब्रा.१.७.४] । प्रजा निर्मित करने के उपरांत प्रजापति को आपसी झगडों को निपटा कर के, वैधानिक दण्डादि भी देना पडता था । तत्त्वज्ञान के संबंध में जब कभी शंकायें उठती थीं, तो उनके निवारणार्थ देव, दैत्य अथवा मनुष्यलोग प्रजापति के पास जाया करते थे
[छां.उ.८.७.१.३] ;
[ऐ. ब्रा.५.३] ;
[श्वेत.४.२] ।
प्रजापति (परमेष्ठिन्) n. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा
[ऋ. १०.१२९] ।
प्रजापति (वैश्वामित्र) n. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा
[ऋ.३.३८,५४-५६] ।
प्रजापति (वाच्य) n. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा
[ऋ. ३.३८, ५४-५६, ९.८४] ।
प्रजापति II. n. ब्रह्मदेवों के मानस पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामूहित नाम । वायुपुराण के अनुसार, ब्रह्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति की, जिसको बढाने के लिए, अपने शरीर के विभिन्न अवयवों से उसने अनेक मानसपुत्र निर्माण किये । मानसपुत्रों के निर्माण के पीछे उनका हेतु सृष्टि विस्तार ही था । इस कारण ब्रह्माने अपने मानसपुत्रों को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी । इसी कारण, ब्रह्मा के मानस पुत्रों को प्रजापति सामूहिक नाम प्राप्त हुआ । पुराणों में ‘प्रजापति’ शब्द की व्याख्या ‘संतति उत्पन्न करनेवाला’ ऐसी की गयी है, जैसा कि वायुपुराण में लिखा है--- लोकस्य संतानकरास्तैरिमा वर्धिताः प्रजाः । प्रजापतय इत्येवं पठयन्ते ब्रह्मणः सुताः ॥
[वायु.६५.४८] । मत्स्य पुराण में भी यही विचार प्रकट किये गये हैं, जो निम्नलिखित श्लोक में द्रष्टव्य है--- ‘विश्वे प्रजानां पतयो येभ्यो लोका विनिसृताः’
[मत्स्य.१७१.२५] ।
प्रजापति II. n. प्रजापतियों की संख्या के बारे में कहीं भी एकवाक्यता नहीं है । पुराणों में प्रजापतियों की संख्याओं के लिये, सात, तेरह, चौदह, इक्कीस आदि भिन्न भिन्न संख्यानें प्राप्त हैं । बहुत सारे पुराणों में निम्नलिखित व्यक्तियों का निर्देश प्रजापति के नाम से किया गया है----मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, वसिष्ठ, भृगु, नारद । वायु, ब्रह्मांड, गरुड, मस्त्य एवं महाभारत में ‘अन्य’, ‘बहवः’ ऐसा निर्देश कर, और भी कई व्यक्तियों की नामावली प्रजापति के नाम से दी गयी है । जिस व्यक्ति के संतति की संख्या अधिक हो, उसे प्रजापति की संज्ञा पुराणों में प्रदान की गयी दिखती है । पुराणों में बहुत सारी जगहों पर प्रजापति को समस्त सृष्टि का सृजन करनेवाले ब्रह्मा से समीकृत किया गया है । कई जगह इसे व्यास भी कहा गया है (व्यास देखिये) ।
प्रजापति II. n. विभिन्न पुराणों में प्रजापतियों की नामावलि निम्नप्रकार से दी गयी है:--- (१) वायु एवं ब्रह्मांड पुराण---‘कर्दम, कश्यप, शेष,विक्रांत,सुश्रवस्, बहुपुत्र,कुमार, विवस्वत, अरिष्टनेमि,बहुल,कुशोच्चय,वालखिल्य,संभूत,परमर्षय,मनोजव,सर्वगत,सर्वभोग
[वायु.६५.४८] ;
[ब्रह्मांड.२.९.२१,३.१] । (२) गरुड पुराण---धर्म, रुद्र, मनु, सनक, सनातन, सनकुमार, रुचि, श्रद्धा, पितर, बर्हिषद, अग्निष्वात्त, कव्यादान, दीप्यान, आज्यपान
[गरुड.१.५] । (३) मस्त्य पुराण---गौतम, हस्तींद्र, सुकृत, मूर्ति, अप्, ज्योति, त्र्यय, समय । मत्स्य में निर्दिष्ट ये सारे प्रजापति स्वायंभुव मन्वन्तर में पैदा हुए थे
[मत्स्य.९. ९-१०,१७१.२७] । (४) महाभारत---रुद्र, भृगु, धर्म, तप, यम, मरीचि,अंगिरा,अत्रि, पुलस्त्य, पुलह् क्रतु, वसिष्ठ, चन्द्रमा, क्रोध, विक्रीत, बृहस्पति, स्थाणु, मनु, क, परमेष्ठिन्, दक्ष, सप्त पुत्र, कश्यप,, कर्दम, प्रल्हाद, सनातन, प्राचीनबर्हि, दक्ष प्रचेतस, सोम, सर्यमन्, शशबिंदुपुत्र, गौतम
[म.स.११.१४] ;
[शां २०१] ;
[भा.३.१२.२१] । महाभारत में मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप को प्रजापति कहा गया है, एवं उसे मनुष्य, देव एवं राक्षसों का आदि पुरुष कहा गया है । महाभारत के अनुसार, मरीचि ऋषि के पुत्र का नाम प्रजापति अरिष्टनेमि अथवा कश्यप था, जिसका विवाह दक्ष की कन्याओं से हुआ था । उसी कश्यप से सारी सृष्टि का निर्माण हुआ । यादवों के चक्रवर्ति राजा शशबिण्दु को भी महाभारत में एक जगह प्रजापति कहा गया है
[म.शां.२००.११-१२] । ब्रह्मांड के अनुसार, हर एक कल्प में नयी सृष्टि का निर्माण करना प्रजापति का कार्य रहा है । स्वायंभुव मन्वन्तर के प्रजापति को कोई संतान न होती थी । फिर ब्रह्मा ने स्वयं कन्याओं को उत्पन्न कर उसे दक्ष को दिया । पश्चात्, दक्ष ने अनेक कन्यायें उत्पन्न कर उन्हें उस मन्वन्तर के प्रजापतियों को प्रदान किया । किन्तु दक्षयज्ञ के संहार में शंकर ने सारे प्रजापतियों को दग्ध कर दिया
[ब्रह्मांड.२.९.३१-६७] । पद्म के अनुसार, रोहिणी नक्षत्र की देवता प्रजापति माना गया है । प्रजापति को जब शनि की पीडा होती है, तब सृष्टि का संहार (लोकक्षय) होता है
[पद्म. उ.३३] ।
प्रजापति III. n. एक धर्मशास्त्रकार । बौधायन के धर्मसूत्र में, प्रजापति के धर्मशास्त्रविषयक मत ग्राह्य माने गये है
[बौ.ध.२.४.१५,२.१०.७१] । वसिष्ठ ने भी अपने धर्मशास्त्र में इसके मतों का अनेक बार निर्देश किया है
[व.ध.३.४७,१४.१६.१९, २४-२५, ३०-३२] । बौधायन तथा वसिष्ठ धर्मसूत्रों में निर्देशित प्रजापति के सारे श्लोक मनुस्मृति में पुनः प्राप्त हैं । इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि, बौधायन तथा वसिष्ठ ने प्रजापति को मनु का ही नामांतर माना है । आनंदाश्रम संग्रह में
[आनंद.९०-९८] , प्रजापति की श्राद्धविषयक एक स्मृति दी गयी है, जिसमें एक सौ अठ्ठान्नवे श्लोक हैं । ये श्लोक अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपजाति, वसंततिलका तथा स्त्रग्धरा वृत्तों में हैं । इस स्मृति में कल्पशास्त्र, स्मृति, धर्मशास्त्र तथा पुराणों पर विचार किया गया है । ‘कन्या’ एवं ‘वृश्चिक’ राशियों के बारे में प्रजापति स्मृति में एक श्लोक प्राप्त है, जिसे कार्ष्णजिनि ने उद्धृत किया है । अशौच एवं प्रायश्चित के बारे में प्रजापति के श्लोक मिताक्षरा में दिये गये हैं
[याज्ञ.३.२५.२६०] । पदार्थशुद्धि, श्राद्ध, गवाह, ‘दिव्य’ तथा अशौच के सम्बन्ध में इसके श्लोक ‘अपरार्क’ ने उद्धृत किये हैं । किन्तु वे श्लोक मुद्रित प्रजापतिस्मृति में अप्राप्य हैं । ‘परिव्राजक’ के सम्बन्ध में इसका एक गद्य उद्धरण भी ‘अपरार्क’ मे दिया गया है
[अपरार्क.९५२] । प्रजापति के अनुसार, श्राद्धविधि के अवसर पर अपनी माता को पिण्डदान देते समय अपने मामा के गोत्र का निर्देश करना चाहिये । इसके इस मत का उल्लेख लौगाक्षि एवं अपराक्र ने किया है
[अपरार्क. ५४२] । प्रजापति के लोकव्यवहार सम्बन्धी विचारधारा का उल्लेख अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, पराशर माधवीय तथा अन्य ग्रन्थों में किया है । इसके अनुसार, गवाहों के ‘कृत’ अथवा ‘अकृत’ ऐसे दोन प्रमुख प्रकार होते हैं ।
[ऋ.णादान श्लो.१४९] ;
[अपरार्क.६६६] ;
[स्मृतिचं.व्य.८०] । इसने प्रतिवादी के ग्राह्य उत्तरों का विवेचन कर, उनके चार प्रकार बताये हैं
[स्मृतिचं व्य.९८] ;
[परा.मा.३.६९-७३] । ‘दिव्य’ के सम्बन्ध में लिखे गये इसके श्लोक’ पराशरमाधवीय’ में दिये गये हैं । प्रजापति के अनुसार, निःसंतान विधवा का अपने पति की सम्पूर्ण संपत्ति पर अधिकार है, एवं उसके मासिक तथा वार्षिक श्राद्ध करने का अधिकार भी उसे ही प्राप्त है । उक्त श्राद्ध के समय विधवा को अपने पति के सगे संबंधियों का सन्मान करना चाहिये ऐसा इसका अभिमत था
[परा.मा.३.५३६] ।
प्रजापति IV. n. महर्षि कश्यप का नामांतर । इसने वालखिल्यों से देवराज इन्द्र पर अनुग्रह करने के लिए प्रार्थना की थी
[म.आ.२७.१६-२१] ।
प्रजापति V. n. रथंतर कल्प का एक राजा । इसकी पत्नी का नाम चन्द्ररुपा था, जिसने ‘त्रिपात्र तुलसीव्रत’ नामक उपासना की थी
[पद्म. उ.२५] ।