गणपति n. एक देवता । ‘गणाना त्वा गणपति;
[ऋ.२.२३.१] । यह गणपति का सूक्त माना जाता है यह ब्रह्मणस्पतिका सूक्त है । इसे ब्रह्मणस्पति भी कहते है । ऐसे अन्य गभक इतरत्र हैं
[मै.सं.२.६.१] । शंकरपार्वती का पुत्र हो कर भी यह अयोनिज था
[ब्रह्मवै.३.८] ;
[लिंग. १०५] । पार्वती ने अपने शरीर के उबटन की मूर्ति बना कर वह सजीव कीया
[पद्म. सृ. ४३] ;
[स्कंद. ७.१.३८] ;
[मत्स्य. १५३] ।
गणपति n. कृतयुग में कश्यपपुत्र विनायकः---यह सिंह पर आरुढ होता था । इसने देवांतक नरांतक का नाश किया ।
गणपति n. इसने सिंधू का वध किया ।
गणपति n. इसने सिंदूर का बध किया तथा वरेण्य राजा को गणेशगीता बताई ।
गणपति n. यह म्लेच्छों का नाश करेगा
[गणेश. २.१४९] । अदिति के गर्भ से महोत्कट रुप में इसने अवतार लिया
[गणेश २.५-६] । पार्वती स्नान कर रथी थी, तब द्वाररक्षक का कार्य करनेवाले गणपति ने शंकर को भी भीतर जाने से रोका । तब इनका युद्ध हो कर शंकर ने इसका मस्तक तोड दिया । परंतु पार्वती के लिये, शंकर ने इन्द्र के हाथी का मस्तक ला कर, इसके धड पर जमा दिया
[शिव. कु. १६] । शनि के दृष्टिपात से गणपति का मस्तक जल गया, परंतु देवों ने वहॉं हाथी का मस्तक लगा दिया
[ब्रह्मवै. ३. १८] ;
[भवि. प्रति.४.१२] । परशुराम ने शंकरद्वारा दिया गया परशु इस पर फेंका । परंतु परशु शंकर का होने के कारण, प्रतिकार न करते हुए, इसने वह आक्रमण दॉंतों पर सह लिया । इसी से इसका एक दॉंत टूट गया । उसे इसने हथियार के समान हाथ में ले लिया
[ब्रह्मवै.३.४१-४४] । एकदंत नाम प्राप्त होने के अन्य कारण भी प्राप्त हैं (बाण २. देखिये) । गणपति मेरा वध करेगा, ऐसा ज्ञात होते ही सिंदूरासुर ने, इसको नर्मदा में फेंक दिया । वहॉं गणपति के रक्त से नर्मदा लाल हो गई । इसीलिये अभी भी नर्मदा में नर्मदागणपति प्राप्त होते है । इसने सिंदूरासुर का वध कर के उसके सुवासिक रक्त से अपने शरीर का लेपन किया । पश्चात् घृष्णेश्वर के पास सिंदुरवाड को अवतार समाप्त किया
[गणेश.२.१३७] । इसीलिये गणपति को सिंदूर प्रिय है । कृष्ण के बालचरित्र के अनुसार गणपति का भी बालचरित्र है । अपनी बाललीलाओं में इसने अनेक असुरों का वध भी किया है
[गणेश. १.१८१-१०६] । गृत्समद, राजा वरेण्य तथा मुद्गल आदि इसके बडे भक्त है । इसने शंकर को गणेशसहस्त्रनाम
[गणेश १. ४४-४५] तथा वरेण्य को गणेशगीता बताई
[गणेश. २.१३८-१४८] । शंकर ने एक फल इसे न दे कर कुमार को दिया, तब चंद्र ने हँस दिया । इसलिये इसने चंद्र को अदर्शनीय होने का शाप दिया । परंतु बाद में उश्शाप दे कर, केवल गणेशचतुर्थी के दिन अदर्शनीय माना
[गणेश १.६१] । उसी प्रकार गणेशचतुर्थी छोड कर अन्य दिनों में, गणेश को तुलसी भी वर्ज्य हैं
[ब्रह्मवै. ३.४६] । इसके जन्मदिन वैशाख पौर्णिमा, ज्येष्ठ शुद्ध चतुर्थी, भाद्रपद शुद्ध चतुर्थी तथा माघ चतुर्थी है । शुल्कपक्षीय तथा कृष्णपक्षीय चतुर्थी तिथि इसे प्रिय है । सिद्धि तथा बुद्धि’ इसकी दो पत्नियॉं हैं
[गणेश १.१५] । इसकी उपासना को कार्तवीर्य अव्यंग हुआ था
[गणेश. २.७३-८३] । इसके चार हाथ हैं तथा इसका वाहन मूषक है । पुराण, ब्रह्मवैवर्त का गणेश खंड, भविष्यपुराण का ब्राह्मखंद, गणेशतापिनी, गणेशार्वशीर्ष, गणेश तथा हेरंब उपनिषद्। याज्ञवल्क्य स्मृति में विनायक-शांति दी है
[याज्ञ.१.२७०] ।
गणपति n. १. मोरगांव (मोरेश्वर), २. रांजणगांव (गणपति), ३. थेऊर (चिंतामणि), ४. जुन्नरलेण्याद्रि (गिरिजात्मज), ५. मुरुड, पाली (बल्लालेश्वर), ६. सिद्धटेक (गजमुख), ७. ओझर (विघ्नेश्वर) ८. मढ (विनायक) । ये सब स्थान पूणे के आसपास है । इनके अतिरिक्त अडतालीस तथा एकसौवीस स्थान भी है । काशी में छप्पन विनायकों की सूचि प्राप्त है
[गणेश २.१५४] । महाभारत जैसा विस्तृत ग्रंथ लिखने में व्यास ने गणपति की सहायता प्राप्त की थी । मैं बीच में नहीं रुकूँगा, ऐसी शर्त गणपति ने रखी थी । उसी प्रकार व्यास ने भी शर्त रखी थी कि, बिना अर्थ समझे आगे नहीं लिखोंगे । गणपति को लिखने के लिये अधिक समय लगे तथा स्वयं को समय मिले, इस हेतु से व्यास ने महाभारत में अनेक कूट सम्मलित किये हैं
[म.आ.१.परि.१क्र. १] ; गांगेय और बाण देखिये । गणपति का और एक रुप निकुंभ है । वाराणसीस्थित निकुंभ की आराधना करने पर भी दिवोदास की पत्नी सुयशा को पुत्र न हुआ । इसलिये निकुंभमंदिर दिवोदास ने उध्वस्त किया । निकुंभ ने भी वाराणसी नष्ट होने का शाप दिया । तालजंघादि हैहयों ने वाराणसी नगरी उध्वस्त की, तथा दिवोदास को भगा दिया । अन्त में निकुंभ की फिर से स्थापना हुई । वाराणसी समृद्ध हो गई । इस कथा में वर्णित निकुंभ ही गणपति नाम से प्रसिद्ध हुआ । गणेश, गणपति, गणेश्वर, बहुभोजन और कामपूरक नाम से भी निकुंभ का वर्णन प्राप्त है
[वायु. ९२.३६-५१] । यह ओंकाररुप है । गणपति उपासना का मतलब परब्रह्म की उपासना है गणेशाथर्वशीर्ष;
[गणेश. १.१३-१५] । इसलिये इसे सर्व विद्या तथा कलाओं का अधिपति मानते है । किसी भी देवता के उपासन सर्वप्रथम गणपति की पूजा करते हैं
[पद्म. सृ. ६३] । प्रणव का अर्थ ॐकार है ।अ, उ तथा म का ॐकार बनता है । तुरीय नामक एक चतुर्थ भाग भी ॐकार में समाविष्ट है । जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय इन चार अवस्थाओं का ॐकार द्योतक है । ॐकार का जप तथा ध्यान का उपनिषदों में विशेष माहात्म्य है । साध्य तथा साधन दोनों रुपों में ॐकार वर्णित है । इसलिये वेदों का प्रारंभ ॐकार से करने की प्रथा शुरु हो गई । आगे चल कर, ॐकार का लेखन तथा गणेशजी की मूर्ति में साम्य भी है । गजमुख गणेश सामान्यतः ख्रिस्त के पंचम सदी के पूर्व उपलब्ध नहीं है । भवभृति ने स्पष्ट रुप से गजमुख का निर्देश किया है । ज्ञानेश्वरी में गजमुख तथा ॐकार की एकता स्पष्ट की है । इस एकता से ही, उपनिषदप्रतिपादित ॐकार, वेद में तथा सार्वत्रिक सर्वकार्यारंभ में आद्य स्थान में आ गया है ।