शाकल्य n. ऋग्वेद का सुविख्यात शाखा प्रवर्तक आचार्य, जो व्यास के वैदिक शिष्यों में प्रमुख था । इसे शतपथ ब्राह्मण में ‘विदग्ध’ शाकल्य, ऐतरेय आरण्यक में ‘स्थविर’ शाकल्य एवं पौराणिक साहित्य में वेदमित्र (देवमित्र) शाकल्य कहा गया है
[श. ब्रा. ११.६.३.३] ;
[बृ. उ. ३.९.१.४, ७] ;
[ऐ. आ. ३.२.१.६] ;
[सां. आ. ७. १६, ८.१.११] ;
[वायु. ६०] ;
[ब्रह्मांड. २.३४] ।
शाकल्य n. व्यास से इसे जो ‘ऋग्वेद संहिता’ प्राप्त हुई, वह ‘शाकल संहिता’ नाम से प्रसिद्ध है, जो आगे चल कर इसने अपने पाँच शाखाप्रवर्तक शिष्यों में बाँट दी। इसी के नाम से वे शाखाएँ ‘शाकल’ सामूहिक नाम से प्रसिद्ध है (शाकल देखिये) । ऋग्वेद की वर्तमानकाल में उपलब्ध संहिता ‘शाकल्य के शाखा की अर्थात ‘शाकल संहिता’ मानी जाती है । इसी कारण षड्गुरु ने अपने सर्वानुक्रमणी में ‘शाकलक’ की व्याख्या करते समय ‘शाकल्योच्चारणम् शाकलकम्’ कहा है
[ऋ. सर्वानुक्रमणी १.१] । इससे प्रतीत होता है कि, इसने ‘ऋग्वेद संहिता’ का ‘पदपाठ’ तैयार किया, अनेकानेक प्रवचनों द्वारा उसका प्रचार किया एवं सैंकड़ों शिष्यों के द्वारा उसे स्थायी स्वरूप प्राप्त कराया । पतंजलि के ‘महाभाष्य’ से, एवं ‘महाभारत’ से प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ थी । किंतु उनमें से केवल पाँच शाखाओं के नाम आज प्राप्त हैं (चरणव्यूव्ह; शाकल देखिये) । ऋग्वेदी ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में केवल तीन शाखाप्रवर्तकों का निर्देश पाया जाता है । देवी भागवत जैसे पौराणिक ग्रंथ में भी शाकल्य की तीन ही शाखाएँ बतायी गयी हैं
[दे. भा. ७] ।
शाकल्य n. ऋग्वेद के वर्तमान ‘पदपाठ’ की रचना शाकल्य के द्वारा की गयी है । इस पदपाठ में ऋग्वेद में प्राप्त समानार्थी पदों का संग्रह परिगणनापद्धति से किया गया है । किंतु कौन से नियम का अनुकरण कर इस ‘पदपाठ’ की रचना की गयी है, इसका पता पदपाठ में प्राप्त नहीं होता।
शाकल्य n. शौनक के ‘ऋक्प्रातिशाख्य’ में भी इसका निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसे एक ‘व्याकरणकार’ कहा गया है । ‘ऋग्वेद संहिता’ में संधि किस प्रकार साधित किये जाते हैं, इस संबंध में इसके अनेकानेक उद्धरण ‘शौनकीय ऋक्प्रातिशाख्य’ में प्राप्त है
[ऋ. प्रा. १९९,२०८, २३२] ;
[शु. प्रा. ३.१०] ।
शाकल्य n. इस ग्रंथ में संधिनियमों के संदर्भ में इसका निर्देश अनेक बार प्राप्त है
[पा. सू. ६.१.१२७, ८.३.१९, ४.५०] । इसी ग्रंथ में ‘पदकार’ नाम से इसका निर्देश प्राप्त है
[पा. सू. ३.२.२३] । इसके द्वारा लिखित पदपाठ में जिस ‘पद’ का निर्देश ‘इति’ से किया गया है, जो पाणिनि के अनुसार ‘अनार्ष’ है
[पा. सू. १.१.१६] । पाणिनि ने ‘उपस्थित’ शब्द की व्याख्या करते समय पुनः एक बार इसका निर्देश किया है, एवं कहा है, ‘‘शाकल्य के अनुसार, ‘इतिकरण’ से सहित ‘पद’ को ‘उपस्थित’ कहते थे’’
[पा. सू. ६.१.१२९] ।
शाकल्य n. याज्ञवल्क्य वाजसनेय से इसने किये प्राणांतिक वादविवाद का निर्देश ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ में प्राप्त है (याज्ञवल्क्य वाजसनेय, एवं देवमित्र शाकल्य देखिये) ।
शाकल्य n. महाभारत में इसे एक ब्रह्मर्षि कहा गया है, एवं इसके नौ सौ वर्षों तक शिवोपासना करने का निर्देश वहाँ प्राप्त है । इसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिव ने इसे वर प्रदान किया, ‘तुम बड़े ग्रंथकार बनोंगें, एवं तुम्हारा पुत्र ख्यातनाम सूत्रकार बनेगा’
[म. अनु. १४] ;
[शिव. रुद्र. ४३-४७] । महाभारत में प्राप्त इस कथा में, इसके पुत्र का नाम अप्राप्य है ।
शाकल्य n. ऋक्संहितासाहित्य के अतिरिक्त इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त हैः-- १. शाकल्यसंहिता २. शाकल्यमत (C.C.) ।
शाकल्य II. n. एक विष्णुभक्त ऋषि, जो शुभ्रगिरि पर निवास करता था । एक बार परशु नामक राक्षस इसे खाने के लिए दौड़ा। उस समय विष्णु की कृपा से यह लोहमूर्ति में रूपांतरित हुआ, एवं इस प्रकार इसकी जान बच गयी। आगे चल कर इसने परशु राक्षस का उद्धार किया
[ब्रह्म. १६३] ।