दत्तगीता - चतुर्थोध्यायः

‘ श्रीदत्तात्रेयकल्प :’ अतिशय दुर्मिळ ग्रंथ असून याप्रमाणे श्रीदत्ताची पूजा केल्याने मानवाच्या सर्व विकृत बाधा नष्ट होतात .


श्रीगणेशाय नमः ॥ ॐ कार इति खलु गगनसमो नपरापरसा रविसार इति ॥

अविशाल - विशालनिराकरणम् ‍ कथमक्षरबिंदुसमुच्चरणम् ‍ ॥१॥

इह ’ तत्त्वमसि ’ प्रभृतिभिः श्रुतिभिः प्रतिपादितमात्मनि तत्त्वमसि ॥

त्वमुपाधिविवर्जितसर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वासमम ‍ ॥२॥

अधऊर्ध्वविवर्जितसर्वसमं ककुभादिविवर्जितसर्वसमम् ‍ ॥

यदि चैकनिरंतरसर्वसमं किमुरोदसि मानस सर्व० ॥३॥

नहि कल्पितभाव - विभाव - रतिर्नहि राग - विराग - विचार - रतिः ॥

यदिसर्वविर्जित सर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वसमम् ‍ ॥४॥

नहिबोध - विबोधि - समाधिरिति नहि काल - विकालसमाधिरिति ॥

नहि देश - विदेशसमाधिरिति किमु रोदसि० ॥५॥

नहि कुंभनभो नहिकुंभमिति नहि जीव वपुर्नहि जीव इति ॥

नहिकारणकार्यविचार इति किमु० ॥६॥

यदिसर्वनिरंतरमोक्षपदं लघुदीर्घविचारविहीन इति ॥

नहि वर्तुळ - कोणविचारगतिः किमु० ॥७॥

इह शून्य - विशून्यविहीन इति इह शुद्ध - विशुद्धविहीन इति ॥

इह सर्व - विसर्व विहीन इति कि० ॥८॥

नहि भीतिविचित्रविचार इति न निरंतरसंधिमनस्यमिति ॥

सरिमित्रविर्जितसर्वसमं किमु रो० ॥९॥

नहि शेष - विशेषणरूप इति न चराचरभेदविभेद इति ॥

इह मोक्षनिरंतरसर्वमिति किमु० ॥१०॥

न गुणागुणपाशविबंध इति द्रुतजीवनजीवकरोमि कथम् ‍ ॥

इह शुद्ध - निरंजनसर्वसमं किमु रो० ॥११॥

इह भाव - विभावविहीनपरं इह काम - विकामविहीनपरम् ‍ ॥

इह बोधतमं खलु मोक्षसमं किमु रो० ॥१२॥

इह तत्त्वनिरंतरसर्वसमं न हि संधि - विसंधि - समागमनम् ‍ ॥

यदि सर्वविवर्जितमेव समं किमुरो० ॥१३॥

इह रूप - विरूपविहीन इति ननु भिन्न - विभिन्नविहीन इति ॥

ननु सर्व - विसर्वविहीन इति किमु रोदसि० ॥१४॥

अनिकेतकुटीपरिचारसमं इह संग - विसंगविहीनपरम् ‍ ॥

इह बोध - विबोधविहीन इति किमु रो० ॥१५॥

अविकार - विकारमसत्यमिति अविलक्ष - विलक्षमसत्यमिति ॥

इह केवलमात्मनि सत्यमिति किमु रो० ॥१६॥

इह सर्वगतः खलु जीव इति इह सर्वनिरंतरजीव इति ॥

इह केवलमात्मनि जीव इति किमु रो० ॥१७॥

अविवेकविवेकविबोध इति अविकल्प - विकल्पविबोध इति ॥

यदि चैकनिरंतरबोध इति किमु रो० ॥१८॥

यदि वर्णविवर्णविहीनसमं यदि भेद - विभेदविहीनसमम ‍ ॥

यदि कारण - कार्यविहीनसमं किमु रो० ॥१९॥

इह सर्व हि केवलसर्वचिते इह केवलनिर्मलसर्वचिते ॥

वियदादिविवर्जितसर्वचिते किमु० ॥२०॥

इति निर्मलनिश्वलसर्वगतं इति सर्वनिरंतरसर्वगतम् ‍ ॥

दिनरात्रिविवर्जितसर्वगतं किमु रो० ॥२१॥

न च बंधसमाधिसमागमनं न हि योग - वियोगसमागमनम् ‍ ॥

न च तर्क - वितर्कसमागमनं किमु रो० ॥२२॥

इह काल - विकालनिराकरणं अनुपीनकृशैकनिराकरणम् ‍ ॥

नहि केवलतत्त्वनिराकरणं किमु रो० ॥२३॥

इह देह - विदेहविहीनपरम् ‍ नहिजाग्रति - भ्रांतितृतीयपरम् ‍ ॥

अपिधान - पिधानविचारपरं किमु रो० ॥२४॥

गगनोपमशुद्ध - विशुद्धसमं इह सर्वविवर्जितसर्वसमम ‍ ॥

गतसार - विसारविकारसमं किमु रो० ॥२५॥

इइ धर्म - विधर्मविरागपरं इह वस्तु - विवस्तुविहीनपरम् ‍ ॥

इह कामविकामविरागपरं किमु रोद० ॥२६॥

गुण - दोषविवर्णितसर्वमसि सुखदुःखविवर्जिततत्त्वमसि ॥

यदि रे गगनोपमतत्त्वमसि किमु रो० ॥२७॥

बहुधा श्रुतयः प्रवदंति यतो वियदादिगतो यदि तोयसमम ‍ ॥

यदिचेद्नगनोपमतत्त्वमसि किमु रो० ॥२८॥

यदि रूपविवर्जितसर्वमिदं यदि चैकनिरंतरसर्वमिदम् ‍ ॥

यदि सर्वविवर्जितसर्वमिदं किमु रो० ॥२९॥

इह सारसमुच्चयसर्वयति कथितो निजभावविबोधपति ॥

यदि यत्कारणनहि सत्यमिति किमु रो० ॥३०॥

विंदति विंदति नहि नहि यत्र छंदोलक्षणं नहि नहि तत्र ॥

समरसमाज्ञो भावितपूतः प्रभवति तत्त्वं परमवधूतः ॥३१॥

इति श्रीदत्तगीतासूपनिषत्सारम थितार्थेषु निरंजनविद्यायां निर्वाणयोगे

श्रीदत्त - गोरक्षकसंवादे समवृद्धिद्दष्टिस्वात्मसंवित्युपदेशोनाम चतुर्थोध्यायः ॥४॥

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Last Updated : November 11, 2016

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