सुखमनी साहिब - अष्टपदी ९
हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.
( गुरु ग्रंथ साहिब पान क्र. २७४ )
श्लोक
उरि धारै अंतरि नामु सरब मै पेखै भगवानु ।
निमख निमख ठाकुर नमसकारै ।
नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥
पद १ ले
मिथिआ नाही रसना परस ।
मन हि प्रीति निरंजन दरस ॥
पर त्रिअ रुपु न पेखै नेत्र ।
साध की टहल संत संगि हेत ॥
करन न सुनै काहू की निंदा ।
सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥
गुर प्रसादि बिखा परहरै ।
मन की बासना मन ते टरै ॥
इंद्री जित पंच दोख ते रहत ।
नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥
पद २ रे
बैसनो सौ जिसु ऊपरि सु प्रसंन ।
बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥
करम करत होवै निहकरम ।
तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥
काहू फल की इच्छा नही बाछै ।
केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥
मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ।
सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥
आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ।
नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥
पद ३ रे
भगउती भगवंत भगति का रंगु ।
सगला तिआगै दुसट का संगु ॥
मन ते बिनसै सगला भरमु ।
करि पूजै सगला पारब्रहमु ॥
साध संगि पापा मलु खोवै ।
तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥
भगवंत की टहल करै नित नीति ।
मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥
हरि के चरन हिरदै बसावै ।
नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥
पद ४ थे
सो पंडितु जो मनु परबोधै ।
राम नमौ आतम महि सोधै ॥
राम नाम सारु रसु पीवै ।
उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥
हरि की कथा हिरदै बसावै ।
सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥
बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूलु ।
सूखम महि जानै असथूलु ॥
चहु वरना कउ दे उपदेसु ।
नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥
पद ५ वे
बीज मंत्रु सरब को गिआनु ।
चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥
जो जो जपै तिस की गति होइ ।
साध संगि पावै जनु कोइ ॥
करि किरपा अंतरि उरधारै ।
पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥
सरब रोग का अउखदु नामु ।
कलिआण रुप मंगल गुण गाम ॥
काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ।
नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥
पद ६ वे
जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु ।
तिस का नामु सति रामदासु ॥
आतम रामु तिसु नदरी आइआ ।
दास द्संतण भाइ तिनि पाइआ ॥
सदा निकटि निकटि हरि जानु ।
सो दासु दरगह परवानु ॥
अपुने दास कउ आपि किरपा करै ।
तितु दास कउ सभ सोझी परै ॥
सगल संगि आतम उदासु ।
ऐसी जुगति नानक रामदासु ॥६॥
पद ७ वे
प्रभ की आगिआ आतम हितावै ।
जीवन मुकति सोऊ कहावै ॥
तैसा हरखु तैसा उसु सोगु ।
सदा अनंदु तद नही बोओगु ॥
तैसा अंम्रित तैसी बिखु खाटी ॥
तैसा मानु तैसा अभिमानु ।
तैसा रंकु तैसा राजानु ॥
जो वरताए साई जुगति ।
नानक ओहु पुरखु कहिऐ जीवन मुकति ॥७॥
पद ८ वे
पारब्रहम के सगले ठाउ ।
जितु जितु घरि राखै तैसा तिन नाउ ॥
आपे करन करावन जोगु ।
प्रभ भावै सोई फुनि होगु ।
पसरिओ आपि होइ अनत तरंग।
लखे न जाहि पारब्रहम के रंग ॥
जैसी मति देह तैसा परगास ।
पारब्रहमु करता अबिनास ॥
सदा सद सदा दइआल ।
सिमरि सिमरि नानक भए निहाल ॥८॥
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Last Updated : December 28, 2013
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