सुखमनी साहिब - अष्टपदी २४

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान क्र. २९५ )

श्लोक

पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ॥
नानक पूरा पाइसा पूरे के गुन गाउ ॥१॥

पद १ ले

पूरे गुर का सुनि उपदेसु ।
पारब्रहमु निकटि करि पेखू ॥
सारि सासि सिमरहु गोविंद ।
मन अंतर की उतरै चिंद ॥
आस अनित तिआगहु तरंग ।
संत जना की धूरि मन मंग ॥
आपु छोडिइ बेनती करहु ।
साध संगि अगनि सागरु तरहु ॥
हरि धन के भरि लेहु भंडार ।
नानक गुर पूरे नमसकार ॥१॥

पद २ रे

खेम कुसल सहज आनंद ।
साधसंगि भजु परमानंद ॥
नरक निवारि उधारहु जीउ ।
गुन गोबिंद अंम्रित रसु पीउ ॥
चिति चितवहु नाराइण एक ।
एक रुप ज के रंग अनेक ॥
गोपाल दामोदर दीन दइआल ।
दुख भंजन पूरन किरपाल ॥
सिमरि सिमरि नामु बारं बार ।
नानक जीअ का इहै अधार ॥२॥

पद ३ रे

उतम सलोक साध के बचन ।
अमुलीक लाल एहि रतन ॥
सुनत कमावत होत उधार ।
आपि तरे लोकह निसतार ॥
सफल जीवनु सफलु ता का संगु ।
जा कै मनि लागा हरि रंगु ॥
जै जै सबदु अनाहदु वाजै ।
सुनि सुनि अनद करे प्रभु गाजै ॥
प्रगटे गुपाल महांत कै माथे ।
नानक उधरे तिन कै साथे ॥३॥

पद ४ थे

सरनि जोगु सुनि सरनी आए ।
करि किरपा प्रभ आप मिलाए ॥
मिटि गए बैर भए सभ रेन ।
अंम्रित नामु साध संगि लैन ॥
सुप्रसंन भए गुरदेव ।
पूरन होई सेवक की सेव ॥
आल जंजाल बिकार ते रहते ।
राम नाम सुनि रसना कहते ॥
करि प्रसादु दइआ प्रभि धारी ।
नानक निबही खेप हमारी ॥४॥

पद ५ वे

प्रभ की उसतति करहू संत मीत ।
सावधान एकागर चीत ॥
सुखमनी सहज गोबिंद गुन नाम ।
जिसु मनि बसै सु होत निधान ॥
सरब इच्छा ता की पूरन होइ ।
प्रधान पुरखु प्रगटु सभ लोइ ॥
सभ ते ऊच पाए असथानु ।
बहुरि न होवै आवन जानु ॥
हरि धनु खाटि चलै जनु सोइ ।
नानक जिसहि परापति होइ ॥५॥

पद ६ वे

खेम सांति रिधि नव निधि ।
बुधि गिआनु सरब तह सिधि ॥
बिदिआ तपु जोगु प्रभ धिआनु ।
गिआनु स्रेसट ऊतम इसनानु ॥
चारि पदारथ कमल प्रगास ।
सभ कै मधि सगल ते उदास ॥
सुंदरु चतुरु तत का बेता ।
समदरसी एक द्रिसटेता ॥
इह फा तिसु जन कै मुखि भने ।
गुर नानक नाम बचन मनि सुने ॥६॥

पद ७ वे

इहु निधानु जपै मनि कोइ ।
सभ जुग महि ता की गति होइ ॥
गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ।
सिम्रिति सासत्र बेद बखाणी ॥
सगल मतांत केवल हरि नाम ।
गोबिंद भगत कै मनि बिस्राम ॥
कोटि अप्राध साध संगि मिटै ।
संत किप्रा ते जम ते छुटै ॥
जा कै मसतकि करम प्रभि पाए ।
साध सरणि नानक ते आए ॥७॥

पद ८ वे

जिसु मनि बसै सुनै लाइ प्रीति ।
तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥
जनम मरन ता का दूखु निवारै ।
दु लभ दे ह ततकाल उधारै ॥
निरमल सोभा अंम्रित ता की बानी ।
एकु नामु मन माहिं समानी ॥
दूख रोग बिनसे भै भरम ।
साध नाम निरमल ता के करम ॥
सभ ते ऊच ता की सोभा बनी ।
नानक इह गुणि नामु सुखमनी ॥८॥

" गुरु कृपा अंजन पायो मेरे भाई ।
राम बिना कछू जानत नाही ॥
अंदर राम ही, बाहर राम ही ।
जहा देखो वहा राजा राम ही ॥

॥ धन्यवाद ॥

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Last Updated : December 28, 2013

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