सुखमनी साहिब - अष्टपदी १९
हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.
( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८८ )
श्लोक
साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ।
हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
पद १ ले
संत जना मिलि करहु बीचारु ।
एकु सिमरि नाम आधारु ॥
अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ।
चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥
करन कारन सो प्रभु समरथु ।
द्रिड करि गहहु नामु हरि वथु ॥
इहु धनु संचहु होवह भगवंत ।
संत जना का निरमल मंत ॥
एक आस राखहु मन माहि ।
सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
पद २ रे
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ।
सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥
जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ।
सो सुखु साधू संगि परीति ॥
जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ।
सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥
अनिक उपावी रोगु न जाइ ।
रोगु मिटै हरि अवखघु लाइ ॥
सरव निधान महि हरि नामु निधानु ।
जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
पद ३ रे
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ।
दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥
ता कउ बिघनु न लागै कोइ ।
जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥
कलि ताती ठांडा हरि नाउ ।
सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ।
भउ बिनसै पूरन होइ आस ।
भगति भाइ आतम परगास ॥
तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ।
कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
पद ४ थे
ततु बीचारु कहै जनु साचा ।
जनमि मरै सो काचो काचा ॥
आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ।
आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥
इउ रतन जनम का होइ उधारु ।
हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥
अनिक उपाव न छूटनहारे ।
सिंम्रिति सासत बेद बीचारे ॥
हरि की भगति करहु मनु लाइ ।
मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
पद ५ वे
संगि न चलिसि तैरे धना ।
तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥
सुत मीत कुटंब अरु बनिता ।
इन तो कहहु तुम कवन सनाथा ॥
राज रंग माइआ बिसथार ।
इन ते कह्हु कवन छुटकार ॥
असु हसती रथ असवारी ।
झूठा डंफु झूठु पासारी ॥
जिनि दिए तिसु बुझै न बिगाना ।
नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
पद ६ वे
गुर की मति तूं लेहि इआने ।
भगति बिना बहु डुबे सिआने ॥
हरि की भगति करहु मन मीत ।
निरमल होइ तुमारो चीत ॥
चरन कमल राखहु मन माहि ।
जनम जनम के किलबिख जाहि ॥
आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ।
सुनत कहत रहत गति पावहु ॥
सार भूत सति हरि को नाउ ।
सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
पद ७ वे
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ।
बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
होहि अंचितु बसै सुख नालि ।
सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥
छाडि सिआनप सगली मना ।
साध संगि पावहि सचु धना ॥
हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ।
ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥
सरब निरतरि एको देखु ॥
कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
पद ८ वे
एको जपि एको सालाहि ।
एको सिमरि एको मन आहि ॥
एकस के गुन गाउ अनंत ।
मनि तनि जापि एक भगवंत ॥
एको एकु एकु हरि आपि ।
पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥
अनिक बिसथार एक ते भए ।
एकु अराधि पराछत गए ॥
मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ।
गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥
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Last Updated : December 28, 2013
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