सूही
६.
सहकी सार सुहागिनी जानै । तज अभिमान सुख रलिया मानै ॥ तनु मनु देह न सुनै न अंतर राखै । अबरा देखि न सुनै न माखै ॥ सो कत जानै पीर पराई । जाके अंतर दरद न पाई ॥ दुखी दुहागिनी दुइ पखहीनी ॥ जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी ॥ रामप्रीतिका पंथ दुहेला । संगि न साथी गवन अकेला ॥ दुहिया दरदमंद दरि आया । बहुतै प्यास जबाब न पाया ॥ कहि रविदास सरनि प्रभु तेरी । ज्यु जानहु त्यूं करु गति मेरी ॥
बिलावल
७.
जिही कुल साधु बैसनौ होइ । बरन अबरन रंक ईश्वर, बिमल बासु जानिये जग सोई । बॉंभन बैस सूद अरु ख्यत्री, डोम चंडाल मलेच्छ किन सोइ । होइ पुनीत भगवंत भजन ते, आपु तारि तारै कुल दोइ ॥ धनि सु गाउं धनि धनि सो ठाऊं, धनि पुनीत कुटंब सभ लोइ । जिनि पिया साररस तजे आन रस, होइ रसमगन डारे बिषु खोइ ॥ पंडित सूर छत्रपति राजा, भगत बराबरि औरु न कोइ । जैसे पुरैन - पात जल रहै समीप, भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥
८.
ज्यांहा देखो वांहा चामही चाम । चामके मंदिर बोलत राम ॥१॥
चामकी गऊ चामका बचडा । चामही धुने चामही ठाडा ॥२॥
चामका हाती चामका राजा । चामके ऊंटपर चामका राजा ॥३॥
कहत रोहिदास दुनो कबीर भाई । चाम बिना देह किनकी बनाई ॥४॥
९.
ऐसी लाल तुझ बिन कौन करै । गरीब - निवाजु गुसैयां मेरे माथे छात्र धरै ॥टेक॥ जा की धूत जगत कौं लागै तापर तू ही ढरै । नीचहिं ऊंच करै मेरा गोविंदु काहू तैं न डरै ॥ नामदेव कबीर तिलोचन सधना सैनु तरै । कहि ‘ रविदास ’ सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभे सरै ॥
१०.
हम सरि दीन, दयालु न तुम सरि, अब पतियाय कहा कीजै । बचनी तोर मोर मन मौनै जन को पूरन दीजै ॥१॥
हौं बलि बलि जाऊं रमैय्या कारने, और कौन अबोल ॥टेक॥ बहुत जनम बिछुर थे माधव, इहु जनम तुम्हारे लेखे । कहि ‘ रविदास ’ आस लगि जीवौं, चिर भयो दर्शन देखे ॥२॥
११.
माटीका, पुतरा कैसे नाचतु है ? देखै, सुनै, बोलै दोर्यो फिरतु है ॥टेक॥ जब कछु पावै तो गर्व करतु है । माया गई तो रोवन लगतु है ॥१॥
मन, बच, कर्म रस कसहिं लुभाना । विनसि कया जाय कहूं सयाना ॥२॥
कहि ‘ रविदास ’ बाजी जगु भाई । बाजीगर से मोहिं प्रति बनि आई ॥३॥
१२.
राम बिन संयासी । ज्ञानी गुनी सूर हम दाता, याहु कहे मति नासी ॥१॥
पढे गुने कछु समुझि न परई, जौं लौं भाव न दरसै । लोह हिरन होइ धौं कैसे, जौं पारस नहिं परसै ॥२॥
कर रैदास और असमुझ सी, चलि परे भ्रम भोरे । एक अधार नाम नरहरि को, जिवन प्रान धन मोरे ॥३॥
१३.
नरहरि चंचल है मति मेरी । कैसे भगति करूं मैं तेरी ॥टेक॥ तू मोहिं देखै हों तोहि देखूं, प्रीति परस्पर होई ॥१॥
तू मोहिं देखै तोहि न देखूं, यह मति सब बुधि खोई ॥२॥
सब घट अंतर रमसि निरंतर, मैं नहिं देखन जाना ।
गुण सब तोर मोर सब ऑंगुन, कृत उपकार न माना ॥३॥
मैं तै तोरि मोरि असमझिसौं, कैसे करि निस्तारा । कह रैदास कृस्न करुनामय, जै जै जगत अधारा ॥४॥
१४.
आयौं हो आयौं देव तुम सरन । जानि कृपा कीजे अपनौ जन ॥टेक॥ त्रिविध जोनि बास जम को अगम त्रास, तुम्हरे भजन बिन भ्रमत फिरौं । ममता अहं विषै मद मातौ, यह सुख कबहुं न दुतर तिरौं ॥१॥
तुम्हरे नॉंव बिसास, छाडी है आन की आस, संसार धरम मेरो मन न धीजै । रैदास दास की सेवा मानि हो देव बिधि देव, पतितपावन नाम प्रगट कीजै ॥२॥
१५.
भाई रे भरम भगति सुजान । जौ लौं सॉंच सौ नहिं पहिचान ॥टेक॥ भरम नाचन भरम गायन, भरम जप तप ध्यान । भरम सेवा भरम पूजा, भरम सो पहिचान ॥१॥
भरम षटक्रम सकल सहता, भरम गृहबन जानि । भरम करि करि करम कीये, भरम की यह बानि ॥२॥
भरम इंद्री निग्रह कीया, भरम गुफा में बास । भरम तौ लौ जानिये, सुन्न की करै आस ॥३॥
भरम सुद्ध सरीर तौ लौं, भरम नावॅं बिनावॅं । भरम भनि रैदास तौ लौं, जौ लौं चाहे ठावॅं ॥४॥
१६.
राम मैं पूजा कहा चढाऊं । फल अरु फूल अनूप न पाऊं ॥टेक॥ थनहर दूध जो बछरू जुठारी । पुहुप भॅंवर जल मीन बिगारी ॥१॥
मलयागिर बोधियो भुअंगा । विष अम्रित दौ एकै संगा ॥२॥
मनही पूजा मनही धूप । मनही सेऊं सहज सरूप ॥३॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी । कह रैदास कवन गमि मेरी ॥४॥
१७.
रामा हो जग जीवन मोरा । तूं न बिसारि राम मैं जन तोरा ॥टेक॥ सकल सोच पोच दिन राती । करम कठिन मोरि जाति कुजाती ॥१॥
हरहु बिपति भावै करहु सो भाव । चरन न छाडौं जाव सो जाव ॥२॥
कह रैदास कछु देहु अलंबन । बेगि मिलौ जीन करौ विलंबन ॥३॥
१८.
त्यों तुम कन केसवे, लालच जिव लागा । निकट नाथ प्रापत नहीं, मन मोर अभागा ॥टेक॥ सागर, सलिल सरोदिका, जल थल अधिकाई । स्बॉंति बुंदकी आस है, पिउ प्यास न जाई ॥१॥
जौं रे सनेही चाहिये, चित्त बहु दूरी । पंगलु फल न पहूंच ही, कुछ साध न पूरी ॥२॥
कह रैदास अकथ कथा, उपनिषद सुनीजै । जस तूं तस तूं तस तुहीं, कस उपमा दीजै ॥३॥
१९.
जब राम नाम कहि गावैगा, तब भेद अभेद समावैगा ॥टेक॥ जे सुख ह्बे या रसके परसे, सो सुख का कहि गावैगा ॥१॥
गुरुपरसाद भई अनुभौ मति, विष अम्रित सम धावैगा ॥२॥
कह रैदास मेटि आपापर, तब वा ठोरै हि पावैगा ॥३॥
२०.
भगति ऐसी सुनहु रे भाई । आई भगति तब गई बडाई ॥टेक॥ कहा भयो नाचे अरु गाये, कहा भयो तप कीन्हे । कहा भयो जे चरन पखारे, जी लौ तत्त्व न चीन्हे ॥१॥
कहा भयो जे मूंड मुडायो, कहा तीर्थ ब्रत कीन्हे । स्वामी दास भगत अरु सेवक, परम तत्त्व नहिं चीन्हे ॥२॥
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बडे सो पावै । तजि अभिमान मेटि आपापर, पिपलक ह्वै चुनि खावै ॥३॥
२१.
सुखसागर सुरतरु, चिंतामनि कामधेनु बसि जाके रे । चारि पदारथ, असट महासिधि नवनिधि करतल ताके रे । हरि हरि हरि न जपसि रसना । अवर सभ छाडि बचन रचना ॥ नाना ख्यान पुरान बेद बिधि चौतीस अच्छर माही । व्यास बिचारि कह्यो परमारथ रांम - नाम सरि नाही । सहज समाधि उपाधिरहित होइ बडे भागि लिव लागी । कहि रविदास उदास दासमति जमम - मरनभय भागी ॥