राग धनाश्री
७३.
तेरे देब कमलापति सर आया । मुझ जनम सॅंदेह भ्रम छेदि माया ॥टेक॥ अति संसार अपार भवसागर, जा में जनम मरना संदेह भारी । काम भ्रम क्रोध भ्रम लोभ भ्रम मोह भ्रम, अनत भ्रम छेदि मम करसि यारी ॥१॥
पंच संगी मिलि पीडियो प्रान यों, जाय न सक्यो बैराग भागा । पुत्रबरग कुल बंधु ते भारजा, भखै दसो दिसा सिर काल लागा ॥२॥
भगति चितऊं तो मोह दुख व्यापही, मोह चितऊं तो मेरी भगति जाई । उभय सॅंदेह मोहिं रैन दिन व्यापही, दीनदाता करूं कवन उपाई ॥३॥
चपल चेतो नही बहुत दुख देखोयो,क काम - बस मोहिहो करम फंदा । सक्ति संबंध कियो ज्ञान पद हरि लियो, हृदय बिस्वरूप तजि भयो अंधा ॥४॥
परम परकास अविनासी अधमोचना, निरखि निजरूप बिसराम पाया । बंदत रैदास बैराग पद चिंतना, जपौ जगदीस गोबिंद राया ॥५॥
७४.
अब हम खूब वतन घर पाया । ऊंचा खेर सदा मेरे भाया ॥टेक॥ बेगमपूर सहर का नाम । फिकर अंदेस नहीं तेहि ग्राम ॥१॥
नहिं जहॉं सॉंसत लानत मार । हैफ न खता न तरस जवाल ॥२॥
आव न जान रहम औजूद । जहॉं गनी आप बसै माबूद ॥३॥
जोई सैलि करै सोई भावै । महरम महल में को अटकावै ॥४॥
कह रैदास खलास चमारा । जो उस सहर सो मीत हमारा ॥५॥
७५.
ऊंचे मंदिर सालि रसोई, एक घरी पुनि रहन न होई ॥१॥
यहु तन ऐसा जैसे घासकी टाटी, जल गयो घास, रलि रई माटी ॥२॥
भाई - बंधु कुटुंब सहेरा, ओइ भी लागे काढु सबेरा ॥३॥
घरकी नारि उरहि तिन लागी, वह तो भूत भूत करि भागी ॥४॥
कहि ‘ रविदास ’ सबै जग लूट्यो, हम तो एक राम कहि छूट्यो ॥५॥
७६.
हरि को टॉंडो लादै जाइ रे, मैं बनिजारो रामको । रामनाम धन पाइयो, ता ते सहज करूं ब्योहार रे ॥टेक॥ औघट घाट घनो घनारे, निरगुन बैल हमार रे । राम नाम धन लादियो, ता ते विषय लाद्यो संसार रे ॥१॥
अंतही धन धर्यो रे, अंतेहि ढूंढन जाइ रे । अनत को धरो न पाइये, ता ते चाल्यो मूल गॅंवाइ रे ॥२॥
रैन गॅंवाइ सोह करि, दिवस गॅंवायो सोह करि, दिवस गॅंवाइ खाइ रे । हीरा यह तन पाइ करि, कौडी बदले जाइ रे ॥३॥
साधुसंगति पूंजी भई रे, बस्तु भई निर्मोल रे । सहज बरवा लादि करि, चहुं दिसि टॉंडो मोल रे ॥४॥
जैसा रंग कुसुंभ का रे, तैसा यह संसार रे । रमइया रंग मजीठ का ता ते भन रैदास बिचार रे ॥५॥
७७.
मन मेरो सत्त सरूप बिचारं । आदि अंत अनंत परमपद, संसा सकल निवारं ॥टेक॥ जस हरि कहिये तस हरि नाहीं, है अस जस कछु तैसा । जानत जानत जान रह्यो सब, मरम कहो निज कैसा ॥१॥
करत आन अनुभव आन, रस मिलै न बेगर होई । बाहर भीतर प्रगट गुप्त, घट घट प्रति और न कोई ॥२॥
आदिहु एक अंत पुनि सोई, मध्य उपाइ जु कैसे ॥३॥
कह रैदास प्रकास परमपद, का तप जप बिधि पूजा । एक अनेक एक हरि, कहौं कौन बिधि दूजा ॥४॥
७८.
जो तुम गोपालहि नहिं गैहो । तो तुम कॉं सुख में दुख उपजैं सुखहि कहॉं ते पेहौ ॥टेक॥ माला नाय सकल जग डहको झूंठो भेख बनै हौ । झूंठे ते सॉंचे तब होइहौ हरि की सरन जब एहौ ॥१॥
कनरस बतरस और सबै रस झूंठहि मूड डालै हौ । जब लगि तेल दिया में बाती देखत ही बुझि जैहौ ॥२॥
जो जन राम नाम रॅंगराते और रंग न सहै हौ । कह रैदास सुनो रे कृपानिधि प्रान गये पछितै हौ ॥३॥