संत श्रीरोहिदासांची पदे - ८७ ते १००

संत रोहिदास (इ.स. १३७६ - इ.स. १५२७) हे मध्ययुगीन भारतातील हिंदू संत होते. यांच्या गुरूंचे नाव रामानंद स्वामी होते. कबीर यांचे समकालीन होत; तर मीराबाई यांच्या शिष्या होत्या.


जंगली गौडी
८७.
पहिले पहरे रैन दे बनजारिया, तैं जनम लिया संसार ब ॥ सेवा चूकी रामकी, तेरी बालक बुद्धि गॅंवार बे ॥१॥
बालक बुद्धि न चेता तूं, भूला मायाजाल बे । कहा होइ पाछे पचिताये, जल पहिले न बॉंधी पाल बे ॥२॥
बस बरसका भया अयाना, थॉंभि न सक्का भाव बे । जन रैदास कहै बनजारिया, जनम लिया संसार बे ॥३॥
दूजे पहरे रैन दे बनजारिया, तूं निरखत चल्यौ छॉंह बे । हरि न दामोदर ध्याईया बनजारिया, तैं लेय ना सक्का नॉंव बे ॥४॥
नॉंव न लीया औगुल कीया, नस जौबन दै तान बे । आपनी पराई गिनी न कोई, मंद करम कमान बे ॥५॥
साहेब लेखा लेसी तू भरि देसी, भीर परै तुझ तॉंह बे । जन रैदास कहै बनिजरिया, तूं निरखत चाला छॉंह बे ॥६॥
तीजे पहरे रै दे बनिजारिया, तेरे ढिलडे पडे प्रिया पान बे । काया खनि का करै बनिजारिया, घट भीतर बसे कुजान बे ॥७॥
एक बसै काया गढ भीतर, पहला जनम गॅंवाय बे । अबकी बेर न सुकिरित कीया, बहुरि न यह गढ पाय बे ॥८॥
कपी देह काया गढ खाना, फिरि लागा पछिताना बे । जन रैदास कहै बनिजरिया, तेरे ढिलडे पडे परान बे ॥९॥
चौथे पहरे रैन दे बनिजरिया, तेरी कंपन लागी देह बे । साहिब लेखा मॉंगिया वनिजरिया, तेरी छाडि पुराही थेह बे ॥१०॥
छाडि पुरानी जिद्द अजाना, बालदि हॉंकि सबरियॉं बे । जम के आये बॉंधि चलाये, बारी पूगी तेरियॉं बे ॥११॥
पंथ अकेला बाराउ हेला, किसको देह सनेह बे । जन रैदास कहैं बनिजरिया, तेरी कंपन लागी देह बे ॥१२॥

राग आसवरी
८८.
केसवे बिकट माया तोर, ताते बिकल गति मति मोर ॥टेक॥ सुबिषंग सन कराल अहिमुख, ग्रसति सुटल सुभेष । निरखि माखी बकै व्याकुल, लोभ कालर देख ॥१॥
इंद्रियादिक सुख दारु, असंख्यादिक पाप । तोहि भजन रघुनाथ अंतर, ताहि त्रास न ताप ॥२॥
प्रतिज्ञा प्रतिपाल प्रतिज्ञा चिन्ह, जुग भगति पूरन काम । आस तोर भरोस है, रैदास जै जै राम ॥३॥

८९.
नरहरि प्रकटसि ना हो प्रगतसि ना हो । दीनानाथ दयाल नरहरे ॥टेक॥ जनमेऊं तौही ते बिगरान । अहो कछु बुझै बहुरि सयान ॥१॥
परिवारि विमुख मोहिं लागि । कछु समुझि परत नहिं जागि ॥२॥
यह भी वेदेस कलिकाल । अहो मैं आइ पर्‍यो जमजाल ॥३॥
कबहुक तोर भरोस । जो मैं न कहूं तो मोर दोस ॥४॥
अस कहिये तेऊ न जान । अहो प्रभु तुम सरबस मैं सयान ॥५॥
सुत सेवक सदा असोच । ठाकुर पितहिं सब सोच ॥६॥
रैदास बिनवै कर जोरि । अहो स्वामी तुम मोहिं न खोरि ॥७॥
सु तौ पुरबला अकरम मोर । बलि जाऊं करो जिन कोर ॥८॥

९०.
देहु कलाली एक पियाला, ऐसा अवधू है मतवाला ॥टेक॥ हे रे कलाली तैं क्या किया, सिरका सा तैं प्याला दिया ॥१॥
कहै कालाली प्याला देऊं, पीवनहारे का सिर लेऊं ॥
चंद सूर दोई सनमुख दोई, पीवै प्याला मरै न कोई ॥३॥
सहज सुन्न में भाठी सखे, पावै रैदास गुरुमुख देखे ॥४॥

९१.
जब मेरी बूडी रे भाई, ताते चढी लोक बडाई ॥टेक॥ अति अहंकार उरमॉं सत रज तम, ता में रह्यो उरझाई । कर्मन बझि पर्‍यो कछू नहिं सूझै, स्वामी नावॅं भुलाई ॥१॥
हम मानौ गुनी जोग सुनि जुगना, महामुरुख रे भाई । हम मानो सूर सकल बिधि त्यागी, ममता नहिं मिटाई ॥२॥
हम मानो अखिल सुन्न मन सोध्यो, सब चेतन सुधि पाई । मान ध्यान सबही हम जान्यो, बूझौं कोन सों जाई ॥३॥
हम जानौ प्रेम प्रेमरस जाने, नौ बिधि भगति कराई । स्वॉंग देखि सब ही जन लटक्यो, फिर यों आन बॅंधाई ॥४॥
यह तो स्वॉंग साच नान जानो, लोगन यह भरमाई । स्वछरूप सेली सब पहरी, बोली तब सुधि आई ॥५॥
ऐसि भगति हमारी संतो, प्रभुता इहइ बडाई । आपन अनत औन नहिं मानत, ताते मूल गॅंवाई ॥६॥
मन रैदास उदास ताहि ते, अब कछु मो पै कर्‍यौ न जाई । आप खाए भगति होत है, तब रहै अंतर उरझाई ॥७॥

९२.
भाई रे राम कहॉं मोहिं बताओ । सत राम ता के निकट न आओ ॥टेक॥ राम कहत सब जगत भुलाना, सो यह राम न होई । करम अकरम करुनामय कैसो, करता नावॅं सु कोई ॥१॥
जा रामहीं सबै जग जानै, भरम भुले रे भाई । आप आप ते कोइ न जानै, कहै कौन सो जाई ॥२॥
सत तन लोभ परस जीतै मन, गुना प्रश्न नहिं जाई । अलख नाम जाको ठौर न कतहूं, क्यो न कहो सभुझाई ॥३॥
भन रैदास उदास ताहि ते, करता क्यौं है भाई । केवल करता एक सही सिर, सित्ताराम तेहि ठाई ॥४॥

९३.
जो मैं बेदनि कासनि आखूं, हरि बिन जिव न रहै कस राखूं ॥टेक॥ जिव तरसै इक दंग बसेरा, करहु सॅंभाल न सुर मुनि मेरा । बिरह तपै तन अधिक जरावै, नींद न आवे भोज न भावै ॥१॥
सखी सहेली गरब गहेली । पिउकी बात न सुनहु सहेली । मैं रे दुहागति अध कर जानी, गया सो जोबन साध न मानी ॥२॥
तू साईं औ साहिब मेरा, खिजमतगार बंदा मैं तेरा । कह रैदास अंदेसा येही, बिन दरसन क्यों जिवहि सनेही ॥३॥

९४.
कहॉं सूते मुग्ध नर काठ के मॅझ सुख । तजिय बस्तु राम चितवत अनेक सुख ॥टेक॥ असहज धीरज लोप कृस्न उधरत कोप, मदन भुवंग नहिं मंत्र जंता । विषय पावक ज्वाल ताहि वार न पार, लोभ की अयनी ज्ञात हंता ॥१॥
विषय संसार व्याल व्याकुळ तवै, मोह गुन विषै संग बंध भूता । टेरि गुन गारुडी मंत्र स्रवना दियो, जागि रे राम कहि कहि के सूता ॥२॥
सकल सिम्रित जिती सत मति कहै तिती, हैं इनही परम गति परम बेता । ब्रह्म ऋषि नारद संभु सनकादिक, राम राम रमत गये पार तेता ॥३॥
जजन जाजन जाप रटन तीरथ दान, ओषधी रसिक गद मूल देता । नागदेवाने जरजरी राम सुमिरन बरी, भनत रैदास चेत निमेता ॥४॥

९५.
खालिक सिकस्ता मैं तेरा । दे दीदार उमेदगार, बेकरार जिव मेरा ॥टेक॥ औवल आखिर इलाह, आदम फरिस्ता बंदा । जिसकी पनह पीर पैगंबर, मैं गरिब क्या गंदा ॥१॥
तू हाजरा हजूर जोग इक, अवर नहीं है दूजा । जिसके इसक आसरा नाहीं, क्या निवाज क्या पूजा ॥२॥
नालीदोज हनोज बेबखत, कमिं खिजमतगार तुम्हारा । दरमॉंदा दर ज्वाब न पावै, कह रैदास बिचारा ॥३॥

९६.
मरम कैसे पाइब रे । पंडित कौन कहै समुझाई, जा ते मेरो आवगमन बिलाई ॥टेक॥ बहुविधि धरम निरूपिये, करते देखै सब कोई । जेहि धरमे भ्रम छुटि है, सो धरम न चीन्हे कीई ॥१॥
करम अकरम बिचारिये, सुनि सुनि बेद पुरन । संसा सदा हिरदे बसै, हरि बिन कौन हरै अभिमान ॥२॥
बाहर मूंदि के खोजिये, घट भीतर बिबिध बिकार । सुची कौन बिधि होहिंगे, जस कुंजर बिधी व्यौहार ॥३॥
सतजुग सत त्रेता तप करते, द्वापर पुजा अचार । तिहूं जुगी तीनो दृष्टी, कलि केवल नाम अधार ॥४॥
रबि प्रकास रजन जथा यो गत दीसै संसार । पारस मलि तॉंबौ छिपा, कनक होत होत नहिं बार ॥५॥
धन जोबन हरि न मिलै, दुख दारुन अधिक अपार । एकै एक बियोगियॉं, ता को जानै सब संसार ॥६॥
अनेक जतन करि टारियें, टारे न टरै भ्रम पास । प्रेम भगति नहिं उपजै, ता ते जन रैदरा उदास ॥७॥

९७.
रामभगत को जन न कहाऊं, सेवा करूं न दासा । जोग जग्य गुन कछू न जानूं, ताते रहूं उदासा ॥टेक॥ भगत हुआ तो चढै बढाई, जोग करूं जग मानै । गुन् हूआ तो गूनी अन कहै, गुनी आपको आनै ॥१॥
ना मैं ममता मोह न महिया, ये सब जाहिं बिलाई । दोजख भिस्त दोउ समकर जानौं, दुहुं ते तरक है भाई ॥३॥
कृष्ण करीम राम हरि राघव, जब लोग एक न पेखा । वेद कतेब कुरान पुरातन, सहज एक नहिं देखा ॥४॥
जोइ जोइ पूजिया सोइ सोइ कॉंची, सहज भाव सतहोई । कह रैदरा मैं ताहिको पूजूं, जाके ठावॅं नावॅं नहिं होई ॥५॥

९८.
संत उतारै आरती देव सिरो मनिये । उर अंतर तहॉं बैसे बिन रसना भनिये ॥टेक॥ मनसा मंदिर माहि धुपइये । प्रेम प्रीति की माल राम चढइये ॥१॥
चहुं दिसि दियना बारि जगमग हो रहिये । जोति जोति सम जोति हिलमिल हो रहिये ॥२॥
तन मन आतम वारि तहॉं हरि गाइये री । भनत जन रैदास तुम सरना आइये री ॥३॥

९९.
आरती कहॉं लो जोवै । सेवक दास अचंभो होवै ॥टेक॥ बावन कंचन दीप धरावै । जड बैरागी दृष्टि न आवै ॥१॥
कोटि भानु जाकी सोभा रोमै । कहा आरती अगनी होमै ॥२॥
पांच तत्त्व तिरगुनी माया । जो देखैं सो सकल समाया ॥३॥
कह रैदास देखा हम माहीं । सकल जोति रोम सम नाहीं ॥४॥

१००.
तुम्हारी आरत भंजन मुराने । के नाम बिन झूठे सकल पसारे ॥टेक॥ तेरी आसन नाम तेरो उरसा । नाम तेरो केसरि लै छिडका रे ॥१॥
तेरो अमिला नाम तेरो चंदन । घसि जपै नाम ले तुझ कूंचा रे ॥२॥
तेरो दिया नाम तेरो बाती । नाम तेरो तेलै ले माहिं पसारे ॥३॥
तेरे की जोति जगाई । भयो उंजियार भवन सगरा रे ॥४॥
तेरो धागा नाम फूल माला । भाव अठारह सहस जुहारे ॥५॥
कियो तुझे का अरपू । नाम तेरो तुझे चॅंवर दुलारे ॥६॥
ठदिस अठअठ चारि खानि हू । बरनत है सकल संसारे ॥७॥
रैदास नाम तेरो आरति । अंतरगत हरि भोग लगा रे ॥८॥

संत रोहिदास यांची पदे समाप्त

N/A

References : N/A
Last Updated : December 26, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP