राग सोरठ
५६.
ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारं । हृदय राम गोबिंद गुनसारं सुरसरि जलकृत बारूनी रे, जेहि संत जन नहिं करत पानं । सुरा अपवित्र तिनि गंगजल आनिये, सुरसरि मिलत नहिं होत आनं ॥१॥
ततकरा अपवित्र कर मानिये, जैसे कागदगर करत बिचारं । भगवंत भगवंत जब ऊपरे लिखिये, तब पूजिये करि नमस्कारं ॥२॥
अनेक अधम जिव नाम गुन ऊधरे, पतित पावन भये परिस सारं । भनत रैदास ररंकार गुन गावते, संत साधू भये सहज पारं ॥३॥
५७.
मैं का जानूं देव मैं का जानूं । मन माया के हाथ बिकानूं ॥टेक॥ चंचल मनुवॉं चहुं दिसि धावै । पॉंचो इंद्री थिर न रहावै ॥१॥
तुम तो आहि जगतगुरु स्वामी । हम कहियत कलियुग कलियुग के कामी ॥२॥
लोक बेद मेरे सुकृत बडाई । लोक लीक मो पै तजी न जाई ॥३॥
इन मिलि मेरो मन जो बिगार्यौ । दिन दिन हरि सों अंतर पार्यौ ॥४॥
सनक सनंदन महामुनि ज्ञानि । सुक नारद ब्यास यह जो बखानी ॥५॥
गावत निगम उमापति स्वामी । सेस सहज मुख कीरति गामी ॥६॥
जहॉं जाऊं तहॉं दुख की रासी । जो न पतियाइ साधु हैं साखी ॥७॥
जम दूतन बहु बिधि करि मार्यो । तऊ निलज अजहूं नहिं हार्यो ॥८॥
हरिपद बिमुख आस नहिं छूटै । ताते तृस्ना दिन दिन लूटै ॥९॥
बहुविधि करम लिये भटकावै । तुम्हें दोष हरि कओन लगावै ॥१०॥
केवळ राम नाम नहिं लिया । संतति विषय स्वाद चित दीया ॥११॥
कह रैदास कहॉं लगि कहिये । बिन जगनाथ बहुत दुख सहिये ॥१२॥
५८.
ऐसा ध्यान घरौं बरो बनवारी, मन पवन दै सुखमन नारी ॥टेक॥ सो जप जपौं जो बहुर न जपना । सो तप तपौ जो बहुरि न तपना ॥१॥
सो गुरु करौं जी बहुरि न करना । ऐसो मरौं जो बहुरि न मरना ॥२॥
उलटी गंग जमुन में लावौं । बिनही जल मंजन द्वै पावौं ॥३॥
लोचन भरि भरि बिंब निहारौं । जोति बिचारि न और बिचारौं ॥४॥
पिंड परे जिव जिस घर जाता । सबद अतीत अनाहद राता ॥५॥
जा पर कृपा सोई भल जानै । गूंगो साकर कहा बखानै ॥६॥
सुन्न मॅंडल में मेरा बासा । ता ते जिव में रहौं उदासा ॥७॥
कह रैदास निरंजन ध्यावौं । जिस घर जावॅं सो बहुरि न आवौं ॥८॥
५९.
बापु रो सत रैदास कहै रे । ज्ञान बिचार चरन चित लावै, हरि की सरनि कहै रे ॥टेक॥ पाती तोडे पूजि रचावै, तारन तरन कहै रे । मूरित काहिं बसै परमेसुर, तौ पानी माहिं तिरै रे ॥१॥
त्रिबिध संसार कौन बिधि तिरबौ, जे दृढ नाव न गहे रे । नाव छाडि दे र्डूंगे बसे, तौ दूना दुःख सहे रे ॥२॥
गुरु को सबद अरु सुरति कुदाली, खोदत कोई रहै रे ॥३॥
झूठी माया जग डहकाया, तौ तिन ताप दहै रे । कह रैदास राम जपि रसना, कहुके संग न रहै रे ॥४॥
६०.
माधवे नो कहियत भ्रम ऐसा । तुम कहियत होहु न जैसो ॥टेक॥ नरपति एक सेज सुख सूता, सपने भयो भिकारी । आछत राज बहुत दुख पायो, सो गति भई हमारी ॥१॥
जब हम हुते तबैतुम नाहीं, अब तुम हौ हम नाहीं । सरिता गवन कियो गहर महोदधि, जल केवल जल माहीं ॥२॥
जब हम हुते तबैतुम नाहीं, अब तुम हौ हम जनावा । समुझि परी मोहिं कनक अलंकृत, अव कछु कहत न आवा ॥३॥
करता एक जाय जग भुगता, सब घट सब विधि सोई । कह रैदास भगति एक उपजी, सहजै होइ सो होई ॥४॥
६१.
केहि बिधि अब सूमिरौं रे, अति दुर्लभ दीनदयाल । मैं महा विषई अधिक आतुर, कामना की झाल ॥टेक॥ कहा बाहर डिंभ कीये, हरि कनक कसौटीहार । बाहर - भीतर साखि तूं, कियौ ससौ अंधियार ॥१॥
कहा बैठ्यों हरी, मो पै सर्यो न एको काज । भाव भगति रैदास दे, प्रतिपाल करि मोहिं आज ॥३॥
६२.
रे चित चेत अचेत काहे बालक को देख रे । जाति ते कोई पद नहिं पहुंचा, राम भगति विसेख रे ॥टेक॥ खटक्रमसहित जे बिप्र होते, हरि भगति चित दृढ नाहिं रे । हरिकी कथा सुहाय नाहीं, सुपच तूलै ताहि रे ॥१॥
मित्र शत्रु अजात सब ते अंतर लावै हेत रे । लाग बाकी कहॉं जानै तीन लोक पवेत रे ॥२॥
अजामिल गज गनिका तारी, काटी कुंजर की पास रे । ऐसे दुरमत मुक्त कीये, तो क्यों न तरै रैदास रे ॥३॥
६३.
रे मन माछला संसार समुदे तूं चित्र बिचित्र बिचारि रे । जेति गालै गलिये ही मरिये, सो सॅग दूरि निवारि रे ॥टेक॥ जम छै डिगन डोरी छै कंकन, पर तिया लागो जानि रे । होइ रस लुबुध रमै यौं मूरख मन पछि तावै अजान रे ॥१॥
पाप गुलीचा भरम निबोली देखि देखि फल चीख रे । पर तिरिया संग भला जों होवै, तो राजा रावन देख रे ॥२॥
कह रैदास रतन फल कारन, गोबिन्द का गुन गाइ रे। कॉंचे कुंभ भरो जल जैसे, दिन दिन घटतो जाइ रे ॥३॥
६४.
माधो अविद्या हित कीन्ह । ता ते मैं तोर नाम न लीन्ह ॥टेक॥ मृग मीन भृंग पतंग कुंजर एक दोस बिनास । पंच व्याधि असाधि यह तन कौन ता की आस ॥१॥
जल थल जीव जहॉं तहॉं लौं, करम न या सन जाई । मोह पासी अबंध बंध्यो, करिये, कौन उपाई ॥२॥
त्रिगुन जोनि अचेत भ्रम भरमे, पाप पुन्न न सोच । मानुखा औतार दुरलाभ, तहूं संकट पोच ॥३।
रैदास उदास मन भौ, जप न तप गुन ज्ञान । भगत जन भवनहरन कहिये, ऐसे परम निधान ॥४॥
६५.
सुकछु बिचार्यो तातें मेरो मन थिर ह्वै गयौ । हारे रॅं लाग्यो तब बरन पलटि भयो ॥टेक॥ जिन यह पंथी पंथ चलावा । अगम गवन में गम दिखलावा ॥१॥
अबरन बरन कहै जानि कोई । घट घट व्यापि रह्यो हरि सोई ॥२॥
जेई पद सुन नर प्रेम पियासा । सो पद रमि रह्यों जन रैदासा ॥३॥
६६.
माधो, संगत सरति तुमारी, जग जीवन कृस्न मुरारी ॥टेक॥ तुम मखतूल, चतुरभुज, मैं बपुरो जर कीरा । पीवत डाल फूल फल अम्रित, सहज भई मति हीरा ॥१॥
तुम चंदन हम अरॅंड बापुरो, निकट तुमारी बासा । नीच बिरिछ ते ऊंच भये हैं, तेरी बास सुबासन बासा ॥२॥
जाति भी ओछी जनम भी ओछा, ओछा करम हमारा । हम रैदास, रामराई को, कह रैदास बिचारा ॥३॥
६७.
माधो भरम कैसेहु न बिलाई । ताते द्वैत दरसै आई ॥टेक॥ कनक कुंडल सूत पट जुदा, रजु भुअंग भ्रम जैसा । जल तरंग पाहन प्रतिमा ज्यों, ब्रह्म जीव द्वति ऐसा ॥१॥
विमल एक रस उपजै न बिनसै, उदय अस्त दौ नाहीं । बिगता बिगत घटै नहिं कबहूं, बसत बसैं सब माहीं ॥२॥
निश्चल निराकार अज अनुपम, निरभय गति गोबिन्दा । अगम अगोचर अच्छर अतरक, निरगुन अंत अनंदा ॥३॥
सदा अतीत ज्ञान घन बर्जित, निरबिकार अविनासी । कह रैदास सहज सुन्न सत जिवन मुक्त निधि कासी ॥४॥
६८.
तुम चरनारबिन्द भॅंवर मन । पान करत मैं पायो रामधन ॥टेक॥ संपति बिपति पटल माया धन । ता में मगन होइ कैसे तेरो जन ॥१॥
कहा भयो जे गत तन छन छन । प्रेम जाइ तौ डरै तेरौ निज जन ॥२॥
प्रेमरजा लै राखौ हृदे धरि । कह रैदास छूटिबो कवन परि ॥३॥
६९.
ऐसे जानि जपो रे जीव, जपि ल्यो राम न भरमो जीव ॥टेक॥ गनिका थी किस करमा जोग । पर - पूरष सो रमती भोग ॥१॥
निसि बासर दुस्करम कमाई । राम कहत बैकुंठे जाई ॥२॥
नामदेव कहिये जाति कै ओछे । जाको जस गावै लोक ॥३॥
भगति हेत भगता के चले । अंक माल ले बीठल मिले ॥४॥
कोटि जग्य जो कोई करै । राम नाम सम तउ न निस्तरै ॥५॥
निरगुन का गुन देखो आई । देही सहित कबीर सिधाई ॥६॥
मोर कुचिल जाति कुचिल में बास । भगत चरन हरिचरन निवास ॥७॥
चरिउ बेद किया खंडौति । जन रैदास करै डंडौति ॥८॥
७०.
बरजि हो बर जेवी उतूले माया । जग खेला महाप्रबल सबही बस करिये, सुर नर मुनि भरमाया ॥टेक॥ बालक बृद्ध तरुन अरू सुन्दर, नाना भेष बनावै । जोगी जती तपी संन्यासी, पंडित रहन न पावै ॥१॥
बाजीगर के बाजी कारन, सब को कौतिग आवै । जो देखै सो भूलि रहै, वा का चेला मरम जो पावै ॥२॥
षड ब्रह्मण्ड रोक सब जीते, येहि बिधि तेज जनावै । सब ही का चित चोर लिया है, वा के पीछे लागै धावै ॥३॥
इन बातन से पचि मरियत है, सब को कहै तुम्हारी । नेक अटक किन राखो कैसो, मेटो बिपति हमारी ॥४॥
कह रैदास उदास भयो मन, भाजि कहॉं अब जैये । इत उत तुम गोबिन्द गोसाई, सुमहीं माहिं समैये ॥५॥
७१.
बंदे जानि साहिब गनी । समझि बेद कतेब बोलै काबे में क्या मनी ॥टेक॥ स्याही सपेदी तुरॅंगी नाना रंग बिसाल बे । ना पैद तैं पैदा किया पैमाल करत न बार बे ॥१॥
ज्वानी जुमी जमाल सूरत देखिये थिर नाहिं बे । दम छ सै सहस इकइस हरदिन खजाने थैं जाहिं बे ॥२॥
मनी मारे गर्ब गाफिल बेमेहर बेपीर बे । दरी खाना पडै चोबा होइ नहीं तकसीर बे ॥३॥
कुछ गॉंठि खरची मिहर तोसा, खैर खुबीहा थीर बे । तजि बदवा बेनजर कमदिल, करि खसम कान बें । रैदास की अरदास सुनि, कछु हक हलाल पिछान बे ॥४॥
७२.
ऐसी भगति न होइ रे भाई । राम नाम बिन जो कछु करिये, सो सब भरम कहाई ॥टेक॥ भगति न रस नाद भगति न कथै ज्ञान । भगति न बनमें गुफा खुदाई ॥१॥
भगति न ऐसी हॉंसी भगति न आसापासी । भगति न यह सब कुल कान गॅंवाई ॥२॥
भगति न इंद्री बॉंधा भगति न जोग साधा । भगति न अहार घटाई ये सब करम कहाई ॥३॥
भगति न इंद्री साधे भगति न बैराग बॉंधे । भगति न ये सब बेद बडाई ॥४॥
भगति न मूड मुडाये भगति न माला दिखाये । भगति न चरन धुवाये ये सब गुनी जन कहाई ॥५॥
भगति न तौ लौं जाना आपको आप बखाना । जोइ जोइ करै सो सो करम बडाई ॥६॥
आपो गयो तब भगति पाई ऐसी भगति भाई । राम मिल्यो आपो गुन खोयो रिधि सिधि सबै गॅंवाई ॥७॥
कह रैदास छूटी आस सब तब हरि ताही के पास । आत्मा थिर भई तब सबही निधि पाई ॥८॥