भगवान की महतीं
सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्मा । आनंदरूपममृतं यद्विभाति ।
शांतं शिवमद्वैतं । शुद्धमपापविद्धम् ॥१॥
अपाणि पादो जवनो गृहीतां ।
पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
सवेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता ।
तमाहुरगर्यं पुरुषं महांतम् ॥२॥
न सत्य प्रतिमा अस्ति ॥३॥
भगवान सत्यस्वरूप, ज्ञानरूप और अनंत है ।वह आनंदस्वरूप तथा अमर रहकर, सारे जगको प्रकाशमान कर रहा है । वह शांत और मंगलमय है, उस जैसा और कोई नही (अर्थात् वह एकमात्र है ।)वह शुद्ध तथा पापविरहित है ॥१॥
वह ईश्वर को हाथ पैर नही है, तभी वह ग्रहण कर सकता है, एक जगह से दूसरी जगह जा सकता है । उसे ऑंख नही है तब भी वह देख सकता है तथा उसे कान नही है तब भी वह सुनता है । उसे सब ज्ञात है परंतु उसे कोई नही समझ सकता ।
इसलिये उसे महान आदि पुरुष कहते है । उसकी प्रतिमा (मूर्ती ) नही है ।फिर भी पूजा विधी करनेके लिए भक्तगण भगवानकी मूर्ति बनाकर उसकी षोडशोपचार (सोलह उपचार पूजा) और पंचोपचार
(पांच उपचार पूजा) करते है ।
पूजाके प्रमुख सोलह उपचार-
आवाहनासनेपाद्यमर्ध्यमाचमनीयकम् ।
स्नानंवस्त्रोपवीते च गंधं पुष्पेच धूपकम् ।
दीपरान्न नमस्कारः प्रदक्षिणा विसर्जने ॥१॥
१. आवाहन (भगवानको बुलाना)
२. आसन
३. पाद्य (पैर धोना)
४. अर्घ्य (हाथ धोनेको पानी देना)
५. आचमन (हाथपर थोडा पानी लेकर पीना)
६. स्नान
७. वस्त्रधारणा
८. यज्ञोपवीत
९. गंध (चंदन)
१०. पुष्प
११. धूप
१२. दीप
१३. भोजन (नैवेद्य)
१४. प्रदक्षिणा
१५. नमस्कार
१६. विसर्जन
पूजनके पॉंच उपचार
गंधपुष्पधूपदीपौ नैवेद्यं पंचमं स्मृतं ।
गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य (भोजन), इसी पॉंच उपचार से भी पूजा की जाती है । इसे पंचोपचार पूजा कहते है ।
मानसपूजा
पूजाकी भीतरी तैयारी
शास्त्रोंमें पूजाको हजारगुना अधिक महत्त्वपूर्ण बनानेके लिये एक उपाय बतलाया गया है । वह उपाय है, मानसपूजा ।
जिसे पूजासे पहले करके फिर बाह्य वस्तुओंसे पूजन करे ।
मनःकल्पित यदि एक फूल भी चढ़ा दिया जाय तो करोड़ो बाहरी फूल चढ़ानेके बराबर होता है ।
इसी प्रकार मानस चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य भी भगवानको करोड़गुना अधिक संतोष दे सकेंगे ।
अतः मानसपूजा बहुत अपेक्षित है ।वस्तुतः भगवानको किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं, वे तो भावके भूखे है । संसारमें ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है, जिनसपरमेश्वरकी पूजा की जा सके । इसलिये पुरणोंमें मानसपूजाका विशेष महत्त्व माना गया है । मानसपूजामें भक्त अपने इष्टदेवको मुक्तिमणियोंसे मण्डितकर स्वर्णसिंहासनपर विराजमान कराता है । स्वर्गलोककी मन्दाकिनी गङ्गाके जलसे अपने आराध्यको स्नान कराता है, कामधेनु गौके दुग्धसे पञ्चामृतका निर्माण करता है । वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं । पृथ्वीरूपी गन्धका अनुलेपन करता है । अपने आराध्यके लिये कुबेरकी पुष्पवाटिकासे स्वर्णकमलपुष्पोंका चयन करता है । भावनासे वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपि नैवेद्य भगवानको अर्पण करनेकी विधि है । इसके साथ ही त्रिलोककी सम्पूर्ण वस्तु सभी उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्माप्रभुके चरणोंमें भावनासे भक्त अर्पण करता है । यह है मानसपूजाका स्वरूप । इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणोमे वर्णित है । जो नीचे लिखी जा रही है -
१. ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि ।
(प्रभो ! मैं पृथ्वीरूप गन्ध (चन्दन) आपको अर्पित करता हूँ ।)
२. ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि ।
(प्रभो ! मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ ।)
३. ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि ।
(प्रभो! मैं वायुदेवके रूपमें धूप आपको अर्पित प्रदान करता हूँ ।)
४. ॐ रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि ।
(प्रभो ! मैं अग्निदेवके रूपमें दीपक आपको अर्पित करता हूँ ।)
५. ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि ।
(प्रभो ! मैं अमृतके समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ ।)
६. ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि ।
(प्रभो ! मैं सर्वात्माके रूपमें संसारके सभी उपचारोंको आपके चरणोंमें समर्पित करता हूँ ।)
इन मन्त्रोंसे भावनापूर्वक मानसपूजा की जा सकती है । मानसपूजासे चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजामे भी रस मिलने लगता है । यद्यपि इसका प्रचार कम है, तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिये ।