सोइ रसना, जो हरि-गुन गावै ।
नैननिकी छबि यहै चतुरता, जो मुकुन्द मकरन्दहि ध्यावै ॥१॥
निर्मल चित्त तो सोई साँचौ,कृष्ण बिना जिहि और न भावै ।
स्त्रवननकी जू यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस पावै ॥२॥
कर तेई जे स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि वृन्दावन जावै ।
सूरदास जैयै बलि वाके, जो हरि जू सौं प्रीति बढ़ावै ॥३॥