हिरण्यकशिपु n. एक सुविख्यात असुर, जो दैत्य कुल का आदिपुरुष माना जाता है । दैत्यवंश में उत्पन्न हुए तीन इंद्रों में यह एक था; बाकी दो इन्द्रो के नाम प्रह्लाद, एवं बलि थे
[वायु. ९७.८७-९१] । इन तीन दैत्य इन्द्रों के पश्चात्, इंद्रप्रद देवताओं के पक्ष में हमेशा के लिए चला गया
[नारद. पूर्व. २१] । इस प्रकार हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, एवं बलि ये तीन सर्वश्रेष्ठ सम्राट् कहे जा सकते है ।
हिरण्यकशिपु n. कश्यप एवं दिति की ‘दैत्य’ संतानों में हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, एवं वज्रांग ये तीन पुत्र, एक सिंहिका नामक कन्या प्रमुख माने जाते है । हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दैत्यों के वंशकर प्रतीत होते है, क्यों कि, बहुत सारे दैत्यकुल इन्हींके पुत्रपौत्रों के द्वारा निर्माण हुए
[वायु. ६७.५०] ;
[ब्रह्मांड. ३.५.३] । मगध देश का सुविख्यात राजा जरासंध भी इसी के ही अंश से उत्पन्न हुआ था
[म. आ. ६१.५] ।
हिरण्यकशिपु n. इसे हिरण्यकशिपु नाम क्यों प्राप्त हुआ इस संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा पौराणिक साहित्य में प्राप्त है । एक बार कश्यप ऋषि ने अश्वमेध यज्ञ किया । उस यज्ञ में प्रमुख ऋत्विज्ञों के लिए सुवर्णासन रक्खे हुए थे । उस समय कश्यपपत्नी दिति गर्भवती थी, एवं दस हजार वर्षों से अपना गर्भ पेंट में पाल रही थी । यज्ञ के समय वह यज्ञमंडप में प्रविष्ट हुई, एवं होतृ के लिए रक्खे हुए मुख्य सुवर्णासन पर जा बैठी । पश्चात् उसी सुवर्णासन में वह प्रसूत हुई, एवं उसका नवजात बालक वहीं सुवर्णासन पर अधिष्ठित हुआ । इस प्रकार जन्म से ही सुवर्णासन पर अधिष्ठित होने के कारण, इसे ‘हिरण्यकशिपु’ नाम प्राप्त हुआ
[ब्रह्मांड. ३.५. ७-१२] ;
[वायु. ६७.५९] ।
हिरण्यकशिपु n. इसके भाई हिरण्याक्ष का विष्णु के द्वारा वध होने के पश्चात् यह अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं इसने अपने भाई के वध का बदला लेने के लिए ब्रह्मा की कठोर आराधना प्रारंभ की। ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए, इसने ‘अधःशिर’ रह कर सौ वर्षों तक कड़ी तपश्र्चर्या की । इस तपस्या के कारण ब्रह्मा अत्यधिक प्रसन्न हुआ, एवं उसने इसे पृथ्वी के किसी भी शत्रु से अवध्यत्व प्रदान किया । अवध्यत्व प्रदान करते समय ब्रह्मा ने इसे वर दिया कि, घर में या बाहर, दिन में या रात में, मनुष्य से अथवा पशु से, शस्त्र से अथवा अस्त्र से, सजीव से या निर्जीव से, शुष्क से या आर्द्र से, यह अवध्य रहेगा ।
हिरण्यकशिपु n. ब्रह्मा के इस वर के कारण, इसे अपने बल का बड़ा ही घमंड उत्पन्न हुआ, एवं समस्त देवताओं का शत्रु बन कर यह पृथ्वी में अनेकानेक अत्याचार करने लगा।
हिरण्यकशिपु n. यह जब तपस्यार्थ गया था, उस समय इसकी पत्नी कयाधु गर्भवती थी । इसकी अनुपस्थिति में नारद ने उसे विष्णुभक्ति का उपदेश दिया, जो उसके गर्भ में स्थित बालक ने भी सुन लिया, जिस कारण वह जन्म से पूर्व ही विष्णुभक्त बन गया । इस प्रकार हिरण्यकशिपु जैसे देवताविरोधी असुर के घर में ही, प्रह्लाद के रूप में एक सर्वश्रेष्ठ विष्णुभक्त का जन्म हुआ । आगे चल कर प्रह्लाद को शिक्षा देने के लिए नियुक्त किये गये गुरु ने भी उसे विष्णुभक्ति के पाठ सिखाये । हिरण्यकशिपु को यह ज्ञात होते ही, इसने प्रह्लाद की विष्णुभक्ति नष्ट करने के लिए हर तरह के प्रयत्न किये, यही नहीं, प्रह्लाद का काफ़ी छल भी किया । किंतु प्रह्लाद अपने विष्णुभक्ति पर अटल रहा (प्रह्लाद देखिये) ।
हिरण्यकशिपु n. एक बार यह अपने पुत्र प्रह्लाद की विष्णुभक्ति के संबंध में कटु आलोचना कर रहा था । उस समय पास ही स्थित एक खंबे के ओर दृष्टिक्षेप कर, इसने बडी ही व्यंजना से प्रह्लाद से कहा, ‘सारे चराचर में भरा हुआ तुम्हारा विष्णु इस खंबे में भी होना चाहिये। तुम इसे बाहर आने के लिए क्यों नहीं कहते?’ इतना कहते ही उक्त खंबे से श्रीविष्णु का रौद्र नृसिंहावतार प्रकट हुआ; एवं उन्होनें अपने नाखुनी से सायंकाल के समय इसका वध किया । नृसिंह स्वयं अर्धमनुष्य एवं अर्धपशु था । इस कारण ब्रह्मा से प्राप्त अवध्यत्व के वरदार का भंग न करते हुए भी वह इसका वध कर सका । पश्चात् प्रह्लाद के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नृसिंह ने इसके सारे पूर्वपापों से इसे मुक्तता प्रदान की (नृसिंह देखिये) ।
हिरण्यकशिपु n. इसकी निम्नलिखित तीन पत्नियाँ थीः--
१. जंभकन्या कयाधु
[भा. ६.१८.१२] ;
२. उत्तानपादकन्या कल्याणी
[पद्म. उ. २३८] ;
३. कीर्ति
[वा. रा. सुं. २०.२८] । अपनी उपर्युक्त पत्नियों से इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न हुए थेः-- १. प्रह्लाद; २. संह्राद; ३. ह्राद; ४. अनुह्राद; ५. शिबि; ६. बाष्कल
[भा. ६.१८.१३] ;
[विष्णु. १.१७.१४०] ;
[ह. वं. १.३] ;
[वायु. ६७.७०] ;
[म. आ. ५९.१८] । अपने इन पुत्रों के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित कन्याएँ भी थीः-- १. सिंहिका
[भा. ६.१८.१३] ; २. हरिणी अथवा रोहिणी
[म. व. २११.१८] ; ३. भृगुपत्नी दिव्या
[वायु. ६५.७३, ६७.६७] ;
[ब्रह्मांड. ३.१.७४] ; भृगु देखिये ।
हिरण्यकशिपु n. इसके पुत्रों से आगेचल कर, विभिन्न दैत्यवंशों का निर्माण हुआ, जिनकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार हैः--
(१) प्रह्लाद शाखाः-- प्रह्लाद--विरोचन--गवेष्ठिन्, कालनेमि, जंभ, बाष्कल, शंभु। (अ) विरोचन शाखा; -- विरोचन-बलि, बाण (सहस्त्रबाहु) कुंभनाभ, गर्दभाक्ष, कुशि आदि। (ब) गवेष्ठिन् शाखाः -- गवेष्ठिन् - शुंभ, निशुंभ, विश्र्वक्सेन । (क) कालनेभि शाखाः-- जंभ--शतदुंदुभि, दक्ष, खण्ड । (इ) बाष्कल शाखाः-- बाष्कल-विराध, मनु, वृक्षायु, कुशलीमुख। (फ) शंभु शाखाः-- शंभु - धनक, असिलोमन्, नाबल, गोमुख, गवाक्ष, गोमत्।
(२) ह्रद शाखाः-- ह्रद - निसुंद, सुंद । (अ) निसुंद शाखाः-- निसुंद - मूक, जो अर्जुन के द्वारा मारा गया । (ब) सुंद शाखाः-- सुंद--मारीच, जो राम के द्वारा मारा गया ।
(३) संह्राद शाखाः-- संह्राद - निवातकवच।
(४) अनुह्राद शाखाः-- अनुह्रादं-वायु (सिनीवाली)--हलाहलगण ।
(५) सिंहिका शाखाः-- सिंहिका - सैंहिकेय गण
[ब्रह्मांड. ३.५.३३-४५] ;
[वायु. ६७.७०-८१] ;
[म. आ. ५९.१७-२०] ।
हिरण्यकशिपु II. n. एक दानव, जिसने एक अर्बुद वर्षों के लिए सारे देवताओं का ऐश्र्वर्य शिव की कृपा से प्राप्त किया था । आगे चल कर इसने मेरुपर्वत को भी हिलाया था
[म. अनु. १४.७३-७४] ।