शांडिल्य n. एक श्रेष्ठ आचार्य, जो अग्निकार्य से संबंधित समस्त यज्ञप्रक्रियाँ में अधिकारी व्यक्ति माना जाता था । बृहदारण्यक उपनिषद में इसे वात्स्य नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है
[बृ. उ. ६.५.४ काण्व.] ‘शंडिल’ का वंशज होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा ।
शांडिल्य n. शतपथ ब्राह्मण के पाँचवे एवं उसके बाद के कांडों में, अग्नि से संबंधित जिन संस्कारों का निर्देश प्राप्त है, वहाँ सर्वत्र इसका इन प्रक्रियों का श्रेष्ठ आचार्य के नाते किया गया है
[श. ब्रा. ५.२.१५, १०.१.४.१०, ४.१.११, ६.३.५, ५.९, ९.४.४.१७] । शतपथ ब्राह्मण के इन सारे अध्यायों में यज्ञाग्नि को ‘शाण्डिल’ कहा गया है,
[श. ब्रा. १०.६.५.९] ।
शांडिल्य n. शतपथ ब्राह्मण के छः से नौ कांड ‘अग्निचयन’ से संबंधित हैं, जिनमें कुल ६० अध्याय हैं। ये चार कांड ‘अग्नि’ अथवा ‘षष्टिपथ’ सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे, एवं उनका अध्ययन अलग किया जाता था । इन कांडों का अध्ययन करनेवाले आचार्यों को ‘षष्ठिपथक’ कहा जाता था । इन सारे कांडों का प्रमुख आचार्य शांडिल्य माना गया है । शतपथ ब्राह्मण का दसवाँ कांड ‘अग्निरहस्य कांड’ कहलाता है, जिसमें अग्निचयन के रहस्यतत्त्वों का निरुपण किया गया है । यहाँ भी शांडिल्य को इस विद्या का प्रमुख आचार्य माना गया है । यज्ञ की वेदि की रचना करना, आदि विषयों में इसके मत पुनः पुनः उध्दृत किये गये हैं।
शांडिल्य n. इस ग्रंथ में इसे निम्नलिखित आचार्यों का शिष्य कहा गया हैः-- १. कैशोर्य काप्य
[बृ. उ. २.५.२२, ४.५.२८ माध्यं.] ; २. वैष्ठपुरेय
[बृ. उ. २.५.१०, ४.५.२६ माध्यं.] ३. कौशिक
[बृ. उ. २.६.१, ४.६.१ काण्व.] ; ४. गौतम
[बृ. उ. २.५.२०, ४.५.२६ माध्यं] ; ६. आनभिम्लात
[बृ. उ. २.६.२ काण्व.] । इसी ग्रंथ में निम्नलिखित आचार्यों को इसकी शिष्य कहा गया हैः-- कौंडिन्य, आग्निवेश्य, वात्स्य, वामकक्षायण, वैष्ठपूरेय, भारद्वाज
[बृ. उ. २.६.१.३, ६.५.४] ;
[श. ब्रा. १४.७.३.२६] । किंतु यहाँ संभवतः एक ही ‘शांडिल्य’ का संकेत न हो कर, ‘शांडिल्य’ पैतृक नाम धारण करनेवाले अनेकानेक आचार्यों का निर्देश प्रतीत होता है । इनमें से ‘शतपथ ब्राह्मण’ में निर्दिष्ट ‘शांडिल्य’ कौनसे आचार्य का शिष्य था, यह कहना कठिन है ।
शांडिल्य n. ‘छादोग्य उपनिषद’ में शांडिल्य का तत्त्वज्ञान दिया गया है
[छां. उ. ३.१५] । इस तत्त्वज्ञान के अनुसार, ब्रह्मा को ‘तज्जलान्’ कहा गया है; एवं सारी सृष्टि इसी तत्त्व सं प्रारंभ होती है, जीवित रहती है, एवं अंत में इसी तत्त्व में विलीन होती है, ऐसा कहा गया है । शांडिल्य के इस तत्त्वज्ञान का तात्पर्य यही था कि, सृष्टि के समस्त भूतमात्रों के उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का अधिष्ठाता केवल एक ईश्र्वर ही है ।
शांडिल्य n. शांडिल्य ते तत्त्ज्ञान में ‘आत्मा’ का वर्णन अर्थपूर्ण एवं निश्र्चयात्मक शब्दों में किया गया है, एवं उसके ‘महत्तम’ एवं ‘लघुत्तम’ ऐसे दो स्वरूप वहाँ वर्णन किये गये हैं। इनमें से ‘महत्तम’ आत्मा अनंत एवं सारे विश्र्व का व्यापन करनेवाला कहा गया है, एवं ‘लघुत्तम’ आत्मा अणुस्वरूपी वर्णन किया गया है । आत्मा का नकारात्मक वर्णन करनेवाले याज्ञवल्क्य के तत्त्वज्ञान से शांडिल्य के इस तत्त्वज्ञान की तुलना अक्सर की जाती है (याज्ञवल्क्य वाजसनेय देखिये) । इन दोनों तत्त्वज्ञानों की कथनपद्धति विभिन्न होते हुए भी, उन दोनों में प्रणीत आत्मा के संबंधित तत्त्वज्ञान एक ही प्रतीत होता है । शांडिल्य के अनुसार, मानवीय जीवन का अंतिम ध्येय मृत्यु के पश्चात् आत्मन् में विलीन होना बताया गया है । शंकराचार्य विरचित ‘ब्रह्मसूत्रभाष्य’ में शांडिल्य के उपर्युक्त तत्त्वज्ञान का निर्देश ‘शांडिल्यविद्या’ नाम से किया गया है ।
शांडिल्य n. आश्र्वलायन गृहसूत्र में प्राप्त गोत्रकारों के नामावलि में शांडिल्य का निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसके गोत्र के प्रवर शांडिल्य, असित, एवं देवल दिये गये हैं। इसके द्वारा लिखित ‘गृहसूत्र’ का निर्देश ‘आपस्तंब धर्मसूत्र’ में प्राप्त है
[आप. ध. ९.११.२१] । भक्ति के संबंध इसके उद्धरण भी उत्तरकालीन सूत्रग्रंथों में प्राप्त है ।
शांडिल्य n. इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्रापत हैः-- १. शांडिल्यस्मृति; २. शांडिल्यधर्मसूत्र; ३. शांडिल्यतत्त्वदीपिका (C.C.) ।
शांडिल्य II. n. एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया हैः-- १. उदर
[छां. उ. १.९.३] ; २. सुयज्ञ
[जै. उ. ब्रा. ४.१७.१] ।
शांडिल्य III. n. एक ऋषि, जो मरीचिपुत्र कश्यप ऋषि के वंश में उत्पन्न हुआ था । आगे चल कर, इसीके कुल में अग्नि ने जन्म लिया था, जिस कारण उसे ‘शांडिल्यगोत्रीय’ कहा जाता है (वैश्र्वदेवप्रयोग देखिये) ।सुमन्यु राजा ने इसे ‘भक्ष्य-भोज्यादि’ पदार्थों की पर्वतप्राय राशि दान में प्रदान की थी
[म. अनु. १३७.२२] । इसने अन्यत्र बैलगाडी के दान को सुवर्ण-द्रव्य आदि द्रव्यों के दान से श्रेष्ठ बताया है
[म. अनु. ६४.१९, ६५.१९] ।
शांडिल्य IV. n. एक ऋषि, जिसने वैदिक मार्ग से विष्णु की पूजा न कर, अवैदिक मार्गों से उसकी उपासना करना चाहा। एक ग्रंथ की रचना कर इसने अपने इस अवैदिक तत्त्वप्रणाली का समर्थन भी किया । इस पापकर्म के कारण, इसे ‘नर्कवास’ की शिक्षा भुगतनी पड़ी, एवं आगे चल कर भृगुवंश में जन्मदग्नि के रूप में इसे जन्म प्राप्त हुआ
[वृद्धहारितस्मृति. १८०-१९३] ।
शांडिल्य V. n. ब्रह्मदेव का सारथि
[स्कंद. ७.१.१२६] ।
शांडिल्य VI. n. एक शिवभक्त राजा। युवावस्था में प्रविष्ट होते ही, कामासक्त बन कर यह अनेकानेक स्त्रियों पर अत्याचार करने लगा। शिव की कृपा के कारण, साक्षात् यमधर्म भी इसे कुछ सज़ा नही कर सकता था । अंत में शिव को इसके अत्याचार ज्ञात होते ही, उसने इसे एक हज़ार वर्षों तक कछुआ (कूर्म) बनने का शाप दिया
[स्कंद. १.२.१२] ।
शांडिल्य VII. n. अग्नि का ज्येष्ठ पुत्र, जो कश्यप का ज्येष्ठ भाई था
[म. अनु. ५३.२६ कुं.] ।