जयद्रथ n. (सो. अनु.) भागवत, विष्णु एवं वायु के मत में बृहन्मनस्पुत्र । मत्स्य में बृहन्मनस् की जगह इसे बृहद्भानु का पुत्र कहा गया है । बृहन्मसस् को दो पत्नियॉं थीं । एक यशोदेवी तथा दूसरी सत्या । यह दोनों चैद्य की कन्याएँ थी । इनमेंसे जयद्रथ यशोदेवी का पुत्र था
[वायु.९९.१११] । इसे संभूति नामक पत्नी तथा विजय नामक पुत्र था
[भा.९.२३.११] ।
जयद्रथ II. n. (सो. अज.) भागवत के मत में बृहत्काय का, विष्णु तथा वायु के मत में बृहत्कर्मन् का, तथा पद्म एवं मत्स्य के मत में बृहदिषु का पुत्र ।
जयद्रथ III. n. सिंधुदेशाधिपति वृद्धश्रत्र का पुत्र
[म.द्रो.१२१.१७] । धृतराष्ट्रकन्या दुःशला का यह पति था
[म.आ.१०८.१८] ;
[म.द्रो. १४८] । यह सिंधु, सौवरि तथा शिबि देशों का राजा था । यह पांडवों का द्वेष करता था । इसे बलाहक, आनीक, विदारण आदि छः भाई थे
[म.व. २५०.१२] । पांडव वनवास में थे । जयद्रथ स्वयंवर के लिये अपने देश से शाल्व देश जा रहा था । इसके साथ छः भ्राता, शिबिकुलोत्पन्न सुरथ राजा का पुत्र कोटिक अथवा कोटिकास्य, त्रिगर्तराजपुत्र क्षेमंकर, इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न सुभवपुत्र, सुपुष्पित, एवं कलिंदपुत्र थे । इसके सिवा अंगारक, कुंजर, गुप्तक, शत्रुंजय, संजय, सुप्रवृद्ध, पभंकर, भ्रमर, रवि, शूर, प्रताप तथा कुहन नामक सौवीर देश के द्वादश राजपुर तथा सेना भी थी । जाते जाते, इसने उसी काम्यक वन में पडाव डाला, जहॉं पांडव रहते थे । पास ही पांडवों का आश्रम था । वे मृगया के लिये बाहर गये थे । आश्रम में धौम्य ऋषि, दासी, एवं द्रौपदी ये तीन ही व्यक्ति थे। द्रौपदी को देखते ही, उसे अपने वश में लाने की इच्छा जयद्रथ को हुई । इसने पूछताछ करने के लिये, कोटिक को उसके पास भेजा । वहॉं जा कर कोटिक ने द्रौपदी से पूछा, ‘तुम कौन हो? यहॉ क्यों आई हो?’ द्रौपदी के द्वारा सब वृत्तांत कथन कर दिये जाने के बाद, कोटिक वापस आया । उसने जयद्रथ को सब बताया यह सुनते ही, सेना से निकल कर जयद्रथ द्रौपदी के पास गया । जयद्रथ को पहचान कर द्रौपदी ने उसका उचित आदरसत्कार किया । द्रौपदी की प्राप्ति के लिये जयद्रथ ने काफी प्रयत्न किये । अत्न में द्रौपदी को इसके निर्लज्ज कृत्य के प्रति अत्यंत क्रोध आया । द्रौपदी ने इसे तुरन्त निकल जाने को कहा । परंतु उसे बारजोरी से अपने रथ में डाल कर इसने भगाया । यह देख कर धौम्य ऋषि ने इसका पीछा किया
[म.व.२४६-२५२] । इतने में पांडव आश्रम लौट आये । आते ही द्रौपदी की दासी ने संपूर्ण वृत्त उन्हें बताया । काफी दूर भागे गये जयद्रथ के समीप वे पहुँचे गये । काफी देर तक युद्ध हुआ । कोटिकादि कई जयद्रथपक्षीय वीर मारे गये । इसने देखा, अपना पक्ष पराजित हो रहा है । पांडवों की दृष्टि बचा कर, इसने रणांगण से पलायन किया । जयद्रथ भाग गया, यह ज्ञात होते ही, अर्जुन तथा भीम ने इसका पीछा किया । संपूर्ण सेना का नाश होने के बाद, धौम्य ऋषि तथा अन्य पांडव आश्रम लौट आये । काफी देर पीछा करने के बाद, अर्जुन तथा भीम ने जयद्रथ को पकडा । भीम ने इसकी अच्छी मरम्मत की । परंतु वध न करते हुए, इसके केशों का पॉंच हिस्सों में मुंडन कर, भीम इसे आश्रम में लाया । युधिष्ठिर ने जयद्रथ से, द्रौपदी क्षमायाचना करने के लिये कहा । युधिष्ठिर ने भीम से कहा, ‘तुम जयद्रथ का वध मत करो । उससे दुःशला दुखित होगी । धृतराष्ट्र एवं गांधारी भी शोकमग्न होगे’। जयद्रथ का वध न कर के उसे छोड दिया गया । इस प्रकार पांडवों के द्वारा इसकी दुर्दशा हुई । इसने मन में अत्यंत अपमानित स्थिति का अनुभव किया । समस्त सेना को राजधानी वापस भेज कर, यह अकेला ही गंगाद्वार चला गया । यहॉं तीव्र तपश्चर्या से इसने शंकर को प्रसन्न किया । ‘मैं सब पांडवों को जीत सकूँ,’ ऐसा वर इस ने शंकर से मॉंगा । शंकर ने इसे बताया, ‘अर्जुन की अनुपस्थिति में बाकी पांडवों का पराभव तुम कर सकोगे’ इससे संतुष्ट हो कर यह अपने नगर लौट आया । इस वर के कारण ही अभिमन्युवध के समय, यह पांडवों का पराभव कर सका
[म.व.२५२.२५६] । भारतीययुद्ध में अर्जुन संशप्तकों से युद्ध करने में व्यस्त था । मौका देख कर, इसने पांडवों का पराभव किया । अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में घिराकर मारा गया । अर्जुन ने घोर प्रतिज्ञा की, ‘कल सूर्यास्त के पहले मैं जयद्रथ का वध करुंगा । इस प्रतिज्ञा से घबरा कर, यह स्वदेश वापस लौटने का विचार करने लगा । उसी रात्रि में दुर्योधन इस ले कर द्रोणाचार्य के पास गया । द्रोणाचार्य ने इसकी रक्षा का आश्वासन दे कर, इसे रोक लिया
[म.द्रो. ५१-५२] । जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञापूर्ति के बारे में अर्जुन अत्यंत चिंतित था । द्रोण ने शकटव्यूह की रचना कर, उसके अंदर चक्रव्यूह तथा सूचिव्यूह की रचना की । पश्चात् इन तीन व्यूहों के अंदर उसने जयद्रथ को बैठाया । तथा वह स्वयं व्यूह के द्वार पर खडा रहा
[म.द्रो. ५७-६३] । कृष्ण ने अर्जुन को सत्वर व्यूह में प्रविष्ट होने के लिये कहा । वहॉं द्रोण तथा अर्जुन युद्ध में मिले तथा काफी देर तक उनका युद्ध हुआ । अंत में कृष्ण की सलाह के अनुसार, द्रोण को छोड कर अर्जुन आगे जाने लगा । तब द्रोण ने उसे कहा ‘मुझे न जीत कर व्यूह में प्रविष्ट होना तुम्हरे लिये अयोग्य है । यह सुन कर अर्जुन ने कहा, ‘आप आचार्य तथा मेरे गुरु हैं । शत्रु नही । मैं आपका शिष्य हो कर पुत्र के सदृश हूँ । युद्ध मैं आपको जीत सके, ऐसा पुरुष इस लोक में कोई नहीं है’
[म.द्रो.६६] । मार्ग के अनेक योद्धाओं का वध करता हुआ, अर्जुन आगे बढा । मार्ग में उसके अश्व प्यासे हो गये । रथ रोक कर, तथा जयद्रथ के पास पहुँचने के लिये अभी काफी अवकाश है, यह सोच कर अर्जुन रुक गया । वहीं बाणगंगा निर्माण कर, उसने अपने अश्वों को पानी पिला दिया तथा वह आगे बढा । वह जयद्रथ के समीप पहुँचा । इतने में युधिष्ठिर ने अर्जुन की सहायता के लिये युयुधान का भेजा
[म.द्रो.७५] । बाद में युधामन्यु तथा उत्तमौजस् नामक दो चक्ररक्षक
[म.द्रो. ६६.३५] एवं सात्यकि तथा भीमसेन व्यूह का भेद कर वहॉं तक पहुँचे । इन सब को एकत्रित देख कर, दुर्योधन भयभीत हो गया, एवं जयद्रथ के पास रक्षणार्थ जा बैठा
[म.द्रो.७४-७६] । इतने में जयद्रथ को बाहर निकालने के हेतु से, कृष्ण ने समस्त सेना में ऐसा आभास निर्माण किया की, मानों सूर्य का अस्त हो रहा है । उस समय जयद्रथ ने सूर्यास्त देखने के लिये गर्दन उठाई । तब कृष्ण ने ‘वह रहा जयद्रथ,’ ऐसा संकेत अर्जुन को किया । अर्जुन ने तत्काल इसक सिर काट दिया एवं संध्या कर रहे जयद्रथ-पिता वृद्धक्षत्र के गोद में गिराया । यह घटना मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी को हुई (भारतसावित्री) । जयद्रथ का सिर काट कर, उसके पिता की ही गोद में क्यों डाला गया, इसके लिये कृष्ण ने अर्जुन को निम्नंकित कथा बताई । कृष्ण ने कहा, “वृद्धक्षत्र जयद्रथ का पिता था । काफी लंबी कालावधि के बाद उसे यह पुत्र हुआ । उसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई, ‘तुम्हारा यह पुत्र कुलशील मनोनिग्रहादि गुणों से प्रसिद्ध योद्धा बनेगा । परंतु लडने समय रणांगण में ऐसा योद्धा उसकी गर्दन काटेगा, जिसकी ओर इसका ध्यान नहीं है’। इसे सुन कर वृद्धक्षत्र ने कहा, ‘लडते समय जो कोई मेरे पुत्र का मस्तक काट कर भूमि पर गिरायेगा, उसका भी मस्तक शतधा विदीर्ण होगा’। इतना कह कर, तथा जयद्रथ को राजगद्दी पर बैठा कर, वह स्वमंतपंचक के बाहर वन में गया, और उग्र तपश्चर्या कर ने लगा । यदि जयद्रथ का मस्तक तुम भूमि पर गिराओगे, तो तुम्हारा मस्तक शतधा विदीर्ण हो जावेगा’। जयद्रथ का सिर गोद में गिरते ही, वृद्धक्षत्र का मस्तक शतधा विदीर्ण हो गया
[म.द्रो.१२१] । जयद्रथ का ध्वज वराहचिह्र का था
[म.द्रो.८०.२०] । इसके एक पुत्र का वध, अर्जुन ने द्रौपदीस्वयंवर के समय किया
[म.आ.२१८.३२] । इसका दूसरा पुत्र दुःशला से उत्पन्न सुरथ । अश्वमेध के समय अश्व के साथ अर्जुन आया, यह सुनते ही उसने प्राणत्याग किया
[म.आश्व. ७७.२७] ।
जयद्रथ IV. n. धर्मसावर्णि का पुत्र ।
जयद्रथ V. n. ब्रह्मस्वार्णि मनु का पुत्र ।