ययाति n. (सो.आयु.) प्रतिष्ठान देश का एक सुविख्यात राजा, जो नहुष राजा का पुत्र, एवं देवयानी तथा शर्मिष्ठा का पति था । महाभारत एवं पुराणों में इसे ‘सम्राट’ एवं ‘श्रेष्ठ विजेता’ कहा गया है । इसका राज्यकाल ३०००-२७५० ई.पू. माना जाता है ।इसने अपने पितामह आयु एवं पिता नहुष के कान्यकुब्ज देश के राज्य का विस्तार कर, अयोध्या के पश्चिम में स्थित मध्यदेश का सारा प्रदेश अपने राज्य में समाविष्ट किया । उत्तरी पश्चिम में सरस्वती नदी तक का सारा प्रदेश इसके राज्य में समाविष्ट था । इसके अतिरिक्त कान्यकुब्ज देश के दक्षिण, दक्षिणीपूर्व एवं पश्चिम में स्थित बहुत सारा प्रदेश इसने अपने बाहुबल से जीता था ।ऋग्वेद में इसे एक प्राचीन यज्ञकर्ता माना गया है, जो वेद की कुछ ऋचाओं का द्रष्टा था
[ऋ. १.३१.१७, १०. ६३.१,९.१०१.४-६] । ऋग्वेद में एक बार इसका निर्देश नहुष राजा के वंशज ‘नहुष्य’ के रुप में किया गया है । पूरु के साथ इसके सम्बन्ध का निर्देश वैदिक ग्रंथो में अप्राप्य है । इसलिए महाकाव्य की परम्परा को निश्चित रुप से त्रुटिपूर्ण मानना चाहिए ।
ययाति n. ययाति का वंश अग्नि, चन्द तथा सूर्य से उत्पन्न हुआ था
[म.आ.१.४४] । प्रजापतिओं में यह दसवॉं था
[म.आ.७१.१] । यह नहुष को सुधन्वन् संज्ञक पितृकन्या विराज से उत्पन्न पुत्रों में से दूसरा था
[म.आ.७०.२९, ८४.१, ९०.७] ; उ.११२.७;
[द्रो.११९.५] ;
[अनु.१४७.२७] ;
[वा.रा.उ.५८] ;
[भा.९.१८] ;
[विष्णु.४.१०] ;
[गरुड.१.१३९.१८] ;
[पद्म. सृ.१२] ;
[अग्नि.२७४] ;
[वायु ९३] ;
[ह.वं.१३०] ;
[ब्रह्म.१२] ;
[कूर्म. १.२२] ;
[लिंग. १.६६] । मत्स्य में, इसकी माता का नाम ‘सुधन्मन्’ की जगह ‘सुस्वधा’ दिया गया है
[मत्स्य. १५.२०-२३] । पद्म के अनुसार, यह नहुष को अशोक-सुन्दरी नामक स्त्री से हुआ था
[पद्म.भू.१०९] । इसके भाइयों की संख्या तथा नाम पुराणों में भिन्न भिन्न दिये गये हैं (नहुष देखिये) । इसका ज्येष्ठ भ्राता यति योग का आश्रय लेकर मुनि हो गया, तथा नहुष अजगर बन गया, जिससे यह भूमण्डल का सम्राट बना ।
ययाति n. (१) पूर्वययात, जिसमें इसके स्वर्गगमन तक का चरित्र प्राप्त है, (२) उत्तरयायात, जहॉं इसके स्वर्गपतन के बाद का जीवन ग्रंथित किया गया है
[म.आ.७०-८०, ८१-८८] ;
[मत्स्य. ३४-८८] ।
ययाति n. एक बार मृगया के निमित्त जंगल मे विचरण करता हुआ, तृषा से व्याकुल होकर यह एक कुएँ ने निकट आया । जैसे ही इसने कुँए में पानी देखना चाहा कि, इसे उसमें एक नग्न सुन्दरी दिख पडी । ययाति ने तत्काल उसे अपना उत्तरीय देकर एवं उसका दाहिना हाथ पकड कर बाहर निकाला । बाद में उसी स्त्री से इसे पता चला कि, वह दैत्यराज शुक्र की कन्या देवयानी है । अन्त में यह अपने नगर वापस आया
[म.आ.७३.२२-२३] ;
[भा.९.१८] ।एक बार इसने देवयानी के साथ एक अन्य कन्या को देख कर उन दोनों, का परिचय करना चाहा । तब देवयानी ने बताया, ‘मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ, तथा यह वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा है, जो मेरी दासी है । यह सुन कर राजा ने अपना परिचय दिया, एवं विदा होने के लिए देवयानी से आज्ञा मॉंगी । तब देवयानी ने राजा को रोक कर उससे प्रार्थना करते हुए कहा, ‘मैनें दो सहस्त्र दासी तथा शार्मिष्ठा के सहित आपको तन-मन धन से वरण किया है । अतएव आप मुझे पत्नी बना कर गौरवान्वित करे’।
ययाति n. प्रतिलोम विवाह उस समय सर्वत्र प्रचलित न थे, अतएव इसने साफ इन्कार कर दिया । तब इसका तथा देवयानी का परस्परसंवाद हुआ, जिसमें देवयानी ने कहा, ‘हे राजा, तुम न भूलो कि, जब जब क्षत्रियकुल का संहार हुआ है, तब ब्राह्मणों से ही क्षत्रियों की उत्पत्ति हुयीं है । लोपामुद्रादि क्षत्रिय कुमारिकाओं का भी ब्राह्मणों से विवाह हुआ है । मेरे पिता अपके न मॉंगने पर भी यदि मुझे आपको देते हैं, तो आपको कुछ भी आपत्ति न होनी चाहिए । मैं कहती हूँ, इसमें आपको कुछ भी दोष एवं पाप न लगेगा’।भागवत के अनुसार, देवयानी ने ययाति से कहा, ‘कच के द्वारा मुझे यह शाप मिल चुका है कि, मुझसे कोई भी ब्राह्मणपुत्र शादी न करेगा । इसीलिए मैं तुमसे बार बार विवाह का निवेदन कर रही हूँ’
[भा.९.१८] । किन्तु महाभारत के अनुसार, देवयानी ने कच के शाप की बात ययाति से न बतायीं, तथा तर्क के द्वारा उसे समझाने की कोशिश की कि, ययाति उससे विवाह कर ले ।
ययाति n. बाद में शुक्राचार्य ने देवयानी की इच्छा के अनुसार, उसकी शादी ययाति से कर दी । शुक्र ने विवाह में धनसंपत्ति के साथ दो हजार दासियॉं के साथ शर्मिष्ठा को भी ययाति को दिया, तथा कहा, ‘शर्मिष्ठा कुलीन घराने की कन्या है, उसे कभी अपनी शय्या पर न बुलाना’ । चलते समय शुक्राचार्य ने ययाति से कहा, ‘देवयानी मेरी प्रिय कन्या है । तुम इसे अपनी पटरानी बनाओं; तुम्हें प्रतिलोम विवाह का कुछ भी दोष न लगेगा’ । अंत में यह देवयानी को उनकी दसियों के सहित के अपने नगर वापस लाया ।
ययाति n. बाद में इसने अशोकवनिका के पास ही शर्मिष्ठा तथा उसकी दासियों की योग्य व्यवस्था कर दी । वहॉं देवयानी के साथ यह प्रसन्नपूर्वक विलासमय जीवन बिताता रहा । कालांतर में देवयानी से इसे दो पुत्र भी हुए ।एक बार ययाति को एकान्त में देख कर शर्मिष्ठा इसके पास आयी, तथा इससे ऋतुकाल को सफल बनाने की प्रार्थना की । पहले ययाति एवं शर्मिष्ठा में परस्पर संवाद हुआ, किन्तु अंत में इसे शर्मिष्ठा की यथार्थता को स्वीकार कर, उसे अपनी भार्या बना कर सहवास करना पडा । कालान्तर में उससे इसे तीन तेजस्वी पुत्र हुए ।
ययाति n. एक दिन देवयानी ने शार्मिष्ठा के तीन पुत्र देखे । पूछने पर जैसे ही उसे पता चला कि, शुक्र के द्वारा रोके जाने पर भी, ययाति ने शर्मिष्ठा को भार्या के रुप में स्वीकार कर उसे तीन पुत्र दिये हैं, वह क्रोध में जल उठी, एवं तत्काल पिता के घर को चली गयी । उसके पीछे पीछे यह भी जा पहुँचा । वहॉं जैसे ही शुक्राचार्य को सारी बातें पता चलीं, उन्हों ने ययाति को जराग्रस्त होने का शाप दिया ।तब ययाति ने शुक्राचार्य से प्रार्थना की कि, वह उसे इस शाप से बचाये । तब शुक्राचार्य ने प्रसन्न हो कर कहा, ‘तुमने मेरा स्मरण किया है, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि, तुम अपनी यह जरावस्था किसी को भी दे कर, उसका तारुण्य ले सकते हो । जो पुत्र तुम्हें अपनी तरुणता दे, तथा तुम्हारी वृद्धावस्था स्वीकार करे, उसे ही तुम अपने राज्य का अधिकारी बनाओं; चाहे वह कनिष्ठ ही क्यों न हो । तुम्हे तरुणता देनेवाला तुम्हारा पुत्र दीर्घजीवी, कीर्तिवान् तथा अनेक पुत्रों का पिता बनेगा’
[भा.९.१८] ;
[ब्रह्म.१४६] । इस प्रकार वृद्धावस्था को धारण कर ययाति अपने नगर वापस आया
[म.आ.७८.४०-४१] ।
ययाति n. राजधानी में आकर, इसने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा, ‘तुम अपनी युवावस्था दे कर, मेरी वृद्धता एवं चित्तदुर्बलता हजार वर्षो के लिए स्वीकार करो’। यदु ने इन्कार करते हुए कहा, ‘मेरे समान आपके अन्य भी पुत्र हैं । आप उनसे यही मॉंग करे, तो अच्छा होगा । यह सुन कर ययाति ने उसे शाप दिया, तुम एवं तुम्हारे पुत्रों राज्य के अधिकार से वंचित होगे’ (यदु देखिये) ।आगे चल कर, यही प्रश्न इसने तुर्वसु से किया, किन्तु वह भी तैयार न हुआ । तब इसने उसे शाप दिया, ‘तुम्हारी संतति नष्ट हो जागेगी, तथा जिन म्लेच्छों के यहॉ धर्म, आचार, विचार को स्थान न दिया जाता हो, एवं जहॉं की कुलीन स्त्रियॉं नीच वर्णो के साथ रमण करती हो, उसी पापी जाति के तुम राजा बनोगे’।पश्चात् यह शर्मिष्ठा के ज्येष्ठ पुत्र दुह्यु के पास गया । वह भी जरावस्था को लेने के लिए तैयार न हुआ । फिर इसने उसे शाप दिया, ‘तुम्हारा कल्याण कभी न होगा । तुम्हे ऐसे दुर्गम स्थान पर रहना पडेगा, जहॉं का व्यापार नावों के माध्यम से होता है । वहॉं भी तुम्हें अथवा तुम्हारे वंशजों को राज्यपद की प्राप्त न होगी, तथा तुम राज्याधिकार से वंचित होकर ‘भोज’ कहलाओगे’।इसके उपरांत यह अपने पुत्र अनु के पास गया । वह भी राजी न होने पर, इसने उसे शाप दिया, ‘तुम इसी समय जराग्रस्त हो जाओंगे । तुम्हारे द्वारा ‘श्रौत’ अथवा ‘स्मार्त’ अग्नि की सेवा न होगी, एवं तुम नास्तिक बन जाओगे’
[म.आ.७०.२३] ।
ययाति n. सबसे अंत में यह अपने कनिष्ठ पुत्र पूरु के पास गया , एवं उसकी युवावस्था मॉंगी । पूरु तैयार हो गया । तब इसने उसके शरीर में अपनी जरा को दे कर उसका यौवन स्वयं ले लिया । पश्चात् इसने उसे वर प्रदान किया, ‘आज से मेरा सारा राज्य तुम्हारा एवं तुम्हारे पुत्रों का होंगा’
[म.आ.७९.२४-३०] ।पूरु का यौवन प्राप्त कर ययाति अपनी विषयवासनाओं को पूर्ण करने में निमग्न हुआ । इसने देवयानी तथा शमिष्ठा से खूब विषयसुख लिया । बाद में इसने विश्वाची नामक अप्सरा के सहित नंदनवन में, तथा उत्तरथ मेरु पर्वत के अलका नामक नगरी में अनेक प्रकार की विलासात्मक लिप्साओं का भोग किया । इतना सुख लूटने के बाद भी, जब इसका जी न भरा, तब इसने अनेक यज्ञ किये, दान दिये, तथा राजनीति का अनुसरण कर के प्रजा को सुखी बनाया । अब यह विषयनवासनाओं से अत्यधिक ऊब चुका था ।
ययाति n. इसी विरक्त अवस्था में इसने अपनी जीवन गाथा रुपक में बॉंध कर देवयानी को कह सुनाई । इस कथा में एक बकरा एवं बकरी की कथा कथन कि थी, जो सदैव भोगलिप्सा में ही विश्वास करते थे
[भा.९.१९] । अत्यधिक भोग लिप्सा से आत्मा किस प्रकार विरक्त बनती है, इसकी कथा इसने पुत्र पूरु को सुनाई, एवं कहाः---
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवभिवर्धते ॥
[म.आ.८०,८४] ;
[विष्णु.४.१०.९-१५] ।
(कामोपभोग से काम की तृष्णा कम नही होती, बल्कि बढती है, जैसे कि अग्नि में हविर्भाग डालने से वह और जोर से भडक उठती है ।)
ययाति n. अंत में इसने पूरु को उसकी जवानी लौटा कर, उससे अपनी वृद्धावस्था ले ली । इसके उपरांत, इसने बडे शौक से पूरु को राज्याभिषेक किया । जनता ने इसका विरोध किया कि, राज्य ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलना चाहिए । किन्तु इसने जनता को तर्कपूर्ण उत्तर दे कर शान्त किया, तथा वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले कर ब्राह्मणों के साथ वह चला गया
[म.आ.८१.१-२] ।पुराणों के अनुसार, वनगमन के पूर्व ययाति ने अपने प्रत्येक पुत्र को भिन्न भिन्न प्रदेश दिये । तुर्वसु को आग्नेय, यदु को नैऋत्य, द्रुह्यु को पश्चिम, अनु को उत्तर, तथा पूरु को गंगा-जमुना के बीच में स्थित मध्य-प्रदेश दिया
[वायु.९३] ;
[कूर्म. १.२२] । कई पुराणों में यही जानकारी कुछ अन्य प्रकार से दी गयी है, जो निम्नलिखित हैः--यदु को ईशान्य
[ह.व.१.३०.१७-१९] । पूर्व
[ब्रह्म.१२] , दक्षिण
[विष्णु.४.३०] ;
[लिंग १. ६६] ; दुह्य को आग्नेय; यदु को दक्षिण-तुर्वसु को पश्चिम, तथा अनु को उत्तर प्रदेश का राज्य दिया गया
[भा.९.१९] ।
ययाति n. अपने पुत्रों को राज्य प्रदान करने के पश्चात्, इसने भृगु पर्वत पर आ कर तप किया, एवं अपनी भार्याओं के साथ यह स्वर्गलोक गया । स्वर्ग में जाने के उपरांत, इसके घमण्डी स्वभाव, एवं दूसरों को अपमानित करने की भावना ने इसे निस्तेज कर दिया, एवं इन्द्र ने इसे स्वर्ग से भौमनर्क में ढकेल दिया । किन्तु यह अपनी इच्छा के अनुसार, नैमिषारण्य में इसकी कन्या माधवी के पुत्र प्रतर्दन, वसुमनस्, शिबि तथा अष्टक जहॉं यज्ञ कर रहे थे, वहॉं जा कर गिरा । तब इसकी कन्या माधवी ने अपना आधा पुण्य, तथा गालव ने अपने पुण्य का अठवॉं अंश इसे प्रदान किया, जिस कारण यह पुनः स्वर्ग का अधिकारी बन गया
[म.आ.८१-८८] ;
[मत्स्य. २५-४२] ; माधवी देखिये ।
ययाति n. ययाति की यह कथा वाल्मीकि रामायण में भी प्राप्त है, किंतु वह कथा पुराणों से कुछ भिन्न है । उसमें लिखा हैं कि, जब यदु ने इसकी जरावस्था को स्वीकार न किया, तब इसने शाप दिया, ‘तुम यातुधान तथा राक्षस उत्पन्न करोगे । सोमकुल में तुम्हारी संतति न रहेगी, तथा वह उदण्ड होगी’। इसी के शाप के कारण, यदु राजा से क्रौंचवन नामक वन में हजारो यातुधान उत्पन्न हुए
[वा.रा.उ.५९] ।
ययाति n. पद्म के अनुसार, पहले यह बडी धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था, तथा धर्मभावना से ही राज्य करता था । किंतु इन्द्र के द्वारा भडकाने पर, इसका मस्तिष्क कुमार्गो की ओर लग गया ।इसकी धर्मपरायणता को देख कर इंद्र को शंका होने लगी कि, कहीं यह मेरे इंद्रासन को न ले ले । अतएव उसने अपने सारथी मातलि को भेजा कि, वह इसे लिए आये । मातलि तथा इसके बीच परमार्थ के संबंध में संवाद हुआ, परंतु यह स्वर्ग न गया । तब इन्द्र ने गंधर्वो के द्वारा ययाति के सामने ‘वामनावतार’ नाटक करवाया । उसमें रति की भूमिका देख कर यह विमुग्ध हों उठा ।
ययाति n. एक बार मलमूत्रोत्सर्ग करने के बाद, इससे पैर न धोया । यह देख कर जरा तथा मदन ने इसके शरीर में प्रवेश किया । कालांतर में एक बार जब यह शिकार के लिए अरण्य में गया था, तब इसे ‘अश्रुबिन्दुमती’ नामक एक सुंदर स्त्री दिखाई दी । तब इसने उसका परिचय प्राप्त करना चाहा । तब उसकी सखी विशाला ने उसका परिचय देते हुए इसे बताया, ‘मदन-दहन के उपरांत रति ने अति विलाप किया, तब देवों ने उस पर दया कर के अनंग मदन का निर्माण किया । इस प्रकार अपने पति को पुनः पा कर रति प्रसन्नता से रोने लगी । रोते समय उसकी बॉंयी ऑंख से जो अश्रुबिन्दु टपका, उसीसे इस सुंदरी का जन्म हुआ है । अब यह बडी हो गयी है, तथा स्वयंवर करना चाहती है’। यह सुन कर ययाति ने अश्रुबिन्दुमती से कहा, ‘मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ’ । अश्रुबिंदु दुमती ने कहा, ‘यदि तुम दूसरे को जरा दे कर यौवन प्राप्त कर लो, तब मैं तुम्हारे साथ विवाह कर सकती हूँ’।यह सुन कर, यौवन मॉंगने के लिए यह अपने ‘तुरु’, ‘यदु’, ‘कुरु’,एवं ‘पूरु’ इन चार पुत्रों के पास गया । उनमें से तुरु एवं ने इसे यौवन देने से इन्कार किया, जिस कारण इसने उन्हे नानाविध तरह के शाप दिये । तीसरा पुत्र कुरु अल्पवय का था, अतथव यह उसके पास न गया । चौथे पुत्र पूरु ने अपना यौवन इसे प्रदान किया । तत्पश्चात् इसने अश्रुबिंदुमती से विवाह किया, जिसने इसे अपनी अन्य दो पत्नियों से संबंध न रखने की शर्त विवाह के समय लगा दी ।इसे एवं अश्रुबिन्दुमती को इस प्रकार रहते देख कर, देवयानी तथा शर्मिष्ठा को अत्यधिक सौतिया दाह हुआ । यह देख कर इसने यदु को आज्ञा दी, ‘इन दोनों का वध करो’। किन्तु उसने इसकी आज्ञा का उल्लंघन किया । इससे क्रोधित हो कर ययाति ने यदु को शाप दिया, ‘तुम्हारे वंश के पुरुष मामा की पुत्री के साथ वरण करेंगे, तथा मातृद्रव्य में हिस्सा लेंगे
[पद्म.भू.८०.१३] ।बाद में, मेनका के सुझाये जाने पर अश्रुबिन्दुमती ने इससे अनुरोध किया कि, यह स्वर्ग देखने चले । तब इसने अपना सम्पूर्ण राज्य पूरु को दे कर, उसे राजनीति का उपदेश दिया, एवं यह वैकुंठ चला गया
[पद्म. हू.६४.८३, ७७.७७] ।
ययाति n. इसका जीवन विभिन्न प्रकार के मोडो से गुजरा । एक ओर जहॉं यह धर्मात्मा, दानी महापुरुष था, वही कालचक्र में फँस कर भोग-लिप्सा में ऐसा चिपका कि, अपने को ही भूल बैठा । किन्तु विभिन्न प्रभावों के द्वारा किये गये इसके कार्यो को छोड कर, इसका निष्पक्ष रुप से अवलोकन करने पर पता चलता हैं कि, ययाति मन तथा इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला भूमण्डल का श्रेष्ठ सम्राट था । इसके भक्तिभाव से देवताओं तथा पितरों का पूजन कर, यज्ञों के अनुष्ठानों को करते हुए, समस्त पृथ्वी का पालन किया था
[म.आ.८०] ।इन्द्र ने इसे एक स्वर्ण का रथ दिया । इस रथ को ले कर इसने छः रात्रियों में सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया, तथा समस्त देव, दानवों एवं मनुष्यों में यह अजेय सावित हुआ
[ह.वं.१.३०.६-७] । लिंग में यह भी दिया गया है कि, यह रथ ययाति को शुक्र के द्वारा दिया गया था, तथा उसके साथ अक्षय तूणीर भी इसे दिये गये थे
[लिंग.१.६६] । ब्रह्म के अनुसार, इसने पृथ्वी को छः दिनों में, तथा लिंग के अनुसार छः महीनें में जीता था
[ब्रह्म.१२] ;
[लिंग.१.६६] । ब्रह्मदेव द्वारा निर्मित दिव्य खड्ग नहुष ने इसे दिये, तथा इसने वह पूरु को दे दिया था
[म.शां.१६०.७३] ।यह अपने समय का बडा प्रसिद्ध राजा था, जिसके नाम के सामने स्थान स्थान पर ‘सम्राट’ ‘सार्वभौम’ इत्यादि उपाधियों लगाई जाती थीं । जब यह यज्ञ करता था, तब सरस्वती तथा अन्य नदियॉं, सत्पसागर तथा पर्वत इसे दुग्ध तथा घी देते थे
[म.श.४०.३०] । देवासुरयुद्ध में इसने देवताओं की सहायता की थी
[म.द्रो.परि.१.क्र.८. पंक्ति. ५७३] ;
[शां.२९.९०] । अज्ञातवास के अन्त में पांडवों के द्वारा किया गया युद्ध देखने के लिए, यह देवों के विमान में बैठ कर आया था
[म.वि.५१.९] ।
ययाति n. जहॉं राजाओं में यह सम्राट था, वही इसमें दानवीरता की भी कभी न भी
[म.व.परि.१.क्र.२] । यह बडा प्रजापालक राजा था
[म.आ.८४.८५७ शां. २९.८८-८९] ;
[अनु.८१.५] । इसने गुरुदक्षिणा देने के लिए, एक ब्राह्मण को हजार गौओं का दान किया था
[म.व.१९०.परि.१.२०.३] । सरस्वती नदी के किनारे जो ‘यायत’ नामक प्रसिद्ध तीर्थ है, वह इसीके कारण प्रचलित हुआ
[म.श.४०.२९] । यह शंकर का बडा भक्त था
[लिंग १. ६६] । इसे ‘काशीपति’ भी कहा गया है
[म.उ.११३.३] । यह यमसभा में रह कर सूर्यपुत्र यम की उपासना करता था
[म.स.८.८] ।
ययाति n. ययाति को दो पत्नियॉं थीः---१. देवयानी, जो सुविख्यात भार्गव ऋषि उशनस् शुक्र की कन्या थी, २. शर्मिष्ठा, जो असुर राजा वृषपर्वन् की कन्या थी । पद्म में इसकी अश्रुबिंदुमती नामक तृतीय पत्नी का निर्देश प्राप्त है
[पद्म. भू.६४.१०८] । किन्तु अन्य कहीं भी उसका निर्देश अप्राप्य है ।ययाति राजा को कुल पॉंच पुत्र थे । उनमें से यदु एवं तुर्वसु इसे देवयानी से, एवं अनु, द्रुह्यु एवं पूरुनमक तीन पुत्र शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुए थे
[म.आ.८०.१३-१४, ९०.८-९] । इन पुत्रों के अतिरिक्त इसे माधवी एवं सुकन्या नामक दो कन्याएँ भी थी
[विष्णुधर्म.१.३२] । किंतु अन्य ग्रंथों में सुकन्या को वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति की कन्या कहा गया है ।
ययाति n. ययाति ने अपना साम्राज्य अपने पॉंच पुत्रों में बॉंट दिया, जहॉं उन्होंने पॉंच स्वतंत्र राजवंशो की स्थापना की । उनकी जानकारी निम्न प्रकार हैः---
१. यदू---इस मध्यदेश के चर्मण्वती (चंबल), वेत्रवती (वेटवा) एवं शुक्तिमती (केन) नदियों से वेष्टित प्रदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहॉं उसने यादववंश की स्थापना की ।
२. तुर्वसु---इसे मध्यदेश के आग्नेय भाग में स्थित वाहर प्रदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहॉं उसने तुर्वसु (यवन) वंश का राज्य स्थापित किया ।
३. अनु---इसे मध्यदेश के उत्तर भाग में स्थित गंगा यमुना नदियों के दोआब का राज्य प्राप्त हुआ, जहॉ उसने अनु (म्लेच्छ) राज्य स्थापित किया ।
४. द्रुह्यु---उसे मध्यप्रदेश के यमुना नदी के पश्चिम में, एवं चंबल नदी के उत्तर में स्थित प्रदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहॉं उसने द्रुह्यु (भोज) वंश का राज्य स्थापित किया ।
५. पूरु---इसने ययाति की जरा स्वीकारने के कारण, ययातिपुत्रों में सब से छोटा होने पर भी, पूरु प्रतिष्ठान देश का राजा बनाया गया । इसे राज्य का सब से बडा हिस्सा मिल गया, जिस में सारा मध्यदेश एवं गंगायमुना के दो आब का प्रदेश समाविष्ट था । सोमवंश की मुख्य शाखा पूरु राजा से ‘पूरुवंश’ अथवा ‘पौरव’ कहलाने लगी ।
ययाति II. n. स्वायंभुव मन्वन्तर के जित देवों में से एक ।