शुक n. एक महर्षि, जो व्यास पाराशर्य ऋषि का पुत्र था (शुक वैयासकि देखिये) ।
शुक (वैयासकि) n. एक महर्षि, जो व्यास पाराशर्य नामक सुविख्यात ऋषि का पुत्र एवं शिष्य था । व्यास ने इसे संपूर्ण वेद तथा महाभारत की शिक्षा प्रदान की थी
[म. आ. ५७.७४-७५] । अपने ज्ञान एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के कारण, यह प्राचीन काल से प्रातःस्मरणीय विभूति माना जाता है । इसी कारण, पुराणों में इसे ‘महातप’, ‘महायोगी’, एवं ‘योगशास्त्र का प्रणयिता’ कहा गया है
[वायु. ७३.२८] ।
शुक (वैयासकि) n. घृताची अप्सरा (अरणी) को देख कर व्यास महर्षि का वीर्य स्खलित हुआ, जिससे आगे चल कर शुक का जन्म हुआ
[म.आ. ५७.७४] । महाभारत में अन्यत्र, व्यास के वीर्य के द्वारा अरणीकाष्ठ से इसका जन्म होने का निर्देश प्राप्त है
[म. शां. ३११.९-१०] ।
शुक (वैयासकि) n. इसका लौकिक गुरु बृहस्पति था
[म. शां. ३११.२३] । अपने पिता क आदेशानुसार, इसने अपने गुरु से मोक्षतत्त्व का उपदेश प्राप्त किया था
[म. शां. ३१२] । शिव के द्वारा इसका उपनयनसंस्कार संपन्न हुआ था
[म. शां. ३११.१९] । व्यास ने इसे भागवत सिखाया था । इसके उपनयन के समय इंद्र ने इसे कमंडलु एवं काषायवस्त्र प्रदान किये। बृहस्पति ने इसे वेदादि का ज्ञान दिया था, एवं उपनिषद, वेदसंग्रह, इतिहास, राजनीति एवं मोक्षादि धर्म आदि का ज्ञान स्वयं व्यास ने इसे दिया था । आगे चल कर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए, यह बहुलाश्र्व जनकराजा के पास गया । वहाँ जनक राजा ने इसे स्त्रीजाल में फँसाने की कोशिश की, किन्तु उसका यह प्रयत्न असफल ही रहा। इसने नारद से भी आत्मकल्याण का उपाय पूछा था
[म. शां. ३१८] ।
शुक (वैयासकि) n. यह शुरू से ही अत्यंत विरक्त था, एवं उपनयन के पूर्व ही इसने जीवन के समस्त भोगवस्तुओं का त्याग किया था । अपने पिता की आज्ञा से यह नग्नावस्था में कुरुजांगल एवं मिथिला नगरी गया था । मिथिला नगरी में जनक राजा ने इसका यथोचित स्वागत किया, एवं इससे ज्ञान-विज्ञानविषयक अनेकानेक प्रश्र्न पूछे
[म. शां. ३१३.३-२१] । मिथिला नगरी से लौट कर यह पुनः एक बार अपने पिता व्यास के पास आया
[म. शां. ३१४.२९] ।
शुक (वैयासकि) n. शुक के जीवन से संबंधित घटनाओं में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना, व्यास पाराशर्य से इसे हुई भागवतपुराण की प्राप्ति मानी जाती है । भागवत ग्रंथ की प्राप्ति होने के पूर्व ही शुक परमज्ञानी था, किंतु फिर भी यह पुराण इसने अत्यंत भक्तिभावना से सुना, एवं उसे सुनते ही इसका हृदय भक्तिभावना से भर आया
[भा. १.७.८] । पश्चात् यह पुराण इसने परिक्षित् राजा को सुनाया था । पुराण सुनाते समय, यह तेजस्वी, तरुण एवं आजानबाहु प्रतीत होता था
[भा. १.१९.१६-२८] । भागवत पुराण की रचना अन्य पुराणों से भिन्न है । अन्य पुराणों में जहाँ परमेश्र्वरप्राप्ति के लिए उपासना, चिंतन एवं तपस्या पर जोर दिया गया है, वहाँ भागवत में भक्ति को प्राधान्य दिया गया है । यही भक्तिप्राधान्यता भागवत का प्रमुख वैशिष्ट्य है । इसी कारण, भागवत को ‘अखिलश्रुतिसार’ एवं ‘सर्ववेदान्तसार’ कहा गया है
[भा. ३.२.३, १२.१३.१२] । इस ग्रंथ के संबंध में प्रत्यक्ष भागवत में कहा गया है-- राजन्ते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे। यावन्न दृश्यते साक्षाच्छ्रीमद्भगवतं परम् ॥
[भा. १२.१३.१४] । भागवत के अनुसार, इस ग्रंथ के कथन से स्वयं व्यास को भी अत्यधिक समाधान प्राप्त हुआ। परमेश्र्वरप्राप्ति का ‘साधनचतुष्टय’ इस ग्रंथ से पूर्ण होने के कारण, अपने जीवन का सारा कार्य परिपूर्ण होने की धारणा उसके मन में उत्पन्न हुई।
शुक (वैयासकि) n. महाभारत में ‘शुकानुप्रश्र्न’ नामक एक उपाख्यान प्राप्त है, जहाँ शुक के द्वारा अपने पिता व्यास से पूछे गये अनेकानेक प्रश्र्नों का, एवं व्यास के द्वारा दिये गये शंकासमाधानों का वृत्तांत प्राप्त है । उस उपाख्यान में चर्चित प्रमुख विषय निम्नप्रकार हैः-- १. ज्ञान के साधन एवं उनकी महिमा; २. योग से परम पद की प्राप्ति; ४. कर्म एवं ज्ञान में अंतर; ५. ब्रह्मप्राप्ति के उपाय; ६. ज्ञानोपदेश में ज्ञान का निर्णय; ७. प्रकृति-पुरुष विवेक; ८. ब्रह्मवेत्ता के लक्षण; ९. मन एवं बुद्धि के गुणों का वर्णन
[म. शां. २२४-२४७] ।
शुक (वैयासकि) n. इसके महानिर्वाण का विस्तृत वर्णन महाभारत में प्राप्त है, जो सत्पुरुष को प्राप्त होनेवाले ‘योगगति’ का अपूर्व शब्दकाव्य माना जाता है । अपने पिता वेदव्यास को अभिवादन कर यह कैलास पर्वत पर ध्यानस्थ बैठ गया । पश्चात् यह वायुरूप बना, एवं उपस्थित लोगों के आँखों के सामने आकाशमार्ग से सूर्य (आदित्य) लोक में प्रविष्ट हुआ। इसके पिता व्यास ‘हे शुक’ कह कर शोक करने लगे, एवं बाकी सभी लोग अनिमिष नेत्रों से यह अपूर्व दृश्य देखते ही रहे
[म. शां. ३१९-३२०] ।
शुक (वैयासकि) n. शुक सदैव नग्नस्थिति में रहता था । इसके सोलह वर्षों तक नग्नावस्था में रहने का निर्देश प्राप्त है
[भा. १.१९.२६] । इसी नग्न अवस्था में यह परिक्षित् राजा से मिलने गया था । इसे नग्न अवस्था में सरोवर पर स्नान के लिए जाते समय वहाँ के उपस्थित लोग लज्जित नहीं होते थे, बल्कि व्यास को वैसी अवस्था में देखने पर उन्हें लज्जा का अनुभव होता था । इसका कारण यही था की, शुक स्त्री-पुरुषें के भेदों के अतीत अवस्था में पहुँच गया था, जिस अतीत अवस्था में व्यास नहीं पहुँचा था
[म. शां. ३२०. २८-३०] ;
[भा. १.४.४] ।
शुक II. n. एक वानर, जो शरभ वानर का पुत्र था । इसकी पत्नी का नाम व्याघ्री था, जिससे इसे ऋक्ष नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था
[ब्रह्मांड. ३.७.२०८] । पुराणों में इसका विस्तृत वंशक्रम प्राप्त है (वानर देखिये) ।
शुक III. n. रावण का एक अमात्य, जो अपने सारण नामक मित्र के साथ उसके गुप्तचर का काम भी निभाता था । राम-रावण-युद्ध के समय, राम का सैन्यबल, शस्त्रबल आदि की जानकारी प्राप्त करने के लिए, रावण ने इसे एवं सारण को गुप्तचर के नाते राम के सेनाशिबिर में भेजा था । पश्चात् ये दोनों वानर का रूप धारण कर, राम के शिबिर में आ पहुँचे। विभीषण ने इनका सही रूप पहचाना, एवं उन्हें गिरफ्तार कर, इन्हें राम के सम्मुख पेश किया । राम ने इनकी निःशस्त्र अवस्था की ओर ध्यान दे कर इन पर दया की, एवं इन्हें देहदण्ड के बिना ही मुक्त किया । पश्चात् इसने रावण के पास जा कर राम की सैन्यसामर्थ्य एवं उदारता की काफ़ी प्रशंसा की, एवं उससे संधि करने की प्रार्थना रावण से की। किंतु रावण ने इसकी एक न सुनी, एवं अन्य गुप्तचर राम की सेना की ओर भेज दिये
[वा. रा. यु. २५-२९] ;
[म. व. २६७. ५२-५३] ।
शुक III. n. अपने पूर्वजन्म में यह ब्राह्मण था । किन्तु अगस्त्य ऋषि को नरमांसयुक्त भोजन खिलाने की गलती इससे हुई, जिस कारण इसे राक्षसयोनि प्राप्त हुई। आगे चल कर, राम के पुण्यदर्शन के कारण यह मुक्त हुआ।
शुक IV. n. (सू. नरिष्यंत.) एक राजा, जो नरिष्यंत राजा का पुत्र था
[पद्म. सू. ८.१२५] ।
शुक V. n. गांधारराज सुबल का पुत्र, जो शकुनि का भाई था । भारतीय युद्ध में अर्जुनपुत्र इरावत् ने इसका वध किया
[म. भी. ८.२४-३१] ।
शुक VI. n. एक ऋषि, जो दीर्घतमस् व्यास ऋषि का पुत्र था । कृष्ण के पुण्यस्पर्श के कारण, अपने अगले जन्म में यह उपनन्द नामक गोप कन्या बन गया
[पद्म. पा. ७२] । पुराणों में प्राप्त अठ्ठाईस व्यासों की नामावलि में इसका नाम अप्राप्य है ।
शुक VII. n. एक राजा, जो शर्यातिवंशीय पृषत् राजा का पुत्र था । इसने समस्त पृथ्वी को जीत कर, सौ अश्वमेध यज्ञ किये। अपने उत्तर आयुष्य में इसने वानप्रस्थाश्रम को स्वीकार किया, एवं शतशृंग पर्वत पर पर्णकुटी में रहने लगा। अस्त्रविद्याशास्त्र में यह पांडवों का गुरु था, एवं इसीने ही भीम को गदायुद्ध, युधिष्ठिर को तोमर युद्ध, नकुल-सहदेवों को खङ्गयुद्ध, एवं अर्जुन को धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान की थी
[म. आ. परि. ६७. २८-३७] ।
शुक VIII. n. एक ऋषि, जो दक्षिण पांचाल के अणुह एवं ब्रह्मदत्त राजा का समकालीन था । यह व्यास पाराशर्य ऋषि के पुत्र शुक वैयासकि से काफ़ी पूर्वकालीन था । पौराणिक साहित्य में शुक ऋषि की अनेकानेक पत्नीयाँ एवं विस्तृत वंशक्रम प्राप्त है । पार्गिटर के अनुसार, यह सारा परिवार व्यास ऋषि के पुत्र वैयासकि का न हो कर अणुह एवं ब्रह्मदत्त राजा के समकालीन शुक ऋषि का था । शुक वैयासकि जन्म से ही अत्यंत विरागी एवं ब्रह्मचारी था ।
शुक VIII. n. इसकी निम्नलिखित दो पत्नीयाँ थीः---१. पीवरी, जो विभ्राज अथवा बर्हिषद पितरों की मानसकन्या थी । हरिवंश में इसे सुकाल पितरों की कन्या कहा गया है
[ह. वं. १.१८.५८] , २. गो (एकशृंगा) । हरिवंश में एकशृंगा गो की नहीं, बल्कि पीवरी का नामांतर बताया गया है । इसके निम्नलिखित पुत्र थेः-- १. भूरिश्रवस् (भूरिश्रुत, भूरि); २. शंभु; ३. प्रभु; ४. कृष्ण; ५. गौर (गौरप्रभ); ६. देवश्रुत
[ब्रह्मांड. ३.८.९३] ;
[वायु. ७०.८४- दे. भा. १.१४] ;
[नारद. १.५८] । इसकी कन्या का नाम कृत्वी (कीर्तिमती, योगमाता, योगिनी) था, जो अणुह राजा की पत्नी थी
[ह. वं. १.२३.६] ;
[वायु. ७३.२८-३०] । अणुह राजा से उसे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था
[मत्स्य. १५] ।