वैकुण्ठ वर्धिबलोऽथ भवत्प्रसादादम्भोजयोनिरसृजत् किल जीवदेहान् ।
स्थास्रूनि भूरुहमयाणि तथा तिरश्र्चां
जाती र्मनुष्यनिवहानपि देवभेदान् ॥१॥
मिथ्याग्रहस्मिमतिरागविकोपभीति रज्ञानवृत्तिमिति पञ्चविधां स सृष्ट्वा ।
उद्दामतामसपदार्थविधानदून
स्तेने त्वदीयचरणस्मरणं विशुद्ध्य़ै ॥२॥
तावत्ससर्ज मनसा सनकं सनन्दं
भूयः सनातनमुनिं च सनत्कुमारम् ।
ते सृष्टिकर्मणि तु तेन नियुज्यमाना
स्त्वत्पादभक्तिरसिका जगृहर्न वाणीम् ॥३॥
तावत्प्रकोपमुदितं प्रतिरुन्धतोऽस्य
भ्रूमध्यतोऽजनि मृडो भवदेशकदेशः ।
नामानि मे कुरु पदानि च हा विरिञ्चे
त्यादौ रुरोद किल तेन स रुद्रनामा ॥४॥
एकादशाह्वयतया च विभिन्नरूपं
रुद्रं विधाय दयिता वनिताश्र्च दत्त्वा ।
तावन्त्यदत्त च पदानि भवत्प्रणुन्नः
प्राह प्रजाविरचनाय च सादरं तम् ॥५॥
रुद्राभिसृष्टभयदाकृतिरुद्रसंघ
सम्पूर्यमाणभुवनत्रयभीतचेताः
मा मा प्रजाः सृज तपश्र्चर मङ्गलाये
त्याचष्ट तं कमलभूर्भवदीरितात्मा ॥६॥
तस्याथ सर्गरसिकस्य मीरचिरत्रि
स्तत्राङ्किराः क्रतुमुनिः पुलहः पुलस्त्यः ।
अ़ङ्गादजायत भृगुश्र्च वसिष्ठदक्षौ
श्रीनारदश्र्च भगवन् भवदङ्धिदासः ॥७॥
धर्मादिकानभिसृजन्नथ कर्दमं च
वाणीं विधाय विधिरङ्गजसंकुलोऽभूत् ।
त्वद्बोधितैः सनकदक्षमुखैस्तनूजै -
रुद्बोधितश्र्च विरराम तमो विमुञ्चन् ॥८॥
वेदान् पुराणनिवहानपि सर्वविद्याः
कुर्वन् निजाननगणाच्चतुराननोऽसौ ।
पुत्रेषु तेषु विनिधाय स सर्गवृद्धि
मप्राप्रुवंस्तव पदाम्बुजमाश्रितोऽभूत् ॥९॥
जानन्नुपायमथ देहमजो विभज्य
स्त्रीपुंसभावमभजन्मनुतद्वधूभ्याम् ।
ताभ्यां च मानुषकुलानि विवर्धयंस्त्वं
गोविन्द मारुतपुरेश निरुन्धि रोगान् ॥१०॥
॥ इति सृष्टिभेदवर्णनं दशमदशकं समाप्तम् ॥
वैकुण्ठ ! तदनन्तर आपकी कृपासे जिनका बल बढ़ा हुआ था , वे पद्मजन्मा ब्रह्मा जीव -शरीरोंकी रचना करने लगे । उन्होंने वृक्ष आदि स्थावरों , तिर्यग्योनिवालोंकी विभिन्न जातियों , मनुष्य -समुदायों तथा अनेविध देवोंकी रचना की ॥१॥
तत्पश्र्चात् उन्होंने मिथ्याग्रह (आत्मासे भिन्न प्रपञ्चके अस्तित्वकी प्रतीति ), अस्मिमति (अस्मिता -शरीरादिमें अहंताभिमान ), राग (आसक्ति ), विकोप (धनादिके अपहरण करनेवालेपर क्रोध ) तथा भीति ॥ (उपभोग्य पदार्थोंके व्यय -नाश -जनित भय )—— यों पॉंच प्रकारकी अज्ञानवृत्तिका निर्माण किया ; तदनन्तर प्रभूत तामस पदार्थोंकी रचनासे उनका मन खिन्न हो गया । तब वे आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणोंका ध्यान करने लगे ॥२॥
( आपके चरण - स्मरणसे जब उनका मन शुद्ध हो गया ) तब उन्होंनें पुनः सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमारको अपने मनसे उत्पन्न किया । तत्पश्र्चात् जब उन्हें सृष्टि - कार्यमें नियुक्त होनेके लिये प्रेरित किया , तब सबने उनके उस आदेशरूप वचनको अङीकार नही किया ; क्योंकि वे तो आपके पादपद्मोंकी भक्तिके ही रसिक थे ॥३॥
इस प्रकार जब ब्रह्मा (आज्ञा -भङ्ग होनेसे ) उत्पन्न हुए अपने प्रबल कोपका निग्रह कर रहे थे , उसी समय उनके भूममध्यसे मृड देवताने जन्म लिया , जो आपके ही एक अंश हैं । कहते हैं —— जन्म लेते ही वे ‘हा विरिञ्च ! मेरा नामकरण तथा स्नान -निर्धारण करो ’ यों कहकर रोने लगे , इसी कारण उनका नाम ‘रुद्र ’ हुआ ॥४॥
तब आपसे प्रेरित होकर ब्रह्माने विभिन्नरूपधारी एकादशनामवाले रुद्रोंका विधान किया और फिर उन्हें एकादश प्यारी पत्नियॉं देकर उतने ही (एकादश ) स्थान भी प्रदान किये तत्पश्र्चात् उनको आदरपूर्वक प्रजाकी रचनाके लिये नियुक्त
किया ॥५॥
उस समय रुद्रद्वारा उत्पन्न किये गये भयावनी आकृतिवाले रुद्रसमूहोंसे त्रिलोकी व्याप्त होने लगी , जिससे ब्रह्माका मन भयभीत हो गया । तब आपकी प्रेरणासे ब्रह्माने रुद्रसे यों कहा - ‘बस , बस , तुम ऐसी प्रजाकी सृष्टि मत करो ; बल्कि लोकहितके लिये तपस्यामें लग जाओ ’ ॥६॥
भगवन् ! तदनन्तर सृष्टि -रचनाके प्रेमी उन ब्रह्माके विभिनन अङ्गोंसे मरीचि , अत्रि , अङ्गिर , क्रतुमुनि , पुलह , पुलस्त्य , भृगु वसिष्ठ , दक्ष और आपके चरणोंके दास श्रीनारद उत्पन्न हुए ॥७॥
तत्पश्र्चात् ब्रह्माने धर्म आदिकी तथा प्रजापति कर्दमकी सृष्टि की । फिर सरस्वतीकी रचना करके वे कामके वशीभूत हो गये । तब आपके द्वारा प्रेरित सनकादि एवं दक्षादि अपने पुत्रोंके समझानेसे वे अज्ञानका परित्याग करके उस कामसे निवृत्त हो गये ॥८॥
उन चतुर्मुख ब्रह्माने अपने चारों मुखोंसे वेदों , पुराणसमूहों तथा समस्त विद्याओंको प्रकटकर अपने मरीचि आदि पुत्रोंमें स्थापित कर दिया । फिर भी जब उन्हें प्रजाकी वृद्धि होती नहीं दीख पड़ी , तब उन्होंने आपके चरणकमलोंका
आश्रय लिया ॥९॥
तदनन्तर प्रजावृद्धिके उपायको जानकर ब्रह्मा अपने शरीरको दो भागोंमें विभक्त करके एक भागसे मनु तथा दुसरेसे उनकी पत्नी शतरूपाके रूपमें स्त्री -पुरुषभावको प्राप्त हो गये । गुरुवायुपुराधीश गोविन्द ! यों उन मनु -शतरूपाद्वारा मनुष्य -कुलकी वृद्धि करते हुए आप मेरे रोगोंका नाश कीजिये ॥१०॥