जिनकी उत्पत्ति पद्मयोनि ब्रह्माके अङ्गसे हुई थी तथा जो आपके चरणयुगलका भलीभॉंति अनुस्मरण करनेवाले थे , उन स्वायम्भुव मनुने इकहत्तर चतुर्युगीके परिमाणवाले अपने राज्यकाल (मन्वन्तर )- को , जो सब प्रकारकी विघ्न -बाधासे रहित था , आपकी लीलाओंका वर्णन करते हुए सुखपूर्वक व्यतीत किया ॥१॥
भगवन् ! उन्हीं मनुके राज्यकालमें जिनका जन्म ब्रह्माकी छायासे हुआ था वे कर्दम नामक ऋृषि ब्रह्माके आदेशसे प्रजा -सृष्टिकी कामना लेकर दस हजार वर्षतक स्वभावतः रमणीय आपकी सेवा करते रहे अर्थात् आपकी प्राप्तिके लिये तपस्या करते रहे ॥२॥
विभो ! तब आपने गरुडपर सवार अपने श्रीविग्रहको , जिसकी कान्ति काले मेघके समान लीली एवं कमनीय थी , जिसके कमल -सदृश हाथमें लीला -कमल सुशोभित हो रहा था तथा जिसका मुख मृदु मुसकानसे उल्लसित था , कर्दमके समक्ष प्रकट कर दिया ॥३॥
उस समय कर्दम ऋषिके शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे आपकी स्तुति करने लगे । तब आप उन्हें पत्नीरूपमें मनुपुत्री देवहूतिको , उससे उत्पद्यमान नौ व पुत्रियों तथा स्वांशभूत कपिल नामक पुत्रको और अन्तमें अपनी प्राप्तिरूप मोक्षको भी वरदानरूपमें प्रदान करके चले गये ॥४॥
तदनन्तर आपके द्वारा भेजे गये नारदके उपदेशसे वे स्वायम्भुव मनु महारानी शतरूपा तथा अपनी गुणवती पुत्री देवहूतिके साथ आगमनकी प्रतीक्षा करनेवाले कर्दम ऋषिकेआश्रमपर पधारे ॥५॥
यद्यपि कर्दम ऋषि आपकी अर्चनासे प्राप्त परमानन्दमें निमग्न थे तथापि मनुद्वारा उपहाररूपमें दी हुई तरुणीरत्न देवहूतिको पाकर उसकी निष्कपट सेवासे वे उसपर प्रसन्न हो गये ॥६॥
तब उन्होंने आपकी उपासनाके प्रभावसे अपनी प्रियतमाकी कामनापूर्तिके हेतु एक नवीन विमानकी रचना की । वनिता -समूहसे पूर्ण उस विमानमें बैठकर वे अपनेको नौ रूपोंमें विभाजित करके देवहूतिके साथ देवाद्यानोंमें विहार
करने लगे ॥७॥
इस प्रकार विहार करते हुऐ सौ व्यतीत हो गये ! तबतक इन्हें परम रूपवती की प्राप्ती हो गयी । तदनन्तर तपस्याके लिये वनगमनकी इच्छा होनेपर भी ये अपनी प्रियाके हितार्थ आपके कपिलअवतारकी उत्सुकतासे आश्रमपर ही निवास करते रहे ॥८॥
देव ! तत्पश्र्चात् जब देवहूति अपने पतिदेवके आदेशसे आपकी सेवामें तल्लीन हो गयी , तब लोगोमें परमात्मसम्बन्धी तत्त्वज्ञानको प्रकट करनेके लिये आपने कपिलरूपसे जन्म लिया ॥९॥
कपिलस्वरूप परमात्मन् ! जब कर्दम ऋषि प्रसन्नचित्त होकर वनको चले गये , तब अपने समस्त सिद्धान्तका उपदेश दिया । वायुमन्दिरेश ! आप मेरी भी रोग -समूहसे शीघ्र ही रक्षा कीजिये ॥१०॥