हिंदुस्थानीं पदें - पदे ४६ ते ५०

वेदान्तशास्त्र हे नुसते बुध्दिगम्य व वाक्‍चातुर्यदर्शक शास्त्र नसून प्रत्यक्ष अनुभवगम्य शास्त्र आहे हे या ग्रन्थातून स्पष्ट होते.


पद ४६
आपना दिल राजी करना पार उतरना ॥धृ॥
आपने आप बने दुसमाना मही बीच मिलावे जान ।
अपनी आप करी पैछान । करना अपनेपर यहसान । भव जल तरना ॥१॥
आपन अपनेकू सुधराना । बूरि राहा छोडकर देना ।
गुरू बचनका अमृत पीना । देह छांड अजरामर होना । चिप क्या मरना ॥२॥
दैवत अपने हात बनाया । भाव पकडकर पूजा कीय्या ।
मनकू भावे सो फल पाया । देखो कैसी हरिकी माया । जगद्दिवाना ॥३॥
अपने मुखडेकू सिनगारे । वैसा दर्पन बीच सुधारे ।
नीरंजन कहता सुन प्यारे । अपनी करणी पार उतारे । छांड भर मना ॥४॥

पद ४७
छाल छ्बीला मूषकवाला बनाचला मतवाला ॥धृ॥
शुंडादंडा प्रचंड बिराजत खंडरदन उजियाला ॥१॥
चारहस्ते चौगर्द बिराजें गल मोतनकी माला ॥२॥
सिंदूरमार धुरंधर पेहरे सुंदरलालहि लाला ॥३॥
निरंजन गुन गावत हारदम रघुविरगुरुका चेला ॥४॥

पद ४८
पैठा है सब घटघट म्याने एकहि अंदरवाला रे ॥
उनकू खुबतर्‍हेसे समजे सो जोगींदर बाला रे ॥धृ०॥
नहि काला नहि पीला सफेद नहि लाल और नीलारे ॥
चंद्रसुरज आगन बिन उनका बनारह्या उजियालारे ॥१॥
नहि छोटा नहि मोठा उंच्या नहि लंबा और चौडारे ॥
नहि जाता नहि आता सोता नहि बैठा और ठाडा रे ॥२॥
चिदाकाश औकाश बिना खुब बना रह्या भरपूरा रे ॥
नामरूप सब उनके ऊपर झूटा जगत् पसारा रे ॥३॥
फकत् निरंजन दूजेके बिन आपहि आप बिराजे रे ॥
श्रीरघुनाथ गुरुका दिय्या बिरला ऐसा बूझे रे ॥४॥

पद ४९
श्रीरघुविर गुरुचरन कमलपर बारबार बल जाऊ रे ॥धृ०॥
सद्गुरुनाथकु संय्या मेरो उनके गुणगन गाऊ रे ॥
चिंताखेद दिंगतर जाकर प्रेममुशारा पाऊं रे ॥१॥
जिनके कृपासलिसो मेरो सबहीं पातक धोया रे ॥
वचनामृत श्रवन नशे पीकर अजरामरपद पायो रे ॥२॥
जीवभावना निकस गई अब व्रह्मभावबन आयो रे ।
दु:ख दैन्य सब दूर दुरायो निजसुखसे अब धायो रे ॥३॥
नीरंजनपर गुरु कृपा खुब बनत बनत बन आई रे
आजकालकी नही तपस्या पूरबजनम कमाई रे ॥४॥

पद ५०
माया के प्रभु सबही जगत नकेश्वर ।
तुमहो चंद्र दिवाकर सुरनर मुनि किन्नर ।
यौकर अरोप तुमपर झूटी सब माया ।
जैशी जलके भीतर बरखन की छाया ॥१॥
जै जै जि दत्तगुरु सच्चित सुखराशी ।
मन मे रोबल हरि तुमपर अबिनाशी ॥धृ॥
तुमसे बेद बखानत पारन कछुपाये ।
शब्दनकी गती त्यजकर पाछेफिर आये ।
मन पवनकी गती नही सबसो तुम न्यारे ।
शुकसनकादिक मुनिजन उनसे तुम प्यारे ॥२॥
निर्गूण निर्मल निश्चल भरपूर सबमायी ।
भूमा अमंत बव्हि पाराबार नही ।
तुम हो अखंड अद्वय तुमबिन नही कोही ।
मयातीत निरंजन तुम रघुविर साई ॥३॥
॥ श्री दिगंबरार्पणस्तु ॥

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Last Updated : November 25, 2016

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