दुनियाँ भरम भूल बोराई ।
आतमराम सकल घट भीतर जाकी सुद्ध न पाई ॥
मथुरा कासी जाय द्वारिका, अरसठ तीरथ न्हावै ।
सतगुरु बिन सोधा नहिं कोई, फिर-फिर गोता खावै ॥
चेतन मूरत जड़को सेवै बड़ा थूल मत गैला ॥
देह-अचार किया कहा होई, भीतर है मन मैला ।
जप-तप-संजम काया-कसनी, सांख्य जोगब्रत दाना ॥
यातं नहीं ब्रह्मसे मेला, गुनहर करम बँधाना ॥
बकता ह्वै ह्वै कथा सुनावै, स्त्रोता सुन घर आवै ।
ज्ञान ध्यानकी समझ न कोई, कह-सुन जनम गँवावै ॥
जन दरिया, यह बड़ा अचंभा, कहे न समझै कोई ।
भेड़-पूँछ गहि सागर लाँघै, निस्चय डूबै सोई ॥