ऐसा साधू करम दहै ॥
अपना राम कबहुँ नहिं बिसरै, बुरी-भली सब सीस सहै ।
हस्ती चलै भूकै बहु कूकर, ताका औगुन उर न गहै;
वाकी कबहूँ मन नहिं आनै, निराकारकी ओट रहै ।
धनको पाय भया धनवन्ता, निरधन मिल उन बुरा कहै;
वाकी कबहुँ न मनमें लावै, अपने धन सँग जाय रहै ॥
पतिको पाय भई पतिबरता, बहु बिभचारिन हाँसि करै;
वाकै संग कबहुँ नहिं जावै, पतिसे मिलकर चिता जरै ।
'दरिया' राम भजै सो साधू, जगत भेष उपहास करै;
वाको दोष न अन्तर आनै, चढ़ नाम-जहाज भव-सिन्धु तरै ॥