साधो, राम अनूपम बानी ।
पूरा मिला तो वह पद पाया, मिट गई खैंचातानी ॥
मूल चाँप दृढ़ आसन बैठा, ध्यान धनीसे लाया ।
उलटा नाद कँवलके मारग, गगना माहिं समाया ॥
गुरुके सब्दकी कूंजी सेती, अनंत कोठरी खोली ।
ध्रू के लोकपै कलस बिराजै, ररंकार धुन बोली ॥
बसत अगाध अगम सुख-सागर, देख सुरत बौराई ।
बस्तु घनी, पर बरतन ओछा, उलट अपूठी आई ॥
सुरत सब्द मिल परचा हुआ, मेरु मद्धका पाया ।
तामें पैसा गगनमें आया, जायके अलख लखाया ॥
पण बिन पातुर, कर बिन बाजा, बिन मुख गावैं नारी ।
बिन बादल जहँ मेहा बरसै, ढुमक-ढुमक सुख क्यारी ॥
जन दरियाव, प्रेम गुन गाया, वह मेरा अरट चलाया ।
मेरुदंड होय नाल चली है, गगन-बाग जहँ पाया ॥