॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
हिन्दू-संस्कृति बहुत विलक्षण है । इसके सभी सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य मनुष्यमात्रका कल्याण करना है और उनका एकमात्र उद्देश्य मनुष्यमात्रका कल्याण करना है । मनुष्यमात्रका सुगमतासे एवं शीघ्रतासे कल्याण कैसे हो - इसका जितना गम्भीर विचार हिन्दू-संस्कृतिमें किया गया हैं, उतना अन्यत्र नहीं मिलता । जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन - जिन वस्तुओं एवं व्यक्तियोंके सम्पर्कमें आता है और जो-जो क्रियाऍं करता है, उन सबको हमारे क्रान्तदशीं ॠषि-मुनियोंने बडे वैज्ञानिक ढंगसे सुनियोजित , मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है और उन सबका पर्यवसान परम श्रेयकी प्राप्तिमें किया है । इतना ही नहीं , मनुष्य अपने निवासके लिये भवन - निर्माण करता है तो उसको भी वास्तुशास्त्रके द्वारा मर्यादित किया है ! वास्तुशास्त्रका उद्देश्य भी मनुष्यको कल्याण - मार्गमें लगाना है -
'वास्तुशास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया'
( विश्वकर्मप्रकाश) । शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार चलनेसे अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरणमें ही कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होती है ।
'वास्तु' शब्दका अर्थ है - निवास करना ( वस निवासे ) । जिस भूमिपर मनुष्य निवास करते हैं, उसे 'वास्तु' कहा जाता है । कुछ वर्षोसे लोगोंका ध्यान वास्तुविद्याकी ओर गया है । प्राचीनकालमें विद्यार्थी गुरुकुलमें रहकर चौंसष्ठ कलाओं ( विद्याओं ) - की शिक्षा प्राप्त करते थे, जिनमें वास्तुविद्या भी सम्मिलित थी । हमारे प्राचीन ग्रन्थोंमें ऐसी न जाने कितनी विद्याएऍ छिपी पड़ी हैं , जिनकी तरफ अभी लोगोंका ध्यान नहीं गया है ! सनत्कुमारजीके पूछनेपर नारदजीने कहा था -
ॠग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुवेंद सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्य राशि दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवाविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्यमि ॥ ( छान्दोग्योपनिषद् ७ / १ / २ )
'भगवन् ! मुझे ॠग्वेद, यजुवेंद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद याद है । इनके सिवाय इतिहास - पुराणरुप पाँचवाँ वेद, वेदोंका वेद ( व्याकरण ), श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देवजनविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या और देवजनविद्या - हे भगवन् ! यह सब में जातना हुँ ।'
भारतकी अनेक विलक्षण विद्याऍं आज लुप्त हो चुकी हैं और उनको जाननेवालोंका भी अभाव हो गया हैं । किसी समय यह देह भौतिक और आध्यात्मिक - दोनों दृष्टियोंसे बहुत उन्नत था, पर आज यह दयनीय स्थितिमें हैं !
सवें क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥
( महा० आश्व० ४४।१९; वाल्मीकि० २।१०५।१६ )
' समस्त संग्रहोंका अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियोंका अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है ।'
लोगोंकी ऐसी धारणा है कि पहले कभी पाषाणयुग था, आदमी जंगलोंमें रहता था और धीरे-धीरे विकास होते - होते अब मनुष्य वैज्ञानिक उन्नतिके इस युगमें आ गया है । परन्तु वास्तवमें वैज्ञानिक उन्नति पहले कई बार अपने शिखरपर पहुंचकर नष्ट हो चुकी है ! पाषाणयुग पहले कई बार आकर जा चुका है और आगे भी पुनः आयेगा ! यह सृष्टिचक्र है । इसमें चक्रकी तरह सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि - ये चारों युग दिनरात्रिवत् बार - बार आते हैं और चले जाते हैं । समय पाकर विद्याऍं लुप्त और प्रकट होती रहती हैं । गीतामें भी भगवान्ने कहा है -
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
( ४।२ - ३ )
' हे परन्तप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्मयोगको राजर्षियोंने जाना; परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यालोकमें लुप्तप्राय हो गया । तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है ।'
कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि वास्तुशास्त्रके अनुसार मकान बनानेमात्रसे हम सब दुःखोंसे, कष्टोंसे छूट जायगे, हमें शान्ति मिल जायगी । वास्तवमें ऐसी बात है नहीं ! जिनका मकान वास्तुशास्त्रके अनुसार बना हुआ है, वे भी कष्ट पाते देखे जाते हैं । शान्ति तो कामना - ममताके त्यागसे ही मिलेगी -
' स शान्तिमाप्रोनि न कामकामी ' ( गीता २।७० )
' निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ' ( गीता २।७१ )
' त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ' ( गीता १२।१२ )
एक श्लोक आता है -
वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकाराञ्ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति ।
भूताभिषङ्र इति भूतविदो वदन्ति प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति ॥
' रोगोंकि उत्पन्न होनेमें वैद्यलोग कफ, पित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैं, प्रेतविद्यावाले भूत - प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं; परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् ( कारण ) मानते हैं ।'
तात्पर्य है कि अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितीके आनेमें मूल कारण प्रारब्ध है । प्रारब्ध अनुकूल हो तो कफ - पित्त - वात, ग्रह आदि भी अनुकूल हो जाते है और प्रारब्ध प्रतिकूल होतो वे सब भी प्रतिकूल हो जाते हैं । यही बात वास्तुके विषयमें भी समझनी चाहिये । देखनेमें भी ऐसा आता है कि जिसे वास्तुशास्त्रका ज्ञान ही नहीं है, उनका मकान भी स्वतः वास्तुशास्त्रके अनुसार बन जाता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ प्रारब्धपर छोड़कर बैठ जाय ! हमारा कर्तव्य शास्त्रकी आज्ञाका पालन करना है और प्रारब्धके अनुसार जो परिस्थिति मिले, उसमें सन्तुष्ट रहना है । प्रारब्धका उपयोग केवल अपनी चिन्ता मिटानेमें है । ' करने ' का क्षेत्र अलग है और ' होने ' का क्षेत्र अलग है । ' करना ' हमारे हाथमें ( वशमें ) है, ' होना ' हमारे हाथमें नहीं हैं । इसलिये हमें ' करने ' में सावधान और ' होने ' में प्रसन्न रहना है । गीतामें भगवान्ने कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूमां ते सङ्रोऽसत्वकर्मणि ॥
( २।४७ )
' कर्तव्य - कर्म करनेमें ही तेरा अधिका है, फलोंमें कधी नहीं । अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न म करनेमें भी आसक्ति न हो ।'
तंस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
( गीता १६।२४)
'अतः तेरे लिये कर्तव्य - अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है - ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य - कर्म करनेयोग्य है, अर्थात् तुझे शास्त्रविधिके अनुसार कर्तव्य - कर्म करने चाहिये ।'
वास्तुविद्याके अनुसार मकान बनानेसे कुवास्तुजनित कष्ट तो दूर हो जाते है, पर प्रारब्धजनित कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं । जैसे - औषध लेनेसे कुपथ्यजन्य रोग तो मिट जाता है, पर प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटता । वह तो प्रारब्धका भोग पूरा होनेपर ही मिटता है । परन्तु इस बातका ज्ञान होना कठिन है कि कौन - सा रोग कुपथ्यजन्य है और कौन - सा प्रारब्धजन्य ? इसलिये हमारा कर्तव्य यही है कि रोग होनेपर हम उसकी चिकित्सा करें, उसको मिटानेका उपाय करें । इसी तरह कुवास्तुजनित दोषको दूर करना भी हमारा कर्तव्य है ।
वास्तुविद्या बहुत प्राचीन विद्या है । विश्वके प्राचीनतम ग्रन्थ ' ॠग्वेद ' में भी इसका उल्लेख मिलता है । इस विद्याके अधिकांश ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं और जो मिलते है, उनमें भी परस्पर मतभेद हैं । वास्तुविद्याके गृह - वास्तु , प्रासाद - वास्तु, नगर - वास्तु, पुर - वास्तु, दुर्ग - वास्तु आदि अनेक भेद हैं ।