अठारहवाँ अध्याय
गृहके विविध उपकरण
दरवाजे -
( १ ) घरके द्वार परिमाणसे अधिक ऊँचे होनेपर राजभय तथा रोग होता है, और अधिक नीचे होनेपर चोरभय, दुःख तथा धनकी हानि होती है । द्वारके ऊपर द्वार यमराजका मुख कहलाता है ।
( २ ) एक दरवाजेके ऊपर यदि दूसरा दरवाजा बनाना हो तो उसे नीचेके दरवाजेकी अपेक्षा छोटा बनाना चाहिये ।
सभी दरवाजोंका शीर्ष एक सीधमें होना उत्तम है ।
( ३ ) नीचेके द्वारसे ऊपरक द्वार द्वादशांश छोटा होना चाहिये । नीचेके महलसे ऊपरके महलकी ऊँचाई द्वादशांश कम होनी चाहिये ।
( ४ ) जिस घरके आगे और पीछेकी दोनीं दीवारोंके दरवाजे आपसमें विद्ध होते हैं, वह गृहस्वामीके लिये अशुभ फल देनेवाला होता है । वहाँपर स्थापित किसी भी वस्तुकी वृद्धि नहीं होती ।
( ५ ) घरके मध्यमभागमें द्वार नहीं बनाना चाहिये । मध्यमें द्वार बनानेसे कुलका नाश, धन - धान्यका नाश, स्त्रीके लिये दोष तथा लडा़ई - झगडा़ होता है ।
( ६ ) द्वारके ऊपर द्वार और द्वारके सामने ( आमने - सामने ) - का द्वार व्यय करनेवाला और दरिद्रताकारक होता है ।
सीढ़ियाँ -
सीढ़ीके ऊपरका दरवाजा पूर्व या दक्षिणकी ओर शुभदायक होता है । सीढ़ी मकानके पश्चिम या उत्तर भागमें होनी चाहिये । दक्षिणावर्ती सीढ़ीयाँ शुभ होती हैं ।
सीढ़ीयाँ ( पग ) , खम्भे, शहतीर, दरवाजे, खिड़कियाँ आदिकी कुल संख्याको तीनसे भाग देनेपर यदि एक शेष बचे तो ' इन्द्र ', दो शेष बचे तो ' काल ' ( यम ) और तीन शेष बचे तो ' राजा ' संज्ञा होती है । ' काल ' आनेपर संख्या अशुभ समझनी चाहिये । दूसरे शब्दोंमें, सीढ़ीयों आदिकी ' इन्द्र - काल - राजा ' - इस क्रमसे गणना करे । यदि अन्तमें ' काल ' आये तो अशुभ है ।
स्तम्भ -
घरके खम्भे सम - संख्यामें होनेपर ही उत्तम कहे गये हैं, विषम संख्यामें नहीं ।
प्रदक्षिण - क्रमके बिना स्थापित किये गये स्तम्भ भयदायक होते हैं ।
चित्र -
निम्रलिखित चित्र घरकी दीवार आदिमें नहीं लगाने चाहिये और न किवाड़ आदिमें अंकित कराने चाहिये -
सिंह, सियार, सूअर, साँप, गिद्ध, उल्लू, कबूतर, कौआ, बाज, बगुला, गोह, बन्दर, ऊँट, बिल्ली आदके चित्र । मांसभक्षी पशु - पक्षियोंके चित्र । रामायण, महाभारत आदिके युद्धके चित्र । खड्गयुद्धके चित्र । इन्द्रजालिक चित्र । राक्षसों, भूत - प्रेतोंके भयड्कर चित्र । रोते हुए मनुष्यके चित्र - ये सभी चित्र अशुभ फलदायक हैं ।
इतिहास और पुराणोंमें कहे गये वृत्तान्तोंके प्रतिरुपक चित्र गृहमें निन्दित हैं । ये मन्दिरमें ही होने चाहिये । इन्द्रजालके समान झूठे तथा भीषण प्रतिरुपक भी घरमें नहीं बनाने चाहिये ।
( समराङ्रण० ३८। ७१-७२ )
दीवार -
( १ ) घरकी चौडा़ईके सोलहवें भागके बराबर दीवार बनानी चाहिये । परन्तु यह नियम ईंटकी दीवारके लिये है ।
( २ ) नई ईंटके साथ पुरानी ईंट और कच्ची ईंटके साथ पक्की ईंट नहीं लगानी चाहिये । यदि लगाना अनिवार्य हो तो पुरानी या कच्ची ईंटको नीचे लगाकर उसके ऊपर नयी या पक्की ईंट लगाये । फिर पुरानी या कच्ची ईंट लगाकर नयी या पक्की ईंट लगाये । इस क्रमसे दोनों प्रकारकी ईंट लगायी जा सकती है ।
( ३ ) जो दीवार ऊपरसे भारी तथा नीचेसे हलकी हो, जिसमें गारा कहीं कम तथा कहीं अधिक लगा हो, जो कहीं मोटी तथा कहीं पतली हो, जिसमें जोड़की रेखा प्रतीत होती हो, वह धनकी हानि करनेवाली होती है ।
( ४ ) दीवार चुननेपर यदि पूर्वकी दीवार बाहर निकल जाय तो गृहस्वामीके लिये तीव्र राजद्ण्ड - भय होता है ।
दक्षिणकी दीवार बाहर निकल जाय तो व्याधि और राजदण्ड - भय होता है ।
पश्चिमकी दीवार बाहर निकल जाय तो धनहानि एवं चोर - भय होता है ।
उत्तरकी दीवार बाहर निकल जाय तो गृहस्वामी एवं मिस्त्रीपर संकट आता है ।
ईशानकी दीवार बाहर निकल जाय तो गाय - बैल और गुरुजनोंका नाश होता है ।
आग्नेयकी दीवार बाहर निकल जाय तो भीषण अग्निभय तथा गृहस्वामीके लिये प्राणसंकटकी स्थिति आती है ।
नैऋत्य की दीवार बाहर निकल जाय तो कलह आदि उपद्रव एवं पत्नीपर संकट आता है ।
वायव्यकी दीवार बाहर निकल जाय तो वाहन, पुत्र एवं नौकरोंके लिये उपद्रव उत्पन्न होता है ।