चौदहवाँ अध्याय
गृह - निर्माणकी सामग्री
( १ ) ईंट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी - ये नये मकानमें नये ही लगाने चाहिये ।
( २ ) नये मकानमें पुरानी लकड़ी नहीं लगानी चाहिये । एक मकानमें उपयोग की गयी लकड़ी दूसरे मकानमें लगानेसे सम्पत्तिका नाश एवं अशान्तिकी प्राप्ति होती है । ऐसे मकानमें गृहस्वामी रह नहीं पाता, यदि रहता है तो उसकी मृत्यु होती है ।
( ३ ) मकानमें एक, दो या तीन जातिकी लकड़ी लगानी चाहिये । एक जातिकी लकड़ी उत्तम, दो जातिकी मध्यम और तीन जातिकी अधम होती है ।
( ४ ) एक, दो या तीन प्रकारके काष्ठोंसे बनाया घर शुभ होता है । इससे अधिक प्रकारके काष्ठोंसे बनाया घर अनेक भय देनेवाला होता है ।
( ५ ) नया द्वार पुराने द्वारसे संयुक्त होनेपर दुसरे स्वामीकी इच्छा करता है । नया द्रव्य पुराने द्र्व्यसे संयुक्त होनेपर कलिकारक ( कलह करानेवाला ) होता है । मिश्रजातिके द्रव्यसे निर्मित द्वार या घर अशुभ होता है ।
एक वास्तुसे निकाला गया द्रव्य दूसरे वास्तुमें प्रयुक्त नहीं करना चाहिये । ऐसा करनेपर देवमन्दिरमें पूजा नहीं होती और गृहमें गृहस्वामी नहीं बस पाता ।
देव - दग्ध ( अग्निसे जले ) द्रव्यसे जो भवन बनाया जाता है, उसमें गृहस्वामी निवास नहीं कर पाता और यदि निवास करता है तो नाशको प्राप्त होता है । ( समरांगणसूत्रधार ३८।़ ६०-६४ )
( ६ ) त्याज्य वृक्ष - दूधवाले, काँटेवाले, पुष्पोंवाले, रस बहानेवाले, पक्षियोंके घोंसलेवाले, उल्लुओंके वास, मांसाहारी पक्षियोंसे दूषित, मधुमक्खियोंके छत्तेसे युक्त, सर्पके वास, चींटियोंसे आच्छादित, मकड़ीके जालोंसे ढके, भूत - प्रेतोंके वास, दीमक लगे हुए, गाँठोंसे युक्त, कोटरवाले, गड्ढेसे ढके हुए, रोगोंसे युक्त, जिनका आधा भाग सूख गया हो या टूट गया हो, एक - दो शाखावले, बिजली और आँधीसे गिरे हुए, जले हुए, हाथी आदि जानवरोंसे राँदे हुए, समाधि - स्थलमें लगे हुए, देवमन्दिरमें लगे हुए, आश्रममें लगे हुए, नदियोंके संगमपर स्थित, श्मशानभूमिमें लगे हुए , जलाशय ( तालाब आदि ) - पर लगे हुए, खेतमें लगे हुए, चौराहे, तिराहे या मार्गपर लगे हुए - इन वृक्षोंकी लकड़ी गृहनिर्माणके काममें नहीं लेनी चाहिये ।
( ७ ) पीपल, कदम्ब , नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, सेहुड, वट रीठा, लिसोड़ा, कैथ, इमली, सहिजन, ताल, शिरीष, कोविदार, बबूल और सेमल - इन वृक्षोंकी लकड़ी अशुभ फल देनेवाली है ।
( ८ ) ग्राह्य वृक्ष - अशोक, महुआ, साखू, असना, चन्दन, देवदारु, शीशम, श्रीपर्णी, तिन्दुकी, कटहल, खदिर, अर्जुन, शाल और शमी - इन वृक्षोंकी लकड़ी शुभ फल देनेवाली है ।
( ९ ) धनदायक शीशम, श्रीपर्णी तथा तिन्दुकीके काष्ठको अकेले ही लगायें । अन्य किसी काष्ठके साथ सम्मिलित करनेपर ये मंगलकारी नहीं होते । इसी तरह धव, कटहल, चीड़, अर्जुन, पद्म वृक्ष बी अन्य काष्ठोंके साथ सम्मिलित होनेपर गृहकार्यके लिये शुभदायक नहीं होते ।
( १० ) शहतीर, चौखट, दरवाजे - खिड़कियाँ, खूँटी, फर्नीचर आदिके निर्माणमें निषिद्ध ( त्याज्य ) वृक्षोंकी लकड़ी काममें नहीं लेनी चाहिये ।
( ११ ) शय्या ( पलंग ) - के निर्माणमें श्रीपणीं धनदायक, आसन रोगनाशक, शीशम वृद्धिकारक, सागवान कल्याणकारक, पद्मक आयुप्रद, चन्दन शत्रुनाशक एवं सुखदायक और शिरीष श्रेष्ठ है ।
( १२ ) काष्ठको कृष्णपक्षमें काटना चाहिये । शुक्लपक्षमें नहीं काटना चाहिये ।
( १३ ) जिस वृक्षको काटना हो, उसके निमित्त रातमें पूजा और बलि ( नैऋत्यवेद्य ) देकर प्रातः ईशानकोणसे प्रदक्षिण - क्रमसे उसको काटे । यदि वृक्ष कटकर पूर्व, उत्तर या ईशानमें गिरे तो शुभ है, अन्य दिशामें गिरे तो अशुभ है ।
( १४ ) वृक्ष कटनेपर यदि पूर्व दिशामें गिरे तो धन - धान्यकी वृद्धि होती है । आग्नेयमें गिरे तो अग्निभय, दक्षिणमें गिरे तो मृत्यु, नैऋत्य गिरे तो कलह, पश्चिममें गिरे तो पशुवृद्धि, वायव्यमें गिरे तो चोर - भय , उत्तरमें गिरे तो धनकी प्राप्ति और ईशानमें गिरे तो अतिश्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ।
( १५ ) पत्थरका प्रयोग - वर्तमानमें घरोंमे पत्थरका प्रयोग आधिक किया जाने लगा हैं; परन्तु वास्तुशास्त्रमें इसका प्रयोग निषिद्ध है । उदाहरणार्थ -
पाषाणतः सौख्यकरा नृपाणां धनक्षयं सोऽपि करोति गेहे ॥
( वास्तुराज० ९। १३ )
' पाषाण - पट्ट ( पत्थरके पटरे ) राजाओंके महलमें सुखदायी होते हैं , पर दूसरेके धरमें धनका नाश करते हैं ।'
प्रासादे च मठे नरेन्द्रभवने शैलः शुभो नो गृहे ।
तस्मिन् भित्तिषू बाह्यकासु शुभदः प्राग्भूमिकुम्भ्यां तथा ॥
( वास्तुराज० ५।३६)
' मन्दिर, राजमहल और मठमें पत्थर शुभदायक है, पर साधारण घरमे पत्थर शुभ नहीं है । परन्तु दीवारसे बाहर लगानेमें हानि नहीं ।'
ब्रह्मवैवर्तपुराणमें भगवान् श्रीकृष्णके वचन हैं -
वृक्षञ्च भूधरो वर्जयेद् बुधः ॥
पुत्रदारधनं हन्यादित्याह कमलोद्भवः ।
( श्रीकृष्णजन्म० १०३ । ७२-७३ )
' बुद्धिमान् पुरुषको लकड़ी, वज्रहस्त तथा शिलाका उपयोग न करना ही उचित है; क्योंकि ये स्त्री, पुत्र और धनका नाश करनेवाले होते हैं - ऐसा कमलजन्मा ब्रह्माका कथन है ।'