कण्व n. एक गोत्रपवर्तक तथा सूक्तद्रष्टा । घोर के कण्व तथा प्रगाथ नाम के दो पुत्र थे । बन में एक बार प्रगाथ ने कण्व की स्त्री को छेदा । इसलिये कण्व शाप देने लगा । तब प्रगाथ ने इन्हें माता एवं पिता माना । कालांतर में इसके वंशजों ने ऋग्वेद वा आठवॉं मंडल तैयार किया
[बृहद्दे.६.३५-३९] । कण्व शब्द का अर्थ सुखमय होता है (नीलकंठ टीका) । यह यदुतुर्वश का पुरोहित रहा होगा क्यों कि, कण्वकुलोत्पन्न देवातिथि इंद्र से प्रार्थना करता है कि यदु तथा तुर्वश तुम्हारी कृपा से मुझे सदैव सुखी दिखाई दें
[ऋ. ८.४.७] । इस पुरातन ऋषि कण्व का ऋग्वेद तथा इतरत्र बार बार उल्लेख आता है
[ऋ.१.३६.८] ;
[आदि. १०.११] ;
[अ. वे.७.१५. १, १८. ३.१५] ;
[वा. सं १७. ७४] ;
[पं. ब्रा. ८.१.१, ९.२.६] ;
[सां. ब्रा. २८.८] । इसके पुत्र तथा वंशजो का नाम बारबार आता है । यह सूक्तद्रष्टा था
[ऋ. १.३६-४३,८, ९,९४] । अंगिरसकुल में कण्व मंत्रकार थे । कण्व का वंशज उसके अकेले के कण्व नाम से
[ऋ.१.४४.८,४६.९,४७.१०,४८.४,८.४३.१] तथा पैतृकनामसहित, जैसे कण्व नार्षद
[ऋ.१.११७.८] ;
[अ. वे. ४.१९.२] तथा कण्व श्रायस
[तै सं. ५.४.७.५] ;
[क.सं.२१.८] ;
[मै. सं ३.३.९] ऐसा संबोधित है । इसके अतिरिक्त इसका अनेकवचनी (बहुवचन) उल्लेख कण्वा; सौश्रवसाः नाम से होता है
[क.सं. १३.१२] ;
[सां श्रौ. १६.११.२०] । अथर्ववेद के
[अ. वे. २.२५] एक उद्धरण से प्रतीत होता है कि, उनसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाता था । क्षत्रियों के गायत्रीमंत्र में कण्व ने, सूर्य से प्राप्त की विश्वकल्याणकारक सद्बुद्धि हमें मिले, ऐसा उल्लेख मिलता है
[वा.सं. १७.७४] । ऋग्वेद में
[ऋ. १.११९.८] निम्नलिखित कथा एक कण्व के संबंध में आयी है । ब्राह्मणत्व की परीक्षा लेने के लिये असुरों ने कण्व को, अंधकारमय स्थान पर रख कर कहा कि, तुम यदि ब्राह्मण होगे तो, उषःकाल कब होगा, पहचानोगे । इसे अश्वियों ने आकर बताया कि, जिस समय उषःकाल होगा उस समय हम लोग वीणावादन करते हुए आयेंगे । उस शब्द के सुन कर तुम कह देना कि उषःकाल हो गया है । विष्णु मतानुसार यह ब्रह्मरात तथा भागवत मतानुसार देवराज के पुत्र याज्ञवल्क्य के पंद्रह शिष्यों में से एक था (व्यास देखिये) । आगे चल कर इसने यजुर्वेद में कण्व शाखा स्थापित कर उसके ग्रंथ निर्माण किये
[भा. १२.६] । वे ग्रंथ बहुत सी बातों में याज्ञवल्क्य के विरुद्ध है । कण्व अंगिरस गोत्रोत्पन्न है तथा इनका कुल पूरुओं से उत्पन्न हुआ । कुछ स्थानों पर मतिनार पुत्र अप्रतिथ से यह उत्पन्न हुआ
[ह. वं. १.३२] ;
[विष्णु.४.१९] ऐसा मिलता है, परंतु कुछ अन्य स्थानों पर कण्व को अजमीढपुत्र कहा गया है
[वायु. ९९.१६९-१७० कण्ठ] ;
[मत्स्य.४९] । पीढियों की दृष्टि से इन दोनों में काफी भेद है । विष्णु पुराण में दोनों वंश दिये गये है । प्रगाथ काण्व दुर्गह के नातियों का समकालीन था
[ऋ. ८.६५.१२] ; दुर्गह देखिये । कण्व वंश की वंशावलि बहुत से स्थानों पर मिलती है
[मत्स्य.५०] ;
[ह. वं. १.३२] ;
[भा.९.२१] ; प्ररकण्व तथा मेघातिथि देखिये । कण्व गोत्र गोत्रियों को दक्षिणा नहीं देनी चाहिये, ऐसा
[स. श्रौ. १०.४] में दिया गया है । क्यों कि गोपीनाथ भटट ने भाष्य में “कण्वं तु बधिरं विद्यात्” ऐसा कहा है, परंतु उसे भी यह जँचा नहीं । ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ में यह था
[पद्म. सृ ३४] ।
कण्व n. एक धर्मशास्त्रकार । आपस्तंब ने प्रथम “किसका अन्न ग्राह्य है?’ ऐसी शंका उद्धृत कर, उसके समाधान के लिये कण्व के ग्रंथ का उद्धरण दिया है ‘किसी ने भी आदर से दिया हुआ अन्न ग्राह्य है’
[आप.थ. १.६.१९.२-३] । कण्व के ग्रंथ के बहुत से उद्धरण स्मृतिचंद्रिका में (आन्हिक तथा श्राद्ध के संबंध से) लिये गये है । उसी तरह मिताक्षरा नामक ग्रंथ में कण्व के ग्रंथ के बहुत से उद्धरण लिये गये हैं।
[मिता.३.५८,१३.६०] । इनके ग्रंथ निम्नलिखित है । (१) कण्वनीति, (२) कण्वसंहिता (३) कण्वोपनिषद् (४) कण्वस्मृति । कण्वस्मृति का उल्लेख हेमाद्रि, मध्वाचार्य आदि ने किया हैं (C.C.) ।
कण्व II. n. कश्यगोत्रोत्पन्न एक ऋषि । इसके पिता मेधातिथि
[म.अनु.२५५.३१ कुं.] । इसका आश्रम मालिनी नदी के तट पर था । इसने शकुंतला का पालन पोषण बडे प्रेम से किया था । एक बार यह बाहर गया था, तब दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्वविवाह किया । इसने वापस आकर उसे योग्य कह कर उस विवाह की पुष्टि की
[म.आ.६४.६८] ;
[भा.९.२०] । इसने दुर्योधन को मातलि की कथा बतायी । यह बोधप्रद कथा सुन कर भी जब उसने एक न सुनी, तब इसने शाप दिया कि, तेरी जंघा फोडने से तेरी मृत्यु होगी
[म. उ.९५.१०३. कुं] । काल की दृष्टि से यह कथा किसी अन्य कण्व की होगी । यह गौतम के आश्रम में गया था । वहॉं की समृद्धि देख कर वैसी ही समृद्धि प्राप्त होवे इसलिये इसने तपस्या की। गंगा तथा क्षुधा को प्रसन्न किया । उसने आयुष्य, द्रव्य, भुक्तिमुक्ति की मांग की । वह तथा उसके वंशज कभी क्षुघापीडित न हों, ऐसा वर मांगा । वह उसे मिला भी । जहॉं उसने तप किया था उस तीर्थ का नाम आगे चल कर कण्वतीर्थ पडा
[ब्रह्म.८५] । भरत के यज्ञ में यह मुख्य उपाध्याय था
[म.आ.६९.४८] । इसे भरत ने एक हजार पद्मभार शुद्ध जम्बूनद स्वर्ण
[म. द्रो. परि. १.८. पंक्ति.७५०-७५१] तथा एक हजार पद्म घोडे
[म.शां.२९.४०] दक्षिण में दिये । भरत के यज्ञ के समय यह अथवा इसका पुत्र रहने की संभावना है । इसका पुत्र बाह्रीक (काण्व) था
[ब्रह्म. १४८] ।
कण्व III. n. कश्यप का पुत्र । कलियुग शुरु हो कर एक हजार वर्षो के बाद इसने भरतभूमि में जन्म लिया । उसकी पत्नी देवकन्या आर्यावती थी । उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुल्क, मिश्र अग्निहोत्री, द्विवेदी, त्रिवेदी, पांडव, चतुर्वेदी इसके पुत्रों के नाम है । कण्व ने अपनी संस्कृत वाणी से मिश्र देश के दस हजार म्लेच्छों को वश में किया । इन बन हुए म्लेच्छों के दो हजार वैश्यों में से कश्यप सेवक पृथु को कण्व ने क्षत्रिय बना कर राजपुत्रनगर दिया
[भवि वि. प्रति. ४.२१] ।