पराशर n. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, स्मृतिकार, एवं ‘आयुर्वेद’ तथा ‘ज्योतिषशास्त्र’ के पवर्तक ऋषिओं में से एक । यह वसिष्ठ ऋषि का पौत्र, एवं शक्ति ऋषि का पुत्र था । यह शक्ति ऋषि के द्वारा ‘अदृश्यन्ती’ के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । इसलिये इसे पराशर ‘शाक्त्य’ कहते थे । वसिष्ठ का भाई शतयातु ऋषि इसका चाचा था । इसके कुल तीन भाई थे । उनके नामः
पराशर n. फिर भी पराशर का राक्षसों के प्रति क्रोध शाबित न हुआ । आबालवृद्ध राक्षसों को मार डालने के लिये, इसने महाप्रचंड ‘राक्षससत्र’ का आयोजन किया । राक्षसों के प्रति वसिष्ठ भी पहले से क्रुद्ध था । इस कारण, पराशर के नये सत्र से वसिष्ठ ने न रोका । किंतु इसके ‘राक्षसस्त्र’ से अन्य ऋषियों में हलचल मच गयी । अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, महाक्रतु आदि ऋषियों ने स्वयं सत्र के स्थान आकर, पराशर को समझाने की कोशिश की । पुलस्त्य ऋषि ने कहा, ‘अनेक दृष्टि से राक्षस निरुपद्रवी एवं निरपराध है । अतः उनका वध करना उचित नहीं’। फिर वसिष्ठ ने भी पराशर को समझाया, एवं ‘राक्षससत्र’ बंद करने के लिये कहा । उसका कहना मान कर, पराशर ने अपना यज्ञ स्थगित किया । इस पुण्यकृत्य के कारण पुलस्त्य ने इसे वर दिया, ‘तुम सकल शास्त्रों में पारंगत, एवं पुराणों के ‘वक्ता’ बनोंगे
[विष्णु.१.१] । राक्षससत्र के लिये सिद्ध की अग्नि, पराशर ने हिमालय के उत्तर में स्थित एक अरण्य में झोंक दी । वह अग्नि ‘पर्वकाल’ के दिन, राक्षस, पाषाण एवं वृक्षों को भक्षण करती हुई आज भी दृष्टिगोचर होती है
[म.आ.१६९-१७०] ;
[विष्णु.१.१] ;
[लिंग१. ६४] ।
पराशर n. एक बार पराशर तीर्थयात्रा के लिये गया था । यमुना नदी के किनारे, उपरिचर वसु राजा की कन्या सत्यवती को इसने देखा । सत्यवती के शरीर में मछली जैसी दुर्गध आती थी । फिर भी उसके रुप यौवन पर मोहित हो कर पराशर ने उससे प्रेमयाचना की । पराशर के संभोग से अपना ‘कन्यभाव’ (कौमार्य) नष्ट होगा, ऐसी आशंका सत्यवती ने प्रकट की । फिर पराशर ने उसे आशीर्वाद दिया, ‘संभोग’ के बाद भी तुम कुमारी रहोगी, तुम्हारे शरीर से मछली की गंध (मत्स्य.गंध) लुप्त हो जायेगी और एक नयी सुगंध तुम्हे प्राप्त होगी, एवं वह सुगंध एक योजन तक फैल जायेगी । इसी कारण लोग तुम्हे ‘योजनगंधा’
[म.आ.५७.६३] । पश्चात् मनसोक्त एकांत का अनुभव लेने के लिये, पराशर ने सत्यवती के चारों ओर नीहार का पर्दा उत्पन्न किया । पराशर को सत्यवती से व्यास नामक एक पुत्र हुआ । यमुना नदी के द्वीप मे उसका जन्म होने के कारण, उसे ‘द्वैपायन’ व्यास कहते थे ।
[म.आ.५७.९९] ;
[भा १.३] । सत्यवती को ‘काली’ नामांतर भी प्राप्त था । उस काली का पुत्र होने के कारण, व्यास को ‘कृष्णद्वैपायन’ उपाधि प्राप्त हो गयी
[वयु.२.१०.८४] । प्रार्गिटर के अनुसार, प्राचीन काल में ‘पराशर शाक्त्य’ एवं ‘पराशर सागर’ नामक दो व्यक्ति वसिष्ठ के कुल में उत्पन्न हुए । उनमें से ‘पराशर शाक्त्य’ वैदिक् सुदास राजा के समकालीन वसिष्ठ ऋषि का पौत्र एवं शक्ति ऋषि का पुत्र था । दूसरा ‘पराशर सागर’ सगर वसिष्ठ का पुत्र, एवं कल्माषपाद तथा शंतनु राजा का समकालीन था । इन दो पराशरों में से ‘पराशर शाक्त्य’ ने राक्षससत्र किया था, एवं दूसरे पराशर ने सत्यवती से विवाह किया था
[पार्गि.२१८] । किंतु पार्गिटर के इस तर्कपरंपरा के लिये विश्वसनीय आधार उपलब्ध नहीं हैं । पौराणिक वंशावली में भी एक ‘शाक्तिपुत्र पराशर’ का ही केवल निर्देश प्राप्त है ।
पराशर n. एक आदरणीय ऋषि के नाते, महाभारत में पराशर का निर्देश अनेक बार किया गया है । इसने जनक को कल्याणप्राप्ति के साधनों का उपदेश दिया था
[म.अनु.२७९-२८७] । कालोपरांत वही उपदेश भीष्म ने युधिष्ठिर को बताया था । उसे ही ‘पराशरगीता’ कहते है । इसने युधिष्ठिर को ‘रुद्रमाहात्म्य’ कथन किया था
[म.अनु.४९] । इसने अपने शिष्यों को विविध ज्ञानपूर्ण उपदेश दिये थे
[म.अनु.९६.२१] । पराशर द्वारा किये गये ‘सावित्रीमंत्र’ का वर्णन भी महाभारत में प्राप्त है
[म.अनु.१५०] । परिक्षित राजा के प्रायोपवेशन के समय, पराशर गंगानदी के किनारे गया था
[भा.१.१९.९] । शरशय्या पर पडे हुए भीष्म को देखने के लिये यह कुरुक्षेत्र गया था
[म.शां.४७.६६] । इंद्रसभा में उपस्थित ऋषियों में भी, पराशर एक था
[म.स.७.९] ।
पराशर n. ब्रह्मा से ले, कर कृष्णद्वैपायन व्यास तक उत्पन्न हुए ३२ वेदव्यासों में से पराशर एक प्रमुख वेदव्यास था । जो ऋषिमुनि वैदिक संहिता का विभाजन या पुराणों को संक्षिप्त कर ले, उसे ‘वेदव्यास’ कहत थे । उन वेदव्यासों में ब्रह्मा, शक्ति, पराशर एवं कृष्णद्वैपायन व्यास प्रमुख माने जाते है ।
पराशर n. पराशर अठारह स्मृतिकारों में से एक प्रमुख था । इसकी ‘पराशरस्मृति’ एवं उसके उपर आधारित ‘बृहस्पराशर संहिता’ धर्मशास्त्र के प्रमुख ग्रंथों में गिने जाते हैं । पराशर के नाम पर निम्नलिखित धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ उपलब्ध हैः--- (१) पराशरस्मृति---यह स्मृति जीवानंद संग्रह (२.१-५२), एवं बॉंम्बे संस्कृत सिरीज में उपलब्ध है । डॉ. काणे के अनुसार, इस स्मृति का रचनाकाल १ ली शती एवं ५ वी शती के बीच का होगा । याज्ञवल्क्यस्मृति एवं गरुड पुराण में इस स्मृति के काफी उद्धरण एवं सारांश दिये गये हैं
[याज्ञ. १.४] ;
[गरुड.१. १०७] । इस स्मृति में कुल बारह अध्याय, एवं ५९२ श्लोक है । इस स्मृति की रचना कलियुग में धर्म के रक्षण करने के हेतु से की गयी है । कृतयुग के लिये ‘मनु-स्मृति’ त्रेतायुग के लिये ‘गौतमस्मृति’, द्वापारयुग के लिये ‘शंखलिखिस्मृति’, वैसे ही कलियुग के लिये ‘पराशरस्मृति’ की रचना की गयी (परा.१.२४) । मनुस्मृति गौतम स्मृति की अपेक्षा, पराशरस्मृति अधिक ‘प्रगतिशील’ प्रतीत होती है । उसमे ब्राह्मण व्यक्ति के शूद्र के घर भोजन करने की एवं विवाहित स्त्रियों को पुनर्विवाह करने की अनुमति दी गयी है । परचक्र, प्रवास, व्याधि एवं अन्य संकटी के समय, व्यक्ति ने सर्वप्रथम अपने शरीर का रक्षण करना आवश्यक है, उस समय धर्माधर्म की विशेष चिन्ता करने की जरुरत नहीं, ऐसा पराशर का कहना है (परा.७) । पुत्रों के प्रकार बताते समय, ‘औरस’ पुत्रों के साथ, ‘दत्तक, क्षेत्रज’ एवं ‘कृत्रिम’ इन पुत्रों का निर्देश पराशर ने किया है (रा.४.१४) । पति के मृत्यु के बाद, पत्नी का सती हो जाना आवश्यक है, ऐसा पराशर का कहना है (परा.४) । क्षत्रियोंकों के आचार, कर्तव्य एवं प्रायश्चित के बारे में भी, परशर ने महत्त्वपूर्ण विचार प्रगट किये है (परा.१.६-८) । ‘पराशरस्मृति’ में आचार्य मनु के मतों के उद्धरण अनेक बार लिये गये है (परा.१.४,८) । सभी शास्त्रों के जाननेवाले एक आचार्य के रुप में इसने मनु का निर्देश किया है । मनु के साथ उशनस् (१२.४९), प्रजापति (४.३,१३), तथा शंख (४.१५) । आदि धर्मशास्त्रकारों का भी इसने निर्देश किया है । वेद वेदांग, एवं धर्मशास्त्र के अन्य ग्रंथो का निर्देश एवं उद्धरण ‘पराशरस्मृति’ में प्राप्त है । अपने स्मृति के बारहवें अध्याय में इसने कुछ वैदिक मंत्र दिये हैं । उनमें से कई ऋग्वेद में एवं कई शुक्लयजुर्वेद में प्राप्त है । पराशर के राजधर्मविषयक मतों का उद्धरण कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक बार कहा है । ‘मिताक्षरा’ ‘अपरार्क’, ‘स्मृतिचंद्रिका’, ‘हेमाद्रि’ आदि अनेक ग्रंथों में पराशर के उद्धरण लिय गये हैं । विश्वरुप ने भी इसका कई बार निर्देश किया है
[याज्ञ. ३.१६,२१५७] । इससे स्पष्ट है की ९ वें शती के पूर्वार्ध में ‘पराशरस्मृति’ एक ‘प्रमाण ग्रंथ’ माना जाता था । (२) बृहत्पराशरसंहिता---यह स्मृति जीवानंद संग्रह में (२.५३-३०९) उपलब्ध हैं । ‘पराशरस्मृति’ के पुनर्संस्करण एवं परिवृद्धिकरण कर के इस ग्रंथ की रचना की गयी है । इस ग्रंथ में बारह अध्याय एवं ३३०० श्लोक हैं । पराशर परंपरा के सुव्रत नामक आचार्य ने इस ग्रंथ की रचना की है । यह ग्रंथ काफी उत्तरकालीन है । (३) वृद्धपराशर स्मृति---पराशर के इस स्वतंत्र स्मृतिग्रंथ का निर्देश अपरार्क
[याज्ञ. २.३१८] , एवं माधव (पराशर माधवीय.१.१.३२३०) । ने किया है । (४) ज्योति पराशर---इस ‘स्मृतिग्रंथ का निर्देश हेमाद्रि ने अपने ‘चतुर्वर्गचिंतामणी (३.२.४८) । में एवं भट्टोजी दिक्षित ने अपने ‘चर्तुविशांतिमत’ में किया है । (५) पराशर नितिशास्त्र---कौटिल्य ने इसका निर्देश किया है ।
पराशर n. सिद्धांत, होरा एवं संहिता इन तीन स्कंधो से युक्त ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक अठारह ऋषियों में पराशर प्रमुख था । ज्योतिषशास्त्रकार अठारह ऋषियों के नाम इस प्रकार है---सूर्य, पितामह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु, एवं शौनक (कश्यपसंहिता) । अपने ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथों में, पराशर ने ‘वसंत सपात’ स्थिति का निर्देश किया है । पराशर के ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ इस प्रकार हैः---(१) पराशरसंहिता---इस ग्रंथ में, पराशर ने ज्योतिषशास्त्र से संबंधित निम्नलिखित पूर्वाचार्यो का निर्देश किया हैः---ब्रह्म मायारुण, वसिष्ठ, मांडव्य, वामदेव । पराशर के ज्योतिषशास्त्रीय शिष्यों में, मैत्रेय एवं कौशिक प्रमुख थे । (२) बृहत्पाराशर होराशास्त्र---इस ग्रंथ में १२००० श्लोक हैं । (३) लघुपाराशरी (४) पाराशर्यकल्प---विमानविद्या पर महाग्रंथ, परशरपरंपरा के किसी व्यासने लिखा है ।
पराशर n. पराशर एक आयुर्वेदशास्त्रज्ञ मी था । यह अग्निवेश, मेल, काश्यप एवं खण्डकाप्य इन आयुर्वेदाचार्यो से समकालीन था । पराशर के नाम पर निम्नलिखित आयुर्वेदीय ग्रंथ प्राप्त हैः--(१) परशरतंत्र, (२) वृद्धपराशर, (३) हस्तिआयुर्वेद, (४) गोलक्षण, (५) वृक्षायुर्वेद ।
पराशर n. पराशर पुराण एवं इतिहास शास्त्र में भी पारंगत था । पुराण ग्रंथों में, ‘विष्णु पुराण’ सारस्वत ने पराशर को एवं पराशर ने अपने शिष्य मैत्रेयेको बताया था । विष्णु पुराण में पराशर को इतिहास एवं पुराणों में विज्ञ कहा गया है
[विष्णु.१.१] । ‘भागवत पुराण’ भी सांख्यायन ऋषिद्वारा पराशर एवं बृहस्पति को सिखाया गया, एवं वह पराशर ने मैत्रेय को सिखाया
[भा.३.८] । पराशर के नाम पर ‘पराशरोप पुराण’ नामक एक पुराण ग्रंथ उपलब्ध है । माधावाचार्य ने उसका निर्देश किया हैं ।
पराशर n. पराशर के नाम पराशर वास्तुशास्त्र’ नामक एक वास्तुशास्त्र विषयक एक ग्रंथ मी उपलब्ध है । विश्वकर्मा ने उसका निर्देश किया है । ‘पराशर केवलसार’ तथा एक ग्रंथ और भी पराशर ने लिखा था ।
पराशर n. पराशर के वंश की कुल छः उपशाखायें उपलब्ध है । उनके नामः१. गौरपराशर, २. नीलपराशर ३. कृष्णपराशर, ४. श्वेतपराशर, ५. श्यामपराशर, ६. धूम्रपराशर
[मत्स्य. २००] । (१) गौरपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः---कांडवश (कांडूशय), गोपालि, जैह्रप (समय), भौमतापन (समतापन), वाहनप (वाहयौज) । (२) नीलपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः---केतु जातेय, खातेय (ग), प्रपोहय (ग), वाह्यमय, हर्याश्व । (३) कृष्णपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः---कपिमुख (कपिश्ववस्) (ग), काकेयस्थ (कार्केय) (ग), कार्ष्णाय (ग), जपातय (ख्यातपायन) (ग), पुष्कर । (४) श्वेतपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः---इषीकहस्त, उपय(ग), बालेय (ग), श्रीविष्ठायन, स्वायष्ट (ग) । (५) श्यामपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः----क्रोधनायन, क्षैमि, बादरि, वाटिका, स्तंब । (६) धूम्रपराशर---इस वंश के प्रमुख कुलः---खल्यायन (ग), तंति (जर्ति), तैलेय, यूथप, एवार्ष्णायन । उपनिर्दिष्ट वंशो में से, ‘गौरपराशर’ वंश के लोग वसिष्ठ, मित्रावरुण एवं कुंडिन इन तीन प्रवरों के हैं । बाकी सारे वंश के लोग पराशर, वसिष्ठ एवं शक्ति इन तीन प्रवरों के हैं ।
पराशर II. n. एक ऋग्वेदी श्रुतर्षि, ऋषिक एवं ब्रह्मचारी । यह व्यास की ऋक्शिष्यपरंपरा में से बाष्फल ऋषि का शिष्य था । इसके नाम से इसकी शाखा को ‘पराशरी’ नाम प्राप्त हुआ ।
पराशर III. n. वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ ऋषि का शिष्य । ब्रह्मांड में इसके नाम के लिये ‘पाराशर्य’ पाठभेद प्राप्त है ।
पराशर IV. n. व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से कुथुमि ऋषि का शिष्य ।
पराशर V. n. ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास देखिये) ।
पराशर VI. n. ऋषभ नामक शिवावतार का शिष्य ।
पराशर VII. n. धृतराष्ट्र के वंश में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में स्वाहा हो गया
[म.आ.५२.१७] ।
पराशर VIII. n. एक ऋषि । इसने ऋतुपर्णपुत्र नल राज का रक्षण किया था
[भा.९.९.१७] ; सर्वकर्मन् देखिये ।