याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. एक सर्वश्रेष्ठ विद्वान, वादपटु, एवं आत्मज्ञ ऋषि, जो ‘शुल्कयजुर्वेद संहिता’ का प्रणयिता माना जाता है । यह उद्दालक आरुणि नामक आचार्य का शिष्य था
[बृ.उ.६.४.३. माध्यं.] । यह सांस्कारिक एवं दार्शनिक समस्या का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी विद्वान था, जिसके निर्देश शतपथ ब्राह्मण, एवं बृहदारण्यक उपनिषद में अनेक बार प्राप्त हैं
[श.ब्रा.१.१.१.९.२.३.१.२१,४.२.१.७] ;
[बृ.उ.३.१.२ माध्यं.] ।ओल्डेनबर्ग के अनुसार, यह विदेह देश में रहनेवाला था । जनक राजा के द्वारा इसे संरक्षण मिलने की जो कथा बृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है, उससे भी यही प्रस्थापित होता है । किन्तु इसका गुरु उद्दालक आरुणि कुरुपंचाल देश में रहनेवाला था, जिस कारण इसको भी उसी देश के निवासी होने की संभावना है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. यज्ञवल्क्य का वंशज होने के कारण, इसे ‘याज्ञवल्क्य’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । बृहदारण्यक उपनिषद में इसे ‘वाजसनेय’ कहा गया है
[बृ.उ.६.३.७-८, ६.५.३] ;
[श.ब्रा.१४.९.४.३३] । महीधर के अनुसार, वाजसनि का पुत्र होने के कारण, इसे वाजसनेय नाम प्राप्त हुआ होगा । इसके ‘मध्यंदिन’ नामक शिष्य के द्वारा इसके शुल्कयजुर्वेद संहिता का प्रचार होने के कारण, इसे ‘माध्यंदिन’ भी कहते है ।विष्णु में इसे ब्रह्मरात का पुत्र, एवं वैशपांयन का शिष्य कहा गया है
[विष्णु.३.५.२] । वायु, भागवत, एवं ब्रह्मांड में इसके पिता का नाम क्रमशः ‘ब्रह्मवाह’, ‘देवरात’ एवं ‘ब्रह्मराति’ प्राप्त है
[वायु.६०.४१] ;
[भा.१२.६.६४] ;
[ब्रह्मांड.३.३५.२४] । ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न होने के कारण, इसे ‘ब्रह्मवाह’ नाम प्राप्त हुआ था
[वायु.६०.४२] । महाभारत में इसे वैशंपायन ऋषि का भतिजा एवं शिष्य कहा गया है
[म.शां.३०६.७७६] । उद्दालकशिष्य याज्ञवल्क्य एवं वैशंपायनशिष्य याज्ञवल्क्य दोनों संभवतः एक ही होंगे । उनमें से उद्दालक इसका दार्शनिक शास्त्रों का, एवं वैशंपायन वैदिक सांस्कारिक शास्त्रों का गुरु था ।इनके अतिरिक्त, हिरण्यनाभ कौशल्य नामक इसका और एक गुरु था, जिससे इसने योगशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी
[ब्रह्मांड.३.६३.२०८] ;
[वायु ८८.२०७] ;
[विष्णु४. ४.४७] ;
[भा.९.१२.४] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य के दो प्रमुख पहलू माने जाते हैं । यह वैदिक संस्कारों का एक श्रेष्ठ ऋषि था, जिसे ‘शुक्ल यजुर्वेद’ एवं ‘शतपथ ब्राह्मण’ के प्रणयन का श्रेय दिया जाता है । इसके साथ ही साथ यह दार्शनिक समस्याओं का सर्वश्रेष्ठ आचार्य भी था, जिसका विवरण ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ में विस्तारशः प्राप्त है । वहॉं इसने अत्यंत प्रगतिशील दार्शनिक विचार सरलतम भाषा में व्यक्त किये है, जो विश्व के दार्शनिक साहित्य में अद्वितीय माने जाते है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य यजुःशिष्यपरंपरा में से वैशंपायन ऋषि का शिष्य था । वैशंपायन ऋषि के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें श्यामायनि, आसुरि, आलंबि, एवं याज्ञवल्क्य प्रमुख थे (वैशंपायन देखिये) । वैशंपायन ने ‘कृष्णयजुर्वेद’ की कुल ८६ संहिताएँ बना कर, याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त अपने बाकी सारे शिष्यों को प्रदान की थीं । वैशंपायन के शिष्यों में से केवल याज्ञवल्क्य को ‘कृष्णयजुर्वेद संहिता’ प्राप्त न हुयी, जिसे कारण इसने ‘शुल्कयजुर्वेद’ नामक स्वतंत्र संहिता ग्रंथ का प्रणयन किया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य ने ‘कृष्णयजुर्वेद’ के शुद्धीकरण का महान् कार्य सम्पन्न किया, एवं उसी वेद के संहिता में से चालीस अध्यायों से युक्त नये शुल्कयजुर्वेद का निर्माण किया
[श.ब्रा.१४.९.४.३३] । याज्ञवल्क्य के पूर्व, कृष्णयजुर्वेद संहिता में यज्ञविषयक मंत्र, एवं यज्ञप्रकियाओं की सूचनायें, उलझी हुई सन्निहित थीं । उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता में ‘इषेत्वेति छिनत्ति’ मंत्र प्राप्त है । यहॉं ‘इषेत्वेति’ (इषे त्वा) वैदिक मंत्र है, जिसके पठन के साथ ‘छिनत्ति’ (लकडी तोडना) की प्रक्रिया बताई गयी है ।याज्ञवल्क्य की महानता यह है कि, इसने ‘इषे त्वा’ की भॉंति वैदिक मंत्रभागों को अलग कर उन्हें ‘शुक्ल युजुर्वेद’ संहिता में बॉंध दिया, एवं ‘इति छिनत्ति’ जैसे याज्ञिक प्रक्रियात्मिक भागों को अलग कर, ब्राह्मण ग्रन्थों में एकत्र किया ।कृष्णयजुर्वेद के इस शुद्धीकरण के विषय में, याज्ञवल्क्य को अपने समकालीन आचार्यो से ही नहीं, बल्कि, अपने गुरु वैशंपायन से भी झगडा करना पडा । आगे चल कर संहिताविषयक धर्मग्रंथसम्बन्धी यह वादविवाद, एक देशव्यापक आन्दोलन के रुप में उठ खडा हुआ । अन्त में यह विवाद हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय (तृतीय) के पास तक जा पहुंचा और उसने याज्ञवल्क्य की विचार धारा को सही कह कर उसका अनुमोदन किया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. जनमेजय का राजपुरोहित उस समय वैशंपायन था जिसे छोडकर यज्ञों के अध्वर्यु कर्म के लिए उसने याज्ञवल्क्य को अपनाया । किन्तु इसके परिणामस्वरुप, जनमेजय के विरुद्ध उसकी प्रजा में अत्यधिक क्षोभ की भावना फैलने लगी, जिस कार उसे राजसिंहासन को परित्याग कर वनवास की शरण लेनी पडी । इतना हो जाने पर भी, जनमेजय ने अपनी जिद्द न छोडी, और याज्ञवल्क्य के द्वारा ही अश्वमेधादि यज्ञ करा कर, ‘महावाजसनेय’ उपाधि उसने प्राप्त की । इसके परिणाम स्वरुप वैशंपायन और उसके अनुयायियों को मध्यदेश छोड कर पश्चिम में समुद्रतट, एवं उत्तर में हिमालय की शरण लेनी पडी ।इस प्रकार, धार्मिक आधार पर खडी हुई याज्ञवल्क्य और वैशंपायन के बीच के विवाद ने राजनैतिक जीवन के आदर्शा का आमूल परिवर्तन किया, जो भारतीय इतिहास में एक अनूठी घटना साबित हुयी । इस प्रकार सर्वसाधारण से लेकर राजाओं तक को भी अपने प्रभाव से बदल देनेवाला याज्ञवल्क्य एक युगप्रवर्तक आचार्य बन गया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. अन्य वैदिक आचार्यो के समान याज्ञवल्क्य भी कर्म एवं ज्ञान के सम्मिलन को महत्त्व प्रदान करता था । इसी कारण, ‘शुक्लयजुर्वेद’ का प्रणयन करते समय, इसने उस ग्रंथ के अन्त में ‘ईश उपनिषद’ का भी सम्मिलन किया है । शुक्लयजुर्वेद वैदिक कर्मकाण्ड का ग्रंथ हैं । उसे ज्ञानविषयक ‘ईश उपनिषद’ के अठारह मंत्र जोडने के कारण, उस ग्रंथ की महत्ता कतिपय बढ गयी है । वैदिक कर्मकाण्ड का अंतिम साध्य आत्मज्ञान की प्राप्त है । इसी तत्त्व का साक्षात्कार ‘ईश उपनिषद’ से होता है ।अपने समय के सर्वश्रेष्ठ उपनिषदकार माने गये याज्ञवल्क्य ने कर्म एवं ज्ञान का सम्मिलन करनेवाले ‘शुक्लयजुर्वेद’ की रचना की, इस घटना को वैदिक साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । वैदिक परंपरा मंत्रों के अर्थ से संगठित है । वह अर्थ मूलस्वरुप में रखने के लिए, प्रसंगवश मंत्रों के शब्दों में बदला किया जा सकता है, इसी क्रांतिकारी विचारधारा का प्रणयन याज्ञवल्क्य ने किया, एवं यह वैदिक सूक्तकारों में एक श्रेष्ठ आचार्य बन गया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवॉं अंतिम अध्याय ‘ईश उपनिषद’ अथवा ‘ईशावास्य उपनिषद’ से बना हुआ है । इस उपनिषद में केवल अठारह मंत्र है, फिर भी, वह प्रमुख दस उपनिषदों में से एक माना जाता है । शंकराचार्य से ले कर विनोबाजी तक के सारे प्राचीन एवं आधुनिक आचार्य, उसे अपना नित्यपाठन का ग्रंथ मानते है । इस उपनिषद में, ‘सारा संसार ईश्वर से भरा हुआ है’ (ईशावास्यमिदं सर्वम्), यह सिद्धन्त बहुत ही सुंदर तरीके से कथन किया गया है । इसी उपनिषद के अन्य एक मंत्र में, धनलोभ का निषेध किया गया है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. शुक्लयजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ ‘शतपथ ब्राह्मण है । इस ग्रंथ में चौदह काण्द, एवं सो अध्याय हैं । उनमें से १-४ एवं १०-१४ काण्डों में याज्ञवल्क्य के ‘यज्ञप्रक्रिया’ ‘देवताविज्ञान’ आदि विषयक सिद्धान्त ग्रथित किये गये हैं । इस ग्रंथ के ५-९ काण्डों में तुर कावषेय एवं शांडिल्य के सिद्धान्तों का संग्रह याज्ञवल्क्य के द्वारा किया गया है । इस ग्रंथ का प्रचंड विस्तार, एवं उसमें प्रकट किये गये प्रगतिशील विचारों के कारण, ‘शतपथब्राह्मण’ वैदिक सांस्करिक सिद्धान्तों का एक अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है ।इसी ग्रंथ के अंतिम भाग में ‘बृहदारण्यक उषनिषद’ का समावेश किया गया हैं । ब्रह्मज्ञान एवं आत्मज्ञान के विषय में याज्ञवल्क्य का तत्वज्ञान इस उपनिषद में समाविष्ट किया गया है ।कात्यायन के वार्तिक में ‘शतपथ ब्राह्मण’ को पुराण कल्प में विरचित अन्य ब्राह्मण ग्रंथो से उत्तरकालीन कहा गया है (पुराणप्रोक्तेपु ब्राह्मणकल्पेषु)
[पा.सू.३.३.१०५] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. अपने गुरु वैशंपायन से याज्ञवल्क्य का विरोध किस कारण से हुआ, इसके संबंध में अनेकानेक कथाएँ पुराणों में प्राप्त है, जिसमें ऐतिहासिकता के बदले काल्पनिकता अधिक प्रतीत होती है ।एक बार सब ऋषियों ने नियत समय पर मेरु पर्वत पर एकत्र होने का निश्चय किया । उस समय यह भी तय हुआ कि, जो भी ऋषि समय पर न आयेगा, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा । दैवयोग से, वैशंपायन समय पर न पहुँच सका, तथा उसे ब्रह्महत्या का पाप सहना पडा । तब उसने ब्रह्महत्या के अपने पाप को समाप्त करने के लिए, अपने सभी शिष्यों से प्रायश्चित्त लेने के लिए कहा । उस समय, याज्ञवल्क्य ने आत्मप्रशंसा से वशीभूत हो कर कहा ‘सब शिष्यो की क्या आवश्यकता है? मैं अकेला ही काफी हूँ’। इसकी ऐसी गर्वेक्ति सुन कर वैशंपायन क्रोधित हो उठा, तथा उसने इससे कहा, ‘तुमने मुझसे जो वेद सीख लिये हैं, वे मुझे वापस करो’।गुरु के शाप के कारण, सीखे हुये सारे वेद इसे निगलने पडे जिसे वैशंपायन के बाकी शिष्यों ने उठा लिये । वेदविहीन होने के कारण, यह विद्याहीन, स्मृतिहीन एवं कुष्ठरोगी बन गया । किन्तु पश्चात् सरस्वती की कृपा से इसने नया वेद प्राप्त कर लिया, एवं यह पूर्व की भॉंति तेजस्वी बन गया
[म.शां.३०६] ;
[वायु.६१.१८-२२] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. सूर्य से वेद स्वीकार करते समय याज्ञवल्क्य ने अश्व का रुप धारण किया था, जिस कारण इसके वेदों तथा शिष्यों को ‘वाजिन्’ नाम प्राप्त हुआ
[वायु ६१.२२] । अन्य पुराणों के अनुसार, वेद लेते समय इसने नहीं, बल्कि सूर्य ने अश्व का रुप धारण किया था
[भा.१२.६.७३] ;
[ब्रहांड.२.३५.२६-७४] ।स्कंद में इसके गुरु का नाम वैशंपायन न देकर, शाकल्य दिया है एवं अपने आथर्वण मंत्र के बल से शाकल्य ने इसकी समस्त वेदविद्या वापस लेने की कथा वहॉं बतायी है
[स्कंद. ६.१२९] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. सूर्य के वेदविद्या सीखने के बाद, इसने वह विद्या जनक, कात्यायन, शतानीक, जनमेजय (तृतीय) आदि राजाओं को सिखायी थी
[विष्णु.४.२१.२] । इससे याज्ञवल्क्य ऋषि शतानीक एवं जनमेजय (तृतीय) राजाओम का समकालीन प्रतीत होता है ।महाभारत में याज्ञवल्क्य के द्वारा देवराति जनक के सभा में वाद-विवाद करने का निर्देश प्राप्त है । किन्तु उस समय देवराति जनक का होना असंभव प्रतीत होता है । उस समय जो जनक था, उसका स्पष्ट उल्लेख यद्यपि अप्राप्य है, तथापि शतानीक, जनमेजय इत्यादि याज्ञवल्क्य के समकालीन राजाओं से प्रतीत होता है कि, उस समय का जनक उग्रसेन होगा (पुष्करमालिन् देखिये) । एक तर्क यह भी दिया गया है कि, ‘दैवराति’ जनक का विशेषण न होकर, याज्ञवल्क्य का विशेषण है
[पं.भगवतदत्त-वैदिक वाङ्मय का इतिहास, पृ.२६४] ।महाभारत में, जनक एवं विश्वावसु गंधर्व के साथ याज्ञवल्क्य के द्वारा किये तत्त्वज्ञानविषयक संवाद का निर्देश प्राप्त है
[म.शां.२९८-३०६] । वहॉं इसने विश्वावसू के चौबीस प्रश्नों के उत्तर दिये हैं
[म.शां.३०६.२६-८०] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ के दूसरे, तीसरे एवं चौथे अध्यायों में याज्ञवल्क्य की दार्शनिक महत्ता, एवं सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त होता है । उनमें से दूसरे अध्याय में, याज्ञवल्क्य का अपनी ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी से तत्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है; तीसरे अध्याय में विदेह देश के जनक राजा के दरबार में इसके द्वारा अनेकानेक तत्वज्ञानियों से हुए वाद-विवादों की जानकारी दी गयी है; एवं चौथे अध्याय में स्वयं जनक राजा से हुए इसके तत्त्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है । इन सारे संवादों से याज्ञवल्क्य के प्रागतिक व्यक्तित्त्व, एवं दार्शनिक तत्वज्ञान पर काफी प्रकाश पडता है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. जनक राजा के यज्ञ मंडप में कुरुपंचाल देश के अनेकानेक तत्वज्ञ उपस्थित हुये थे । याज्ञवल्क्य ने उन सारे तत्त्वज्ञों को वाद-विवाद में परास्त किया । बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार, याज्ञवल्क्य ने जिन आचार्यो के साथ वाद-विवाद किये थे, उन के नाम, एवं वाद-विवाद के विषय निम्न प्रकार हैः---
१. अश्वल---‘ मृत्यु से मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है’
[बृ.उ.३.१] ।
२. जारत्कारव आर्तभाग---‘आठ ग्रह एवं आठ उपग्रह कौनसे हैं’
[बृ.उ.३.२] ।
३. भृज्यु लाह्यायनि---‘मृत्यु के उपरांत परलोक में क्या होता है । यज्ञ करनेवाले परिक्षित् राजा को कौन सी गति मिली
[बृ.उ.३.३] ।
४. उषस्त चाक्रायण---‘सर्वान्तर्यामी आत्मा’
[बृ.उ.३.५] ।
५. कहोल कौषीतकेय---‘सर्वअन्तर्यामी आत्मा’
[बृ.उ.३.५] ।
६. गागी वाचक्रवी---‘जगत का मूल कारण क्या है’
[बृ.उ.३.६] ।
७. वाचक्रवी---‘ब्रह्म’
[बृ.उ.३.८] ।
८. उद्दालक आरुणि---‘अत्नर्यामी आत्मा’; ‘परलोक’
[बृ.उ.३.७] ।
९. विदग्ध शाकल्य---‘देव कितने है’
[बृ.उ.३.९] ।
उपरिनिर्दिष्ट आचार्यो के सिवा, याज्ञवल्क्य ने निम्नलिखित आचार्यो से भी तत्त्वज्ञानसंबंधी वाद-विवाद किये थे, जिनका निर्देश बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय में प्राप्त हैः---
१. उदंक शोल्बायर---‘प्राणब्रह्म’
[बृ.उ.४.१.२.३] ।
२. बर्कु वार्ष्ण---‘चक्षुब्रह्म’
[बृ.उ.४.१.४] ।
३. गर्दभीविपीठ भारद्वाज---‘श्रौत्रब्रह्म’
[बृ.उ.४.५] ।
४. सत्यकाम जाबाल---‘मनोब्रह्म’
[बृ.उ.४.१.६] ।
५. विदग्ध शाकल्य---‘हृदयब्रह्म’
[बृ.उ.४.१.७] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. जनक के दरबार में हुये वाद-विवाद में, अश्वल एवं विदग्ध शाकल्य ने याज्ञवल्क्य से ईश्वर एवं कर्मकाण्ड के विषय में प्रश्न पूछे थे, जो विशेष कठिन नहीं थे । शाकल्य ने इससे पूछा, ‘देव कितने है’ (कति देवाः) । इस पर याज्ञवल्क्य ने देवों की संख्या तीन हजार तेंतीस, तेंतीस, तीन, ऐसी विभिन्न प्रकार से बताकर, अंत में ये सारे एक ही परमेश्वर के विविध रुप है, ऐसा कह कर बहुत ही सुंदर जबाब दिया था
[बृ.उ.३.९.१-३] ।अपने इस जबाब से याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को मौन कर दिया । यही नहीं, वादविवाद के शर्त के अनुसार, शाकल्य को मृत्यु स्वीकार करने पडी, एवं उसकी अस्थियॉं भी उसके शिष्यों को प्राप्त न हुई
[बृ.उ.३.९.४-२६] ।शाकल्य की तुलना में, याज्ञवल्क्य से वाद विवाद करने वाले जनकसभा के अन्य ऋषिगण अधिकतर अधिकारी व्यक्ति थे, एवं उनके द्वारा पूछे गये प्रश्न भी अधिक कठिन थे । मृत्यु के पश्चात् आत्मा की क्या गति होती है, यह पूछनेवाला जारत्कारव; अंतिम सत्य का स्वरुप क्या होता है, यह पूछनेवाला उषस्तः आत्मानुभव किस मार्ग से मिलता है, यह पूछनेवाला उषस्त; आत्मानुहव किस मार्ग से मिलता है, यह पूछनेवाला कहोल; एवं परमात्मा सर्वांतर्गत हो कर भी अचेतन अथवा चेतनायुक्त कैसे रह सकता है, यह पूछनेवाले उदालक एवं गार्गी, ये उस समय के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वज्ञ थे । उनके प्रश्नों को तर्कशुद्ध जबाब दे कर, याज्ञवल्क्य ने विद्वत्सभा में अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित किया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. इसी वाद-विवाद में याज्ञवल्क्य ने आत्मा के विषयक अपने ‘निष्प्रपंच सिद्धान्त’ का पुनरुच्चार किया । इसने कहा, ‘आत्मा बडा नहीं, उसी तरह छोटा भी नहीं । वहा ऊँचा नहीं, उसी तरह नीचा भी नहीं । वह रुचि, दृष्टि एवं गंध के विरहित है
[बृ.उ.३.८.८] । वह सृष्टि के समस्त वस्तुमात्रों का अंतर्नियामक है, जिसके कारण सारी सृष्टि कठपुतलियों के जैसी नाचती है’।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. देवमित्र शाकल्य के साथ याज्ञवल्क्य ने क्रिये वादविवाद की कथा, पुराणों एवं महाभारत में भी विस्तृत रुप से दी गयी है । विदेह देश के देवराति (दैवराति) जनक ने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ किया, तथा उस सम्बन्ध में सैकडो ऋषियों को निमंत्रित भी किया
[म.शां.३०६] । उस यज्ञ में, हजार गायों के अतिरिक्त न जाने कितने स्वर्ण, रत्नादि सामने रक्ख कर उसने कहा, ‘यह सारी सुखसामग्री, तथा ग्रामादि और सेवक आदि सारी संपत्ति वह ऋषि ले सकता है, जो उपस्थित सभा में सर्वश्रेष्ठ हो’। यह सुन कर कोई न उठा । तब याज्ञवल्क्य सामने आया, तथा अपने शिष्य सामश्रवस् से इसने कहा, ‘मेरे समान वेदवत्ता यहॉं कोई नहीं है । इसलिए यह समस्त संपत्ती हमारी है । उसे तुम उठा लो’।इतना कह कर फिर समस्त उपस्थितजनों को सम्बोधित कर याज्ञवल्क्य ने कहा,‘यदि कोई भी व्यक्ति मुझे सर्वश्रेष्ठ नहीं समझता, तो उसे मेरी ओर से चुनौती है किं, वह मेरे सामने आये’। इतना सुनते ही सारी सभा में खलभली मच गई, और कई ब्राह्मण इससे वादविवाद करने आये । लेकिन सभी इससे परास्त हुए ।उपस्थित पंडितों से इसका कई विषयों पर वादविवाद हुआ । सब को जीतने के बाद, इसने देवमित्र शाकल्य को ललकारते हुए कहा, ‘भरी हुई धौंकनी के समान चुप क्यों बैठे हो? कुछ बोलो तो’। इस प्रकार इसकी वाणी सुन कर शाकल्य ने अकेले ही समस्त धन ले जाने के संबंध में इससे शिकायत की । तब याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘ब्राह्मण का बल है विद्या, एवं तत्त्वज्ञान में निपुणता । क्यों कि, मैं किसी प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपने को समर्थ समझता हूँ, इसलिए इस समस्त धन पर मेरा अपना अधिकार है’।याज्ञवल्क्य की ऐसी वाणी सुन कर देवमित्र शाकल्य क्रोध से पागल हो गया, और उसने एक हजार प्रश्न पूछे, जिनके सभी उत्तर इसने बडी निपुणता एवं विद्वत्ता के साथ दिये । फिर याज्ञवल्क्य की प्रश्न पूछने की बारी आई । याज्ञवल्क्य ने एक ही प्रश्न उससे किया । किन्तु शाकल्य उसका भी उत्तर न दे सका, जिसके परिणामस्वरुप उसे अपनी जान से हाथ धोना पडा ।देवमित्र शाकल्य की मृत्यु से सब ब्राह्मणों को ब्रह्महत्या का पाप लगा । इसलिए सभी उपस्थित जनो ने पवनपुर में जा कर द्वादशार्क, वालुकेश्वर, एकादश रुद्र इत्यादि के दर्शन किये और चारों कुण्डों में स्नान किया । उसके उपरांत इन्होंने उत्तरेश्वर में जा कर वाडवों का दर्शन किया, जिससे सभी व्यक्ति हत्यादोष से मुक्त हुए
[वायु.६०.६९-७१] । प्रस्तुत कथा पुरातन इतिहास के रुप में भीष्म के द्वारा युधिष्ठिर से कही गयी है
[म.शां.२९८.४, ३०६.९२] । वंशावलि के अनुसार, दैवराति जनक दाशरथि राम से काफी पूर्वकालीन माना जाता है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा संन्यास लिये जाने पर, उसने अपनी संपत्ति कात्यायनी एवं मैत्रेयी नामक अपनी दो पत्नियों में विभाजित करनी चाही । उस समय उसकी ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी ने इससे अध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा मॉंगा, एवं इसे अमरत्व प्राप्त करने का मार्ग पूछा । उस समय इसने मैत्रेयी से कहा, ‘पति, पत्नी, संतान, संपत्ति ये सारे आत्मा के ही अनेकविध रुप है । इस आत्मा का निरीक्षण, अध्ययन एवं मनन(निदिध्यास) करने से ही समस्त वस्तुजातों का ज्ञान प्राप्त होता है’ (बऋ.उ.२.४.२-५; मैत्रेयी देखिये) ।आत्मा का स्वरुप बताते हुये याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा, ‘जिस तरह समस्त स्पर्श त्वचा में केंद्रीभूत होते हैं, अथवा सारे विचार मन में समा जाते हैं, उसी प्रकार संसार की सारी चीजे आत्मा में केंद्रीभूत होती हैं
[बृ.उ.२.८.११] । इसी कारण, आत्मप्राप्ति ही मानवी प्रयत्नों का सब से बडा साध्य है । बाकी सारे ध्येय भुलावे के (आर्तम्) है’।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. केवल आत्मा के ज्ञान से ही बाह्यसृष्टि का ज्ञान हो सकता है, इस सिद्धान्त का विवरण करते समय, याज्ञवल्क्य ने आत्मा एवं मानवी मन का ध्येयात्मक अद्वैत प्रतिपादित किया । इस प्रतिपादन के समय, इसने आत्मा को दुंदुभी बजानेवाला वादक कह कर, मानवी मन को, दुंदुभी वाद्य की उपमा दे दी । याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘दुंदुभी बजानेवाले को हाथ में पकड लेने से, दुंदुभी का आवाज सहजवश हाथ में आता है । उसी प्रकार आत्मा की ज्ञान होने से, संसार की सारी वस्तुमात्रों का ज्ञान विना किसी कष्टों से प्राप्त हो सकता है’
[बृ.उ.२.४.६-९] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. अमरत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसका विवरण करते हुये याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘आत्मा के श्रवण, मनन एवं चिंतन कर आत्मतत्त्व के व्यापकत्त्व का अनुभव हर एक साधक ने करना चाहिये (आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः) । आत्मतत्त्व के इसी अनुभव से अमरत्त्व प्राप्त हो सकता है (एतावद् खलु अमृतत्वम्) । आत्मतत्व का यह साक्षात्कार केवल मन से ही हो सकता है (मनसैवानद्रष्टव्यम्)’।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्याय में आत्मज्ञानसम्बधी ‘जनक याज्ञवल्क्य संवाद’ प्राप्त है । उस संवाद के प्रारम्भ में याज्ञवल्क्य ने जनक से पूछा, ‘अन्तिम सत्य के बारे में किन किन ऋषियों के उपदेश आज तक आपने सुना है’ । उस पर जनक ने कहा, ‘वाणी को परमसत्य कहनेवाले जित्वन् शैलिनि का, प्राण को ब्रह्म कहनेवाले उदंक शोल्बायन का, चक्षु को परमसत्य कहनेवाले बर्कु वार्ष्ण का, कर्ण को ब्रह्म कहनेवाले गर्दभीविपीत भारद्वाज का, मन को ब्रह्म कहनेवाला सत्यकाम जाबाल का, एवं हृदय को अन्तिम सत्य कहनेवाले विदग्ध शाकल्य का उपदेश आज तक मैने श्रवण किया है’। उस पर याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘तुम्हारे द्वारा सुने गये ये उपदेश अंशतः सत्य है, पूर्णरुपेण नही’
[बृ.उ.४.१.२-७] ।अपने इस कथन से याज्ञवल्क्य यह कहना चाहता था कि, इन्द्रियों अथवा मन से परमसत्य प्राप्त होना असम्भव है । वह तो केवल आत्मज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है । क्यों कि, आत्मा ही केवल सत्य है, मन एवं इन्द्रियॉं केवल साधनमात्र है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. मृत्यु के समय मानवी देहात्मा की स्थिति क्या होती है, उसका अत्यंत सुंदर वर्णन याज्ञवल्क्य ने जनक राजा को बताया था । इसने कहा, ‘मृत्यु के समय मनुष्य की प्रजात्मा उसके देहात्मा पर आरुढ होती है । इसी कारण, बोझ से लदे हुए गाडी जैसा आर्त चित्कार मृत्यु की समय मानवी देहात्मा से निकलती है
[बृ.उ.४.३.३५] । मृत्यु के पूर्व ऑखो में से प्राणरुप पुरुष सर्व प्रथम निकल जाता हैं । पश्चात् हृदय का नोंक प्रकाशित होता है, जिसकी सहाय्यता से नेत्र, मस्तक अथवा अन्य कौनसी भी इंद्रियॉ के द्वारा आत्मा निकल जाती है । उस समय, मनुष्य का कर्म ही केवल उसके साथ रहता है, जो आत्मा के अगले जन्म का मार्गदर्शक बनता है
[बृ.उ.४.४.१-५] । स्वर्ण मुद्रिकाओं की थैलियॉं लगी हुई हैं, ऐसी गायों की प्राप्त मैं उतनी ही आवश्यक समझता हूँ, जितना कि आवश्यक, विद्वानों के बीच अपनी विजय’।अपने द्वारा कही उक्त बात का स्पष्टीकरण करते हुए इसने स्वयं कहा है, ‘मेरी पिता का कथन था कि, बिना धन प्राप्त किये किसी को भी आत्मज्ञान न देना चाहिये’। ‘किन्तु आत्मज्ञान का उपदेश किये बगैर किसी से दक्षिणा न लेनी चाहिये’ ऐसा भी इसका अभिमत था (अननुच्य हरते-दक्षिणा न गृह्रीयात्) ।जनक राजा के पुरोहित अश्वल के द्वारा पूछने पर भी याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘मैं ब्रह्मज्ञ जरुर हूँ, किन्तु मैं धन का कांक्षा भी मन में रखता हूँ (गोकामा एवं वयं स्मः)’। इस प्रकार आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक इन दोनों को मान्यता देनेवाला याज्ञवल्क्य पाश्चात्य ‘साफिस्ट’ लोगों जैसा प्रतीत होता है । ‘साफिस्ट’ वह लोग है, जो तत्त्वज्ञान के उपलक्ष में धनग्रहण करना कोई खराबी नहीं मानते हैं ।
(२) आत्मज्ञान---‘जीवन में आत्मज्ञान प्राप्त करना सम्भव है, और वही अन्तिम सत्य है’, ऐसा इसका अभिमत था । जनक ने इससे प्रश्न किया था, ‘मनुष्य की ज्योति कौन है, जो उसे प्रकाश देती है?’ इस प्रश्न का यथाविध उत्तर देते हुए इसने सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि को मनुष्य की ज्योति बता कर कहा, ‘आत्मज्ञान मनुष्य की अन्तिम ज्योति है, जो सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि की अनुपस्थिति में भी उसे प्रकाश देती है’
[बृ.उ.४.३.२-६] ।जब कि आत्मा ही केवल ज्ञेय एवं ज्ञाता रहता है, उस अवस्था का वर्णन याज्ञवल्क्य ने उक्त कथन में व्यक्त किया है । अरस्तू (ऐरिस्टॉटल) उसे ‘थिओरिया’ अथवा ‘उन्मन’ अवस्था कहता है ।
(३) शुद्धाद्वैतवाद अथवा कर्ममीमांसा---याज्ञवल्क्य शुद्धाद्वैतवाद का पुरस्कर्ता था, जिसक अनुसार आत्मा अजर, अमर एवं कालातीत अवस्था में सर्व उपस्थित रहता है । इस कारण, मृत्यु के साथ होनेवाले आत्मा के स्थलांतर अथवा जन्मान्तर में शोक अथवा दुःख करने की आवश्यकता नहीं है । जिस तरह घॉंस का नया तिनका प्राप्त किये बगैरे अपना पहला तिनका नहीं छोडता है, उसी प्रकार अपनी वास्तव्य की नयी व्यवस्था हुये वगैर आत्मा अपनी पुरानी बदन को नही छोडता है । इस प्रकार, मृत्यु ही स्वयं एक माया होने के कारण, उसमें दुःख नहीं मानना चाहिये । जिस प्रकार सुवर्णकार पुराणे अलंकारों से नया, एवं पहले से भी अधिक सुंदर अलंकार बना सकता है, उसी प्रकार आत्मा को पहले से भी अधिक सुंदर जन्म प्राप्त होना संभवनीय है
[बृ.उ.४.४.४] ।याज्ञवल्क्य के यह विचार सुन कर इसकी पत्नी मैत्रेयी भीतिग्रस्त हुयी । इसी कारण अपनी मतों का अधिक विवरण न करते हुए याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘जो मैने कहा है वह संसार के अज्ञ लोगों के लिए काफी है’
[बृ.उ.२.४.१३] ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य अपने युग का एक अद्वितीय विद्वान्, वादपटु, एवं आत्मज्ञानी था । यह बडा उग्र स्वभाव का था । जनक की विद्वत्सभा में विवाद करते समय, इसने शाकल्य से आक्रोशपूर्ण शब्दों में कहा था, ‘आगे तुम इस प्रकार के प्रश्न करोगे, तो तुम्हारा सर काट कर पृथ्वी पर लोटने लगेगा’ (मूर्धा ते निपतिष्यति) । यह क्रोधी था, उसी प्रकार परमदयालु तथा कोमल प्रवृत्तियों का भी था, जो इसके द्वारा अपनी पत्नी मैत्रेयी के संवाद से प्रकट है ।यह जरुर है कि, वादविवाद के बीच स्त्रीजाति हो अथवा कोई भी हो, किसी के प्रति यह कृपाभावना नही दिखाता था । गार्गी से चल रही चर्चा के बीच, इसने उसे ‘तुम बहुत प्रश्न कर रही हो’ (अतिप्रश्नं पृच्छसि) कह कर, उद्दामता न दिखाने के लिए डॉंटा था ।यह बडा होशियार भी था । जब जनक की सभा में जारत्कारव ने ज्ञान एवं कर्म के संबंध में कुछ ऐसे प्रश्न किये थे, जो केवल अधिकारी व्यक्तियों ही जान सकते है । उसके जवाब उसे सभा से अलग ले जा कर, एकान्त में बताये थे ।यह अपने समय का सब से बडा वादपटु था । अश्वल ने इससे ‘आचार्य-सम्प्रदाय’ के सम्बन्ध में बहुत कठिन प्रश्न पूछे, जिनके तत्काल उचित उत्तर दे कर इसने उसे निरुत्तर किया ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. अधिकारी विद्वान् के द्वारा तत्त्वज्ञानसम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर ही, उसका जवाब देने की इसकी पद्धति थी । किंतु कभी कभी ऐसा भी होता था कि, भावतिरेक में यह प्रश्न की परिघ से अलग बातों विषयों की विवेचना कर, उनका भी कथन करने लगता था । उदाहरणार्थ, जनक की सभा में उद्दालक के प्रश्न का उत्तर देते समय यह एकाएक ध्यानमग्न हुआ, तथा ईश्वर की व्यापकता बताते हुए इसने कहा, ‘ईश्वर तो जगत् व्यापी है’। याज्ञवल्क्य के उक्त विचार ‘अर्न्तयामी ब्राह्मण’ नामक ग्रन्थ में सम्मिलित है
[बृ.उ.३.७.१] ।जनक राजा के साथ हुए संवाद में, आत्मा के ‘अव्यय रुप’ के सम्बन्ध में अपने विचार भी इसने बिना पूछे ही प्रकट किये थे । इस प्रकार, जब यह भावमग्न हो कर आत्मज्ञानसम्बन्दी विचारों को प्रकट करता था, तो प्रकट ही करता जाता था, जिसे कि आकाश के बाद बरसते नहीं, तथा जब ऋतु पा कर बरसते हैं, तो बरसते ही जाते हैं ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य को मैत्रेयी एवं कात्यायनी नामक दो पत्नियाँ थी । उनमें से मैत्रेयी आध्यात्मिक ज्ञान की पिपासु थी । इस कारण, इसने उसे आत्मज्ञान कराया. एवं संन्यास लेने के पश्चात् भी यह उसे अपने साथ अरण्य में ले गया मैत्रेयी देखिये । स्कंद में मैत्रेयी के लिए ‘कल्याणी’ नामान्तर प्राप्त है
[स्कंद. ६.१३०-१३१] । वैदिक ग्रंथो में से ‘जाबालोपनिषद’ एवं ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भी उसका उल्लेख प्राप्त है
[श. ब्रा. १.४.१०-१४] । इसकी दूसरी पत्नी कात्यायनी एक सामान्य गृहिणी थी, जिससे इसे कात्यायन एवं पिप्पलाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये थे
[स्कंद. ५.३,४२.१] पिप्पलाद देखिये ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. काण्य एवं माध्यंदिन परंपरा में इसके निम्नलिखित शिष्यों का निर्देश प्राप्त है :---
१. आसुरि---यह याज्ञवल्क्य का प्रमुख शिष्य था, जिससे ‘आसुरि’ नामक शिष्यशाखा का निर्माण हुआ
[श, ब्रा. १४.९.४.३३] । आसुरि के शिष्य का नाम ‘पंचशिख अथवा ‘कापिलेय’ अथवा ‘ कपिल’ था
[मत्स्य. ३. २९] । पंचशिख के शिष्यों मे विदेह के राजा ‘जनक जानदेव’ एवं ‘जनक धर्मध्वज’ प्रमुख थे । पंचशिख के शिष्यों में आसुरायण प्रमुख था, जो यास्क का समकालीन था ।
२. मधुक पैंग्य---इसके शिष्यों में चूड भागवित्ति प्रमुख था । चूड भागवित्ति से लेकर जानकि आयस्थूण, सत्यकाम जाबाल ऐसी इसकी शिष्यपंरंपरा थी
[बृ. उ. ६.३.७-११] ।
३. सामश्रवस्---इसे जनक के विद्वतसभा में अपनी ओर से संपत्ति उठाने के लिए याज्ञवल्क्य ने कहा था । इसके सिवा महाभारत में इसके सौ शिष्य बताये गये हैं
[म. शां. ३०६.१७] व्यास देखिये ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. वायु में याज्ञवल्क्य के निम्नलिखित पंद्रह शाखाप्रवर्तक शिष्य बताये गये गये हैं- १. कण्व; २. वैधेय; ३. शालिन्; ४. मध्यंदिन; ५. सापेयिन; ६. विदिग्ध; ७. उद्दल; ८. ताम्रायण; ९. वात्स्य; १०. गालव; ११. शैषिरिन्; १२. आटविन्; १३. पर्णिन्; १४. वीरणिन्; १५. परायण वायु. ६१.२४-२५ । इन शिष्यों को ‘वाजिन्’ सामुहिक नाम प्राप्त था । ब्रह्मांड में ये नाम कई पाठभेदों के साथ प्राप्त है
[ब्रह्मांड २.३५.८-३०] । अन्य पुराणों में भी इन शाखा-प्रवर्तक आचार्यो के नाम अनेकानेक रूप से दिये गये हैं । इन शाखाप्रवर्तक आचायों में से ‘कण्व’ एवं ‘माध्यंदिन’ शाखाओं के ग्रंथ आज प्राप्त हैं । बाकी शाखाओं के ग्रंथ नष्ट हो चुके हैं ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. याज्ञवल्क्य के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है---१. शुक्लयजुर्वेद संहिता
[श. ब्रा. १४.९.४.३३] ; २. ईशावास्योपनिषद; ३. सांग शतपथ ब्राह्मण
[म. शां. ३०६.१-२५] ; ४. बृहदारण्यक उपनिषद
[याज्ञ, ३. ११०] ; ५. याज्ञवल्क्यशिक्षा, जिसमें २३२ श्लोक हें; ६. मन:स्वारशिक्षा, जिसमें हस्तस्वर की अपेक्षा भिन्न प्रकार के विचारों को प्रतिपादित किय़ा गया है; ७. वृहदयाज्ञवल्क्य; ८. बृहद्योगीयाज्ञवक्ल्य; ९. योगशास्त्र । इनके सिवा इसके नाम पर ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ नामक एक स्म्रुतिग्रंथ भी प्राप्त है ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. शुक्ल्यजुर्वेद संहिता के कुल चालीस अध्याय हैं, एवं उनमें निम्नलिखित विषयो का विवरण प्राप्त हैं---अ. १-२. दशपूर्णमासमंत्र एवं पिंडपितृयज्ञ; अ. ३. नित्याग्निकर्म, अग्निप्रतिष्ठा, हवन एवं चातुर्मास्ययज्ञ; अ. ४-८. सोंयज्ञ, पशुयज्ञ एवं राजसूययज्ञ के मंत्र अ. ९-१०. सोंयज्ञ के मंत्र; अ. ११-१८. अग्निचयनविधि एवं मंत्र; अ. १९-२१. सौत्रामणियज्ञ के मंत्र; अ. २२-२५. अश्वमेधयज्ञ के मंत्र; अ. २६-३०, पुरुषमेध यज्ञरहस्य; अ. ३१. पुरुषसूक्त; अ. ३२. तत्त्वज्ञान उपनिषद्; अ. ३३-३४, पुरुषसूक्त; अ. ३२. तत्त्वज्ञान उपनिषद; अ. ३३-३४. शिवसंकल्योपनिषद्; अ. ३५. अंत्येष्टिमंत्र, अ. ३६-३९. प्रवर्ग्य मंत्र; अ. ४०, ईशावास्य उपनिषद । इनमें से अध्याय २६-३५ को ‘खिले’ परिशिष्ट कहते है ।यह संहिता गद्य एवं पद्य भागों से बनी है । उनमें से पद्य भाग ऋग्वेद से लिया गया है, एवं गद्य भाग नया है । उस गद्य भाग को ही ‘यजु:’ कहते है, जिस कारण इस वेद को यजुर्वेद नाम प्राप्त हुआ है ।इस वेद के श्रौतसूत्र की उचना कात्यायन ने की है । उसमें ‘श्रौत’ एवं ‘गृहा’ ये दोनों सूत्र समाविष्ट किये गये है, जिसमें से ‘गृह्य’ सूत्र ‘पारस्कर ग्रुहसुत्र’ नाम से सुविख्यात है । इन सूत्रों का प्रतिशाख्य भी कात्यायन के द्वारा ही विरचित है ।शुक्लयजुर्वेद का शिक्षाग्रंथ ‘याज्ञवल्क्यशिक्षा ’ है, जो इस वेद के उच्चारण की द्दष्टी से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । स्वर एवं उच्चारण की द्दष्टी से यह वेद अन्य वेदों से काफी अलग है । प्राय: इस वेद में ‘य’ एवं ‘प’ का उच्चारण क्रमश; ‘ज’ एवं ‘ख’ जेंसे किया जाता है । अनुस्वारों का उच्चारण भी सानुसानिक किया जाता है । इस वेदों के स्वर भी उच्चारण से व्यक्त करने के बदले, हाथों के द्वारा अधिकतर व्यक्त किये जाते हैं ।
याज्ञवल्क्य वाजसनेय n. इस ग्रंथ में एक हजार श्लोक हैं, जो तीन क्राण्डों में विभाजित किये गये हैं । यद्यपि इस ग्रंथ के सारंभ मे इसकी उचना का श्रेय ‘ शतपथ ब्राह्मण’ ‘योगशास्त्र’ आदि ग्रंथों के रचयिता योगीराज याज्ञवक्ल्य को दिया गया है, फिर भी ‘मिताक्षरा’ के अनुसार, इस ग्रंथ का रचयिता याज्ञवल्क्य न हो कर, इसका कोई शिष्य था । फिर भी इस ग्रंथ की विचारधारा शुक्लयजुर्वेद एवं तत्संबंधित अन्य ग्रंथों से काफी साम्य रखती है ।इस इंथ में प्राप्त व्यवहारविषयक विवरण अग्निपुराण में प्राप्त ‘व्यवहारकाण्ड’ से मिलता जुलता है । इस स्मृति में प्राप्त वेदान्तविषयक विवरण शंकराचार्य के ‘ब्रह्मसूत्र’ से काफी मिलता जुलता है
[याज्ञ. ३.६४, ६७, ६९, १०९, ११९, १२५, १४०, २०५] ।हर एक सप्ताह में अंतर्भूत किये गये ‘इतवार’, ‘सोंवार’ आदि वारो का संबंध आकाश में स्थित ‘रवि,’ ‘सों’ आदि ग्रहों से है, ऐसा स्पष्ट निर्देश याज्ञवल्क्यस्मृति में, प्राप्त हें । इस स्मृति में नाणक आदि सिक्कों का, एवं ताम्रपट, शिलालेख आदि उत्कीर्ण शिलालेखों का भी निर्देश प्राप्त है
[याज्ञ, १.२९६,३१५] । इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, इस ग्रंथ का रचनाकाल ई. स. पहली शताब्दी के लगभग होगा ।