पापियोंको प्राप्त होनेवाली नरकोंकी यातनाओंका वर्णन , भगवद्भक्तिका निरूपण
तथा धर्मराजके उपदेशसे भगीरथका गंगाजीको लानेके लिये उद्योग
धर्मराज कहते हैं -
राजा भगीरथ ! अब मैं पापोंके भेद औ स्थूल यातनाओंका वर्णन करूँगा। तुम धैर्य धारण करके सुनो ; क्योंकि नरक बड़े भयंकर होते हैं। जो दुरात्मा पापी सदा जिन नरकाग्रियोंमें पकाये जाते हैं , वे नरक पापका भयंकर फल देनेवाले हैं। मैं उन सबका वर्णन करता हूँ। उनेक नाम इस प्रकार हैं -तपन , बालुका , रौरव , महारौरव , कुम्भ , कुम्भीपाक , निरुच्छ्वास , कालसूत्र , प्रमर्दन , भयंकर असिपत्रवन , लालाभक्ष , हिमोत्कट , मूषावस्था ,वसारूप , वैतरणी नदी , श्वभक्ष्य , मूत्रपान , पुरीषह्लद , तप्तशूल , तप्तशिला , शाल्मली वृक्ष , शोणित कूप , भयानक शोणितभोजन , वह्लिज्वालानिवेशन , शिलावृष्टि , शस्त्रवृष्टि , अग्रिवृष्टि , क्षारोदक , उष्णतोय , तप्तायः पिण्डभक्षण , अधःशिरः - शोषण , मरुप्रतपन , पाषाणवर्षा ,कृमिभोजन , क्षारोदपान , भ्रमन , क्रकचदारण , पुरीष -लेपन , पुरीष -भोजन , महाघोर रेतःपान , सर्वसन्धिदाहन , धूमपान , पाशबन्ध , नानाशूलानुलेपन , अङ्रार -शयन , मुसलमर्दन , विविधकाष्ठयन्त्र , कर्षण , छेदन , पतनोत्पतन , गदादण्डादिपीडन , गजदन्तप्रहरण , नानासर्पदंशन , नासामुखशीताम्बुसेचन , घोरक्षाराम्बुपान , लवणभक्षण , स्नायुच्छेद , स्नायुबन्ध , अस्थिच्छेद , क्षाराम्बुपूर्णरन्ध्रप्रवेश , मांस -भोजन , महाघोर पित्तपान , श्लोष्म -भोजन , वृक्षाग्रापातन , जलान्तर्मज्जन , पाषाणधारण , कण्टकोपरिशयन , पिपीलिकादंशन , वृश्चिकपीडन , व्याघ्रपीडा , श्रृगालीपीडा ,महिष -पीडन , कर्दमशयन , दुर्गन्धपरिपूर्ण , बहुशस्नास्त्रशयन , महातिक्तनिषेवण , अत्युष्णतैलपान , महाकटुनिषेवण , कषायोदक -पान , तप्तपाषाण -तक्षण , अत्युष्णशीत -स्नान , दशनशीर्णन , तप्ताय :शयन और अयोभार -बन्धन। महाभाग ! इस तरह करोड़ों प्रकारकी नरक -यातनाएँ होती हैं। जिनका सहस्त्रों वर्षोंमें भी मैं वर्णन नहीं कर सकता।
भूपाल ! इन नरकोंमेंसे जिस पापीको जो प्राप्त होता है , वह सब मैं बतलाऊँगा। यह सब मेरे मुखसे सुनो। ब्रह्यहत्यारा , शराबी , सुवर्णकी चोरी करनेवाला , गुरुपत्नीगामी -ये महापातकी हैं। इनसे संसर्ग रखनेवाला पाँचवाँ महापातकी है। जो पङ्रक्तिभेद करता , बलिवैश्वदेवहीन होनेके कारण व्यर्थ ( केवल शरीरपोषणके लिये ही ) पाक बनाता , सदा ब्राह्यणोंको लाञ्छित करता , बाह्यणों या गुरुजनोंपर हुक्म चलाता और वेद बेचता है , ये पाँच प्रकारके पापी ब्रह्यघातक कहे गये हैं। ’ मैं आपको धन आदि दूँगा ’ यह आज्ञा देकर जो ब्राह्यणको बुलाता है और पीछे ’ नहीं है ’ ऐसा कहकर उसे सूखा जवाब दे देता है , उसे ब्रह्य -ह्त्यारा कहा गया है। जो स्नान अथवा पूजनके लिये जाते हुए ब्राह्यणके कार्यमें विघ्र डालता है , उसे भी ब्रह्यघाती कह्ते हैं। जो परायी निन्दा और अपनी प्रशंसामें लगा रहता है तथा जो असत्यभाषणमें रत रहता है , वह ब्रह्यहत्यारा कहा गया है। अधर्मका अनुमोदन करनेवालेको भी ब्रह्यघाती कहते हैं। जो दूसरोंको उद्वेगमें डालता , दूसरोंके दोषोंकी चुगली खाता और पाखण्डपूर्ण आचारमें तत्पर रहता है , उसे ब्रह्यहत्यारा बताया गया है। जो प्रतिदिन दान लेता , प्राणियोंके वधमें तत्पर रहता तथा अधर्मका अनुमोदन करता है , उसे भी ब्रह्यघाती कहा गया है। राजन् ! इस तरह नाना प्रकारके पाप ब्रह्यहत्याके तुल्य बताये गये हैं। अब मदिरापानके समान पापका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। गणान्न -भोजन ( कई जगहसे भोजन लेकर खाना ), वेश्यासेवन करना और पतित पुरुषोंका अन्न भोजन करना सुरापानके तुल्य माना गया है। उपासनाका त्याग , देवल पुरुष ( मन्दिरके पुजारी )-का अन्न खाना तथा शराब पीनेवाली स्त्रीसे सम्बन्ध रखना मदिरापानके समान माना गया है। जो द्विज शूद्रके यहाँ भोजन करता है , उसे सब धर्मोंसे बहिष्कृत शराबी ही समझना चाहिये। जो शूद्रके आज्ञानुसार दासका कर्म करता है , वह नराधन ब्राह्यण मदिरापानके समान पापका भागी होता है। इस तरह अनेक प्रकारके पाप मदिरापानके तुल्य माने गये हैं।
अब मैं सुवर्णकी चोरीके समान पापका वर्णन करता हूँ , सुनो। कंद , मूल , फल , कस्तूरी , रेशमी वस्त्र तथा रत्नोंकी चोरीको सदा सुवर्णकी चोरीके ही समान माना गया है। ताँबा , लोहा , राँगा , काँस , घी , शहद और सुगन्धित द्रव्योंका अपहरण करना सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है। सुपारी , जल , चन्दन तथा कपूरका अपहरण भी सुवर्णकी चोरीके समान है। श्राद्धका त्याग , धर्मकार्यका लोप करना और यति पुरुषोंकी निन्दा करना भी सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है। भोजनके योग्य पदार्थोंका अपहरण , विविध प्रकारके अनाजोंकी चोरी तथा रुद्राक्षका अपहरण भी सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है।
अब गुरुपत्नीगमनके समान पापका वर्णन किया जाता है। भगिनी , पुत्र -वधू तथा रजस्वला स्त्रीके साथ संगम करना गुरुपत्नीगमनके समान माना गया है। नीच जातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखना , मदिरा पीनेवाली स्त्रीसे सहवास करना तथा परायी स्त्रीके साथ सम्भोग करना गुरुतल्पगमनके समान माना गया है। भाईकी स्त्रीके साथ गमन , मित्रकी स्त्रीका सेवन तथा अपनेपर विश्वास करनेवाली स्त्रीके सतीत्वका अपहरण भी गुरुतल्पगमनके समान माना गया है। असमयमें मैथुन कर्म करना , पुत्रीगमन करना तथा धर्मका लोप और शास्त्रकी निन्दा करना -यह सब गुरुपत्नीगमनके समान माना गया है। राजन् !इस प्रकारके पाप महापातक कहे गये हैं। इनमेंसे किसी एकके साथ भी संसर्ग रखनेवाला पुरुष उसके समान हो जाता है। शान्तचित्त महर्षियोंने जिस किसी प्रकार प्रायश्चित्त आदिकी व्यवस्थाद्वारा इन पापोंके निवारणका उपाय देखा है।
भूपते ! जो पाप प्रायश्चित्तसे रहित हैं , उनका वर्णन सुनो। वे पाप समस्त पापोंके तुल्य तथा बड़े भारी नरक देनेवाले हैं। ब्रह्यहत्या आदि पापोंके निवारणका उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है ; परंतु जो ब्राह्यणसे द्वेष करता है , उसका कहीं भी निस्तार नहीं होता। नरेश्वर ! जो विश्वासघाती , कृतघ्र तथा शूद्रजातीय स्त्रीका सङ्र करनेवाले हैं , उनका उद्धार कभी नहीं होता। जिनका चित्त वेदोंकी निन्दामें ही रत है और जो भगवत् -कथा -वार्ता आदिकी निन्दा करते हैं , उनका इहलोक तथा परलोकमें कहीं भी उद्धार नहीं होता। प्रायश्चित्तहीन और भी बहुत -से पाप हैं , उनका परिच्य मेरे नरक -वर्णनके साथ सुनो। जो महापातकी बताये गये हैं , वे उन प्रत्येक नरकमें एक -एक युग रह्ते हैं और अन्तमें इस पृथ्वीपर आकर वे सात जन्मोंतक गदहे होते हैं , तदनन्तर वे पापी द्स जन्मोंतक घावसे भरे शरीरवाले कुत्ते होते हैं . फिर सौ वर्षोंतक उन्हें विष्ठाका कीड़ा होना पड़्ता है। तदनन्तर बारह जन्मोंतक वे सर्प होते हैं। राजन् ! इसके बाद एक हजार जन्मोंतक वे मृग आदि पशु होते हैं। फिर सौ वर्षोंतक स्थावर ( वृक्ष आदि ) योनिमें जन्म लेते हैं। तत्पश्चात् उन्हें गोधा ( गोह )-का शरीर प्राप्त होता है। फिर सात जन्मोंतक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं। इसके बाद सोलह जन्मोंतक उन्हें नीच जातियोंमें जन्म लेना पड़ता है। फिर दो जन्मतक वे दरिद्र , रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेनेवाले होते हैं , इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है। जिनका चित्त असूया ( गुणोंमें दोषदृष्टि )-से व्याप्त है , उनके लिये रौरव नरककी प्राप्ति बतायी गयी है। वहाँ दो कल्पोंतक स्थित रहकर वे सौ जन्मोंतक चाण्डाल होते हैं। जो गाय , अग्रि और व्राह्यणके लिये ’ न दो ’ ऐसा कहकर बाधा डालते हैं , वे सौ बार कुत्तोंकी योनिमें जन्म लेकर अन्तमें चाण्डालोंके घर उत्पन्न होते हैं। इसके बाद वे विष्ठाके कीड़े होते हैं। फिर तीन जन्मोंतक व्याघ्र होकर अन्तमें इक्कीस युगोंतक नरकमें पड़े रहते हैं। जो परायी निन्दामें तत्पर , कटु भाषी और दानमें विघ्र डालनेवाले होते हैं , उनके पापका यह फल है। चोर मुसल और ओखलीके द्वारा चूर्ण किये जाते हैं। उसके बाद उन्हें तीन वर्षोंतक तपाया हुआ पत्थर उठाना पड़ता है , तदनन्तर वे सात वर्षोंतक कालसूत्रसे विदीर्ण किये जाते हैं। उस समय पराये धनका अपहरण करनेवाले वे चोर अपने पाप -कर्मके लिये शोक करते हुए कर्मके फलसे निरन्तर नरकाग्रिमें पकाये जाते हैं। जो दूसरोंके दोष बताते या चुगुली खाते हैं , उन्हें जिस भयंकर नरककी प्राप्ति होती है , वह सुनो। उन्हें एक सहस्त्र युगतक तपाये हुए लोहेका पिण्ड भक्षण करना पड़ता है। अत्यन्त भयानक सँड़सोंसे उनकी जीभको पीड़ा दी जाती है और वे अत्यन्त घोर निरुच्छ्वास नामक नरकमें आधे कल्पतक निवास करते हैं। अब पर -स्त्री -लम्पट पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले नरकका तुमसे वर्णन करता हूँ। तपाये हुए ताँबेकी स्त्रियाँ सुन्दर रूप और आभरणोंसे युक्त होकर उनके साथ हठपूर्वक दीर्घकालतक रमण करती हैं। उनका रूप वैसा ही होता है , जैसी स्त्रियोंके साथ वे इस लोकमें सम्बन्ध रखते रहे हैं। वह पुरुष उनके भयसे भागता है और वे बलपूर्वक उसे पकड़ लेती हैं तथा उसके पाप -कर्मका परिचय देती हुई उन्हें क्रमशः विभिन्न नरकोंमें पहुँचाती हैं। भूपाल ! इस लोकमें जो स्त्रियाँ अपने पतिको त्यागकर दूसरे पुरुषकी सेवा स्वीकार करती है , उन्हें यमलोकमें तपाये हुए लोहेके बलवान् पुरुष लोहेकी तपी हुई शय्यापर बलपूर्वक गिराकर उनके साथ बहुत समयतक रमण करते हैं। उनसे छूटनेपर वे स्त्रियाँ अग्रिके समान प्रज्वलित लोहेके खंभेका आलिङ्रन करके एक हजार वर्षतक खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् उन्हें नमक मिलाये जलसे नहलाया जाता है और खारे पानीका ही सेवन कराया जाता है। उसके बाद वे सौ वर्षोंतक सभी नरकोंकी यातनाएँ भोगती है। जो मनुष्य ब्राह्यण , गौ और श्रेष्ठ क्षत्रिय राजाका इस लोकमें वध करता है , वह भी पाँच कल्पोंतक सम्पूर्ण यातनाओंको भोगता है। जो महापुरुषोंकी निन्दाको आदरपूर्वक सुनता है , उसका फल सुनो ; ऐसे लोगोंके कानोंमें तपाये हुए लोहेकी बहुत -सी कीलें ठोंक दी जाती हैं। तत्पश्चात् कानोंके उन छिद्रोंमें अत्यन्त गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है। फिर वे कुम्भीपाक नरकमें पड़्ते हैं। जो लोग भगवान् शिव और विष्णुसे विमुख एवं नास्तिक हैं , उनको मिलनेवाले फलोंका वर्णन करता हूँ। वे यमलोकमें करोड़ों बर्षोंतक केवल नमक खाते हैं। उसके बाद एक कल्पतक तपी हुई बालूसे पूर्ण रौरव नरकमें डाले जाते हैं। राजन् ! इसी प्रकार अन्य नरकोंमें भी वे पापाचारी जीव अपने पापोंका फल भोगते हैं। जो नराधम कोपपूर्ण दृष्टिसे ब्राह्यणोंकी ओर देखते हैं , उनकी आँखमें हजारों तपी हुई सूइयाँ चुभो दी जाती हैं। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर वे नमकीन पानीकी धारासे भिगोये जाते हैं , इसके बाद उन पापकर्मियोंको भयंकर क्रकचों ( आरों ) से चीरा जाता है। राजन् ! जो लोग विश्वासघाती , मर्यादा तोड़नेवाले तथा पराये अन्नके लोभी हैं , उन्हें जिस भयंकर नरककी प्राप्ति होती है , वह सुनो। वे अपना ही मांस खाते हैं और उनके शरीरको वहाँ प्रतिदिन कुत्ते नोच खाते हैं। उन्हें सभी नरकोंमें एक -एक वर्ष निवास करना पड़ता है। जो सदा दान ही लिया करते हैं , जो केवल नक्षत्रोंके ही पढ़नेवाले ( नक्षत्र -विद्यासे जीविका करनेवाले ) हैं तथा जो सदा देवलक ( पुजारी )-का अन्न भोजन करते हैं , उनकी क्या दशा होती है , वह भी मुझसे सुनो। राजन ! वे पापसे पूर्ण जीव एक कल्पतक इन सभी यातनाओंमें पकाये जाते हैं और वे सदा दुःखी रहकर निरन्तर कष्ट भोगते रह्ते हैं। तत्पश्चात् कालसूत्रसे पीड़ित हो तेलमें डुबोये जाते हैं। फिर उन्हें नमकीन जलसे नहलाया जाता है और उन्हें मल -मूत्र खाना पड़ता है। इसके बाद वे पृथ्वीपर आकर म्लेच्छ जातिमें जन्म लेते हैं। जो सदा दूसरोंको उद्वेगमें डालनेवाले हैं , वे वैतरणी नदीमें जाते हैं। पञ्च महायज्ञोंका त्याग करनेवाले पुरुष लालाभक्ष नरकमें पड़्ते हैं। वहाँ उन्हें लार खाना पड्ता है। उपासनाका त्याग करनेवाला पुरुष रौरव नरकमें जाता है। भूपाला ! जो ब्राह्यणोंके गाँवसे ’ कर ’ लेते हैं , वे जबतक चन्द्रमा और तारोंकी स्थिति रहती है , तबतक इन नरकयातनाओंमें पकाये जाते हैं। जो राजा गाँवोंमें अधिक ’ कर ’ लगात है , वह पाँच कल्पोंतक सहस्त्रों पीढ़ियोंके साथ नरक भोगता है। राजन् ! जो पापी ब्राह्यणोंके गाँवसे ’कर ’ लेनेकी अनुमति देता है , उसने मानो सहत्रों ब्रह्यहत्याएँ कर डालीं। वह दो चतुर्युगीत महाघोर कालसूत्रमें निवास करता है। जो महापापी अयोनि ( योनिसे भिन्न स्थान ), वियोनि ( विजातीय योनि ) और पशुयोनिमें वीर्यत्याग करता है , वह यमलोकमें वीर्य ही भोजनके लिये पाता है। तप्तश्चात् चर्बीसे भरे हुए कुएँमें डाला जाकर वहाँ सात दिव्य वर्षोंतक केवल वीर्य भोजन करके रहता है। उसके बाद मनुष्य होकर सम्पूर्ण लोकोंमें निन्दाका पात्र बनता है। राजन् ! जो उपवासके दिन दाँतुन करता है , वह चार युगोंतक व्याघ्रभक्ष नामक घोर नरकमें पड़ा रहता है ; जिसमें व्याघ्र उसका मांस खाते हैं। जो अपने कर्मोंका परित्याग करनेवाला है , उसे विद्वान् पुरुष पाखण्डी कहते हैं। उसका साथ करनेवाला भी उसीके समान हो जाता है। वे दोनों अत्यन्त पापी हैं और सहस्त्रों कल्पोंतक क्रमशः नरक -यातनाएँ भोगते हैं। राजन् ! जो देवता -सम्बन्धी द्रव्यका अपहरण करनेवाले और गुरुका धन चुरानेवाले हैं , वे ब्रह्यहत्याके समान पापका फल भोगते हैं। जो अनाथका धन हड़प लेते और अनाथसे द्वेष करते हैं , वे कोटिकल्पसहस्त्रोंतक नरकमें निवास करते हैं। जो स्त्रियों और शूद्रोंके समीप वेदाध्ययन करते हैं , उनके पापका फल बतलाता हूँ , ध्यान देक सुनो। उनका सिर नीचे करके पैर ऊपर कर दिया जाता है और दोनों पैरोंको दो खंभोंमें काँटसे जड़ दिया जाता है। फिर वे ब्रह्याजीके एक वर्षतक प्रतिदिन धुआँ पीकर रह्ते हैं। जो जल और देवमन्दिरमें तथा उनके समीप अपने शारीरिक मलका त्याग करता है , वह भ्रूणहत्याके समान अत्यन्त भयानक पापको प्राप्त होता है। जो ब्राह्यणका धन तथा सुगन्धित काष्ठ चुराते हैं , वे चन्द्रमा और तारोंकी स्थितिपर्यन्त घोर नरकमें पड़े रह्ते हैं। राजन् ! ब्राह्यणके धनका अपहरण इहलोक और परलोकमें भी दुःख देनेवाला है। इस लोकमें तो वह धनका नाश करता है और परलोकमें नरककी प्राति कराता है। जो झूठी गवाही देता है , उसके पापका फल सुनो। वह जबतक चौदह इन्द्रोंका राज्य समाप्त होता है , तबतक चौदह इन्द्रोंका राज्य समाप्त होता है , तबतक सम्पूर्ण यातनाओंको भोगता रहता है। इस लोकमें उसके पुत्र -पौत्र नष्ट हो जाते हैं और परलोकमें वह रौरव तथा अन्य नरकोंको क्रमशः भोगता है। जो मनुष्य अत्यन्त कामी और मिथ्यावादी हैं , उनके मुँहमें सर्पके समान जोकें भर दी जाती हैं। इस अवस्थामें उन्हें साठ हजार वर्षोंतक रहना पड़ता है। तत्पश्चात् उन्हें खारे पानीसे नहलाया जाता है। मनुजेश्वर ! जो ऋतुकालमें अपनी स्त्रीसे सहवास नहीं करते , वे ब्रह्यहत्याका फल पाते और घोर नरकमें जाते हैं। जो किसीको अत्याचार करते देखकर शक्ति होते हुए भी उसका निवारण नहीं करता , वह भी उस अत्याचारके पापका भागी होता है और वे दोनों नरकमें पड़्ते हैं। जो लोग पापियोंके पापोंकी गिनती करके दूसरोंको बताते हैं , वे पाप सत्य होनेपर भी उनके पापके भागी होते हैं। राजन् ! यदि वे पाप झूठे निकले तो कहनेवालेको दूने पापका भागी होना पड़ता है। जो पापहीन पुरुषमें पापका आरोप करके उसकी निन्दा करता है . वह चन्द्रमा और तारोंके स्थितिकालतक घोर नरकमें रहता है। जो व्रत लेकर उन्हें पूर्ण किये बिना ही त्याग देता है , वह असिपत्रवनमें पीड़ा भोगकर पृथ्वीपर किसी अड्रसे हीन होकर जन्म लेता है। जो मनुष्य दूसरोंद्वारा किये जानेवाले व्रतोंमे विघ्र डालता है , वह मनुष्य अत्यन्त दुःखदायक और भयंकर श्लोष्म भोजन नामक नरक्में , जहाँ कफ भोजन करना पड़्ता है , जाता है। जो न्याय करने तथा धर्मकी शिक्षा देनेमें पक्षपात करता है , वह दस हजार प्रायश्चित्त कर ले तो भी उस पापसे उसका उद्धार नहीं होता। जो अपने कटुवचनोंसे ब्राह्यणोंका अपमान करता है , वह ब्रह्यहत्याको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण नरकोंकी यातनाएँ भोगकर दस जन्मोंतक चाण्डाल होता है। जो ब्राह्यणको कोई चीज देते समय विघ्र डालता है , उसे ब्रह्यहत्याके समान प्रायश्चित्त करना चाहिये। जो दूसरेका धन चुराकर दूसरोंको दान देता है , वह चुरानेवाला तो नरकमें जाता है और जिसका धन होता है , उसीको उस दानका फल मिलता है। जो कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके नहीं देता है , वह लालाभक्ष नरकमें जाता है। राजन् ! जो संन्यासीकी निन्दा करता है , वह शिलायन्त्र नामक नरकमें जाता है। बगीचा काटनेवाले लोग इक्कीस युगोंतक श्वभोजन नामक नरकमें रह्ते हैं , जहाँ कुत्ते उनका मांस नोचकर खाते हैं। फिर क्रमशः वह सभी नरकोंकी यातनाएँ भोगता है।
भूपते ! जो देवमन्दिर तोड़्ते , पोखरा नष्ट करते और फुलवारी उजाड़ देते हैं , वे जिस गतिको प्राप्त होते हैं , वह सुनो। वे इन सब यातनाओं ( नरकों )-में पृथक् --पृथक् पकाये जाते हैं। अन्तमें इक्कीस कल्पोंतक वे विष्ठाके कीड़े होते हैं। राजन् ! उसके बाद वे सौ बार चाण्डालकी योनिमें जन्म लेते हैं। जो जूठा खाते और मित्रोंसे द्रोह करते हैं , उन्हें चन्द्रमा और सूर्यके स्थितिकालतक भयंकर नरकयातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। जो पितृयज्ञ और देवयज्ञका उच्छेद करते तथा वैदिक मार्गसे बाहर हो जाते हैं , वे पाखण्डीके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें सब प्रकारकी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। राजा भगीरथ ! इस प्रकार पापियोंके लिये अनेक प्रकारकी यातनाएँ हैं। प्रभो ! मैं नरकों और उनकी प्रकारकी यातनाएँ हैं। प्रभो ! मैं नरकों और उनकी यातनाओंकी गणना करनेमें असमर्थ हूँ। भूपते ! पापों , यातनाओं तथा धर्मोंकी संख्या बतलानेके लिये संसारमें भगवान विष्णुके सिवा दूसरा कौन समर्थ है ? इन सब पापोंका धर्मशास्त्रकी विधिसे प्रायश्चित्त कर लेनेपर पापराशि नष्ट हो जाती है। धार्मिक कृत्योंमें जो न्यूनाधिकता रह जाती है , उसकी पूर्तिके लिये लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके समीप पूर्वोक्त पापोंके प्रायश्चित्त करने चाहिये। गंगा , तुलसी , सत्सङ्र , हरिकीर्तन , किसीके दोष न देखना और हिंसासे दूर रहना --ये सब बातें पापोंका नाश करनेवाली होती हैं। भगवान् विष्णुको अर्पित किये हुए कर्म निश्चय ही सफल होते हैं। जो कर्म उन्हें अर्पित नहीं किये जाते , वे राखमें डाली हुई आहुतिके समान व्यर्थ होते हैं। नित्य , नैमित्तिक , काम्य तथा जो मोक्षके साधनभूत कर्म हैं , वे सब भगवान् विष्णुके समर्पित होनेपर सात्त्विक और सफल होते हैं।
भगवान् विष्णुकी उत्तम भक्ति सब पापोंका नाश करनेवाली है। नृपश्रेष्ठा ! सात्त्विक , राजस और तामस आदि भेदोंसे भक्ति द्स प्रकारकी जाननी चाहिये। वह पापरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके समान है। राजन् ! जो दूसरेका विनाश करनेके लिये भगवान् लक्ष्मीपतिका भजन किया जाता है , वह ’ अधमा तामसी ’ भक्ति है ; क्योंकि वह दुष्टभाव धारण करनेवाली है। जो मनमें कपटबुद्धि रखकर , जैसे व्यभिचारिणी स्त्री अपने पतिकी सेवा करती है , उस प्रकार जगदीश्वर भगवान् नारायणका पूजन करता है , उसकी वह ’ मध्यमा तामसी ’ भक्ति है। पृथ्वीपाल ! जो दूसरोंको भगवान्की आराधनामें तप्तर देखकर ईर्ष्यावश स्वयं भी भगवान् श्रीहरिकी पूजा करता है , उसकी वह क्रिया ’ उत्तमा तामसी ’ भक्ति मानी गयी है। जो धन -धान्य आदिकी याचना करते हुए परम श्रद्धाके साथ श्रीहरिकी अर्चना करता है , वह पूजा ’अधमा राजसी ’ भक्ति मानी गयी है। जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात कीर्तिका उद्देश्य रखकर परम भक्तिभावसे भगवानकी आराधना करता है , उसकी वह क्रिया ’ मध्यमा राजसी ’ भक्ति कही गयी है। पृथ्वीपते ! जो सालोक्य और सारूप्य आदि पद प्राप्त करनेकि इच्छासे भगवान् विष्णुकी अर्चना करता है , उसके द्वारा की हुई वह पूजा ’ उत्तमा राजसी ’ भक्ति कही गयी है। जो अपने किये हुए पापोंका नाश करनेके लिये पूर्ण श्रद्धाके साथ श्रीहरिकी पूजा करता है , उसकी की हुई वह पूजा ’ अधमा सात्त्विकी ’ भक्ति मानी गयी है। ’ यह भगवान् विष्णुको प्रिय है ’ ऐसा मानकर जो श्रद्धापूर्वक सेवा -शुश्रूषा करता है , उसकी वह सेवा ’ मध्यमा सात्त्विकी ’ भक्ति है। राजन् ! ’ शास्त्रकी ऐसी ही आज्ञा है ’ यह मानकर जो दासकी भाँति भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा -अर्चा करता है , उसकी वह भक्ति सब प्रकारकी भक्तियोंमें श्रेष्ठ ’ उत्तमा सात्त्विकी ’ भक्ति मानी गयी है। जो भगवान् विष्णुकी थोड़ी -सी भी महिमा सुनकर परम संतुष्ट हो उनके ध्यानमें तन्मय हो जाता है , उसकी वह भक्ति ’ उत्तमोत्तमा ’ मानी गयी है। ’ मैं ही परम विष्णुरूप हूँ ,मुझमें यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है। ’ इस प्रकार जो सदा भगवान्से अपनेको अभिन्न देखता है , उसे उत्तमोत्तम भक्त समझना चाहिये। यह द्स प्रकारकी भक्ति संसार -बन्धनका नाश करनेवाली है। उसमें भी सात्त्विकी भक्ति सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फल देनेवाली है। इसलिये भूपाल ! सुनो -संसारको जीतनेकी इच्छावाले उपासकको अपने कर्मका त्याग न करते हुए भगवान् जनार्दनकी भक्ति करनी चाहिये। जो स्वधर्मका परित्याग करके भक्तिमात्रसे जीवन धारण करता है , उसपर भगवान् विष्णु संतुष्ट नहीं होते। वे तो धर्माचरणसे संतुष्ट होते हैं। सम्पूर्ण आगमोंमें आचारको प्रथम स्थान दिया गया है। आचारसे धर्म प्रकट होता है और धर्मके स्वामी साक्षात् भगवान् विष्णु हैं। इसलिये स्वधर्मका विरोधन करते हुए श्रीहरिकी भक्ति करनी चाहिये। सदाचारशून्य मनुष्योंके धर्म भी सुख देनेवाले नहीं होते। स्वधर्मपालनके बिना की हुई भक्ति भी नहीं की हुईके समान कही गयी है। राजन् ! तुमने जो कुछ पूछा था , वह सब मैंने कह दिया। अतः तुम अपने धर्ममें तत्पर रहकर सूक्ष्म -से -सूक्ष्म स्वरूपवाले जनार्दन भगवान् नारायणका पूजन करो। इससे तुम्हें सनातन सुखकी प्राप्ति होगी। भगवान् शिव ही साक्षात् श्रीहरि हैं और श्रीहरि ही स्वयं शिव हैं। इन दोनोंमें भेद देखनेवाला दुष्ट पुरुष करोड़ों नरकोंमें जाता है। इसलिये भगवान् विष्णु और शिवको समान समझकर उनकी आराधना करो। इनमें भेददृष्टि करनेवाला मनुष्य इहलोक और परलोकमें भी दुःख पाता है। जनेश्वर ! मैं जिस कार्यके लिये तुम्हारे पास आया था , वह तुम्हें बतलाता हूँ। सुमते ! सावधान होकर सुनो। राजन् ! आत्मघातका पाप करनेवाले तुम्हारे पितामहगण महात्मा कपिलके क्रोधसे दग्ध हो गये हैं और इस समय वे नरकमें निवास करते हैं। महाभाग ! गंगाजीको लानेका पराक्रम करके तुम उनका उद्धार करो। भूपते ! गंगाजी निश्चय ही सब पापोंका नाश कर देती हैं। नृपश्रेष्ठ ! मनुष्यके केश , हड्डी , नख , दाँत तथा शरीरकी भस्म भी यदि गंगाजीके शरीरसे छू जायँ तो वे भगवान् विष्णुके धाममें पहुँचा देती हैं। राजन् ! जिसकी हड्डी अथवा भस्मको मनुष्य गंगाजीमें डाल देते हैं , वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् श्रीहरिके धाममें चला जाता है। भूपते ! अबतक जितने भी पाप तुम्हें बताये गये हैं , वे सब गंगाजीके एक बिन्दुका अभिषेक होनेसे नष्ट हो जाते हैं।
श्रीसनकजी कहते हैं --
मुनिश्रेष्ठ नारद ! धर्मात्मा महाराज भगीरथसे ऐसा कहकर धर्मराज तत्काल अन्तर्धान हो गये। तब सब शास्त्रोंके पारगामी महाबुद्धिमान् राजा भगीरथ सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य मन्त्रियोंको सौंपकर स्वर्य वनको चले गये। वहाँसे हिमालयपर जाकर नर -नारयणके आश्रमसे पश्चिमकी तरफ बर्फसे ढ़के हुए एक शिखरपर , जो सोलह योजन विस्तृत है , उन्होंने तपस्या की और त्रिभुवनपावनी गंगाको वे इस भूतलपर ले आये।