चारों वर्णों और द्विजका परिचय तथा विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्मका वर्णन
सूतजी कहते हैं -
महर्षियो ! सनकजीके मुखसे एकादशी -व्रतका यह माहत्म्य जो अप्रमेय , पवित्र , सर्वोत्तम तथा पापराशिको शान्त करनेवाला है , सुनकर बुह्यपुत्र नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और फिर इस प्रकार बोले।
नारदजीने कहा -
महर्षे ! आप बड़े तत्त्वज्ञ हैं। आपने भगवान्की भक्ति देनेवाले तथा परम पुण्यमय व्रत -सम्बन्धी इस आख्यानका यथार्थरूपसे पूरा -पूरा वर्णन किया है। मुने ! अब मैं चारों वर्णोंके आचारकी विधि और सम्पूर्ण आश्रमोंके आचार तथा प्रायश्चित्तकी विधि सुनना चाहता हूँ। महाभाग ! मुझपर बड़ी भारी कृपा करके यह सब मुझे यथार्थरूपसे बताइये।
श्रीसनकजी बोले -
मुनिश्रेष्ठ ! सुनिये। भक्तोंका प्रिय करनेवाले अविनाशी श्रीहरि वर्णाश्रम -धर्मका पालन करनेवाले पुरुषोंद्वारा जिस प्रकार पूजित होते हैं , वह सब बतलाता हूँ। मनु आदि स्मृतिकारोंने वर्ण और बतलाता हूँ। मनु आदि स्मृतिकारोंने वर्ण और आश्रम -सम्बन्धी धर्मका जैसा वर्णन किया है , वह सब आपको विधिपूर्वक बतलाता हूँ ; क्योंकि आप भगवान्के भक्त हैं। ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र -ये चार ही वर्ण कहे गये हैं। इन सबमें बाह्यन श्रेष्ठ है। ब्राह्यण , क्षत्रिय और वैश्य --ये तीन द्विज कहे गये हैं। पहला जन्म मातासे और दूसरा उपनयन -संस्कारसे होता है। इन्हीं दो कारणोंसे तीनों वर्णोंके लोग द्विजत्व प्राप्त करते हैं। इन वर्णोंके लोगोंको अपने -अपने वर्णके अनुरूप सब धर्मोंका पालन करना चाहिये। अपने वर्णधर्मका त्याग करनेसे विद्वान् पुरुष उसे पाखण्डी कहते हैं। अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बताये हुए कर्मका अनुष्ठान करनेवाला द्विज कृतकृत्य होता है , अन्यथा वह सब धर्मोंसे बहिष्कृत एवं पतित हो जाता है। इन वर्णोंको यथोचित युगधर्मका धारण करना चाहिये तथा स्मृतिधर्मके विरुद्ध न होनेपर देशाचार भी अवश्य ग्रहण करना चाहिये। मन , वाणी और क्रियाद्वारा यत्नपूर्वक धर्मका पालन करना चाहिये।
द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रोंके सामान्य कर्तव्योंका वर्णन करता हूँ , एकाग्रचित्त होकर सुनो। ब्राह्यण ब्राह्यणोंको दान दे , यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे , जीविकाके लिये दूसरोंका यज्ञ करावे तथा दूसरोंको पढ़ावे। जो यज्ञके अधिकारी हों , उन्हींका यज्ञ करावे। ब्राह्यणको नित्य जलसम्बन्धी क्रिया -स्नानन -संध्या और तर्पण करना चाहिये। वह वेदोंका स्वाध्याय तथा अग्रिहोत्र करे। सम्पूर्ण लोकोंका हित करे , सदा मीठे वचन बोले और सदा भगवान् विष्णुकी पूजामें तत्पर रहे। द्विजश्रेष्ठ ! क्षत्रिय भी ब्राह्यणोंको दान दे। वह भी वेदोंका स्वाध्याय और यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे। वह शस्त्रग्रहणके द्वारा जीविका चलावे और धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करे। दुष्टोंको दण्ड दे और शिष्ट पुरुषोंकी रक्षा करे। द्विजसत्तम। वैश्यके लिये भी वेदोंका अध्ययन आवश्यक बताया गया है। इसके सिवा वह पशुओंका पालन , व्यापार तथा कृषिकर्म करे। सजातीय स्त्रीसे विवाह करे और धर्मोंका भलीभाँति पालन करता रहे। वह क्रय -विक्रय अथवा शिल्पकर्मद्वारा प्राप्त हुए धनसे जीविका चलावे। शूद्र भी ब्राह्यणोंको दान दे , किंतु पाकयज्ञोंद्वारा यजन न करे। वह ब्राह्यण , क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवामें तत्पर रहे और अपनी स्त्रीसे ऋतुकालमें सहवास करे।
सब लोगोंका हित चाहना , सबका मंगल -साधन करना , प्रिय वचन बोलना , किसीको कष्ट न पहुँचाना , मनको प्रसन्न रखना , सहनशील होना तथा घमंड न करना -यह सब मुनियोंने समस्त वर्णोंका सामान्य धर्म बतलाया है। अपने आश्रमोचित कर्मके पालनसे सब लोग मुनितुल्य हो जाते हैं। ब्रह्यन् ! आपत्तिकालमें ब्राह्यण क्षत्रियोचित आचारका आश्रय ले सकता है। इसी प्रकार अत्यन्त आपत्ति आनेपर क्षत्रिय भी वैश्यवृत्तिको ग्रहण कर सकता है ; परंतु भारी -से -भारी आपत्ति आनेपर भी ब्राह्यण कभी शूद्रवृत्तिका आश्रय न ले। यदि कोई मूढ़ ब्राह्यण शूद्रवृत्ति ग्रहण करता है तो वह चाण्डालभावको प्राप्त होता है। मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्यण , क्षत्रिय और वैश्य --इन तीनों वर्णोंके लिये ही चार आश्रम बताये गये हैं। कोई पाँचवाँ आश्रम सिद्ध नहीं होता। साधुशिरोमणे ! ब्रह्यचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यास -ये ही चार आश्रम हैं। विप्रवर ! इन्हीं चार आश्रमोंद्वारा उत्तम धर्मका आचरण किया जाता है। जिसका चित्त कर्मयोगमें लगा हुआ है , उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिनके मनमें कोई कामना नहीं है , जिनका चित्त शान्त है तथा जो अपने वर्ण -आश्रमोचित कर्तव्यके पालनमें लगे रह्ते हैं , वे उस परम धामको प्राप्त होते हैं , जहाँसे पुनः इस संसारमें लौटकर आना नहीं पड़ता।