श्रीसनकजी कहते हैं -
नारदजी ! वेदाध्ययनकाल - तक ब्रह्यचारी निरन्तर गुरुकी सेवामें लगा रहे , उसके बाद उनकी आज्ञा लेकर अग्रिपरिग्रह ( गार्हपत्य - अग्रिकी स्थापना ) करे । द्विज वेद , शास्त्र और वेदाङ्रोंका अध्ययन करके गुरुको दक्षिणा देकर अपने घर जाय । वहाँ उत्तम कुलमें उत्पन्न , रूप और लावण्यसे युक्त , सद्गुणवती तथा सुशीला और धर्मपरायणा कन्याके साथ विवाह करे । जो कन्या रोगिणी हो अथवा किसी विशेष रोगसे युक्त कुलमें उप्तन्न हुई हो , जिसके केश बहुत बोलनेवाली हो , उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे । जो क्रोध करनेवाली , बहुत नाटी , बहुत बड़े शरीरवाली , कुरूपा , किसी अङ्रसे हीन या अधिक अङ्रवाली , उन्मादिनी और चुगली करनेवाली हो तथा जो कुबड़ी हो , उससे भी विवाह न करे । जो सदा दूसरेके घरमें रहती हो , झगड़ालू हो , जिसकी मति भ्रान्त हो तथा जो निष्ठुर स्वभावकी हो , जो बहुत खानेवाली हो , जिसके दाँत और ओठ मोटे हों , जिककी नाकसे घुर्घुराहटकी आवाज होती हो और जो धूर्त हो , उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे। जो सदा रोनेवाली हो , जिसके शरीरकी आभा श्वेत रंगकी हो , जो निन्दित , खाँसी और दमे आदिके रोगसे पीड़ित तथा अधिक सोनेवाली हो , जो अनर्थकारी वचन बोलती हो , लोगोंसे द्वेष रखती हो और चोरी करती हो , उससे विद्वान् पुरुष विवाह न करे । जिसकी नाक बड़ी हो , जो छल - कपट करनेवाली हो , जिसके शरीरमें अधिक रोएँ बढ़ गये हों तथा जो बहुत घमंडी और बगुलावृत्तिवाली ( ऊपरसे साधु और भीतरसे दुष्ट हो ), उससे भी विद्वान् पुरुष विवाह न करे ।
मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्य आदि आठ प्रकारके विवाह होते हैं , यह जानना चाहिये । इनमें पहला - पहला श्रेष्ठ है । पहलेवालेके अभावमें दूसरा श्रेष्ठ एवं ग्राह्य माना गया है । ब्राह्य , दैव , आर्ष , प्राजापत्य , आसुर , गान्धर्व , राक्षस तथा आठवाँ पैशाच विवाह है । श्रेष्ठ द्विजको ब्राह्यविवाहकी विधिसे विवाह करना चाहिये । अथवा दैवविवाहकी रीतिसे भी विवाह किया जा सकता है । कोई - कोई आर्ष - विवाहको भी श्रेष्ठ बतलाते हैं । ब्रह्यन् ! शेष प्राजापत्य आदि पाँच विवाह निन्दित हैं ।
( अब गृहस्थ पुरुषका शिष्टाचार बताया जाता है - ) दो यज्ञोपवीत तथा एक चादर धारण करे । कानोंमे सोनेके दो कुण्डल पहने । धोती दो रखे । सिरके बाल और नख कटाता रहे । पवित्रतापूर्वक रहे । स्वच्छ पगड़ी , छाता तथा चरणपादुका धारण करे । वेष ऐसा रखे जो देखनेमें प्रिय लगे । प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करे । शास्त्रोक्त आचारका पालन करे । दूसरोंका अन्न न खाय । दूसरोंकी निन्दा छोड़ दे । पैरसे पैरको न दबाये , जूठी चीजको न लाँघे । दोनों हाथोंसे अपना सिर न खुजलाये । पूज्य पुरुष तथा देवालयको बायें करके न चले । देवपूजा , स्वाध्याय , आचमन , स्त्रान , व्रत तथा श्राद्धकर्म आदिमें शिखाको खुली न रखे और एक वस्त्र धारण करके न रहे । गदहे आदिकी सवारी न करे । सूखा वाद - विवाद त्याग दे । परायी स्त्रीके पास कभी न जाय । ब्रह्यन् ! गौ , पीपल तथा अग्रिको भी अपनेसे बायें करके न जाय । इसी प्रकार चौराहेको , देववृक्षको , देवसम्बन्धी कुण्ड या सरोवरको तथा राजाको भी अपनेसे बायें करके न चले । दूसरोंके दोष देखना , डाह रखना और दिनमें सोना छोड़ दे । दूसरोंके पाप न कहे । अपना पुण्य प्रकट न करे । अपने नामको , जन्म - नक्षत्रको तथा मानको अत्यन्त गुप्त रखे । दुष्टोंके साथ निवास न करे । अशास्त्रीय बात न सुने । द्विजको मद्य , जूआ तथा गीतमें कभी आसक्ति नहीं रखनी चाहिये । गीली हड्डी , जूठी वस्तु , पतित तथा मुर्दा और कुत्तेको छूकर मनुष्य वस्त्रसहित स्त्रान कर ले । चिता , चिताकी लकड़ी , यूप , चाण्डालका स्पर्श कर लेनेपर मनुष्य वस्त्रसहित जलमें प्रवेश करे । दीपककी , खाटकी और शरीरकी छाया , केशका , वस्त्रका और चटाईका जल तथा बकरीके , झाड़ूके और बिल्लीके नीचेका धूल - ये सब शुभ प्रारब्धको हर लेते हैं । सूपकी हवा , प्रेतके दाहका धुआँ , शूद्रके अन्नका भोजन तथा वृषलीके पतिका साथ दूरसे ही त्याग दे । असत् शास्त्रोंके अर्थका विचार , नख और केशोंका दाँतोंसे चबाना तथा नंगे होकर सोना सर्वदा छोड़ दे । सिरमें लगानेसे बचे हुए तेलको शरीरमें न लगावे । अपवित्र ताम्बूल ( बाजारके लगाये हुए पान ) न खाय तथा सोतेको न जगाये । अशुद्ध हुआ मनुष्य अग्रिकी सेवा , देवताओं और गुरुजनोंका पूजन न करे । बायें हाथसे अथवा केवल मुखसे जल न पीये । मुनीश्वर ! गुरुकी छायापर पैर न रखे । उनकी आज्ञा भी न टाले योगी , व्राह्यण और यति पुरुषोंकी कभी निन्दा न करे । द्विजको चाहिये कि वह आपसकी गुप्त ( रहस्य )- की बातें कभी न कहे । अमावास्या तथा पूर्णिमाको विधिपूर्वक याग करे । द्विजोंको सुबह - शाम उपासना और होम अवश्य करने चाहिये । जो उपासनाका परित्याग करता , है , उसे विद्वान् पुरुष ’ शराबी ’ कहते हैं । अयन आरम्भ होनेके दिन , विषुवयोगमें ( जब दिन - रात बराबर होते हैं ), चार युगादि तिथियोंमें , अमावास्याको और प्रेतपक्षमें गृहस्थ द्विजको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये । नारदजी ! मन्वादि तिथियोंमें , मृत्युकी तिथिको , तीनों अष्टकाओंमें तथा नूतन अन्न घरमें आनेपर गृहस्थ पुरुष अवश्य श्राद्ध करे । कोई श्रोत्रिय ब्राह्यण घरपर आ जाय या चन्द्रमा और सूर्यका ग्रहण लगा हो अथवा पुण्यक्षेत्र एवं तीर्थ्में पहुँच जाय तो गृहस्थ पुरुष निश्चय ही श्राद्ध करे । जो उपर्युक्त सदाचारमें तत्पर हैं , उनपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! भगवान् विष्णुके प्रसन्न हो जानेपर क्या असाध्य रह जाता है ?