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भगवान्‌‍ विष्णुकी स्तुति

प्रथम पाद - भगवान्‌‍ विष्णुकी स्तुति

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


नारदजीने पूछा -

महाभाग ! वह कौन - सा स्तोत्र था और उसके द्वारा भगवान् ‌ विष्णु किस प्रकार संतुष्ट हुए ? पुण्यात्मा पुरुष उत्तङ्कजीने भगवान‌से कैसा वर प्राप्त किया ?

श्रीसनकजीने कहा -

भगवान् ‌‍ विष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले विप्रवर उत्तङ्कने उस समय भगवान्‌के चरणोदकका माहात्म्य देखकर उनकी भक्तिभावसे स्तुति की ।

उत्तङ्कजी बोले -

जो सम्पूर्ण जगत्‌के निवासस्थान और उसके एकमात्र बन्धु हैं , उन आदिदेव भगवान् ‌ नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ । जो स्मरण करनेमात्रसे भक्तजनोंकी सारी पीड़ा नष्ट कर देते हैं , अपने हाथोंमें चक्र , कमल , शार्ङ्रधनुष और खङ्र धारण करनेवाले उन महाविष्णुकी मैं शरण लेता हूँ । जिनकी नाभिसे प्रकट हुए कमलसे उत्पन्न होकर ब्रह्माजी इन सम्पूर्ण लोकोंके समुदायकी सृष्टि करते हैं और जिनके क्रोधसे प्रकट हुए भगवात् ‌ रुद्र इस जगत्‌का संहार किया करते हैं , उन आदिदेव भगवान् ‌‍ विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जो लक्ष्मीजीके पति हैं , जिनके कमलदलके समान विशाल नेत्र हैं , जिनकी शक्ति अद्भुत है , जो सम्पूर्ण जगत्‌के एकमात्र कारण तथा वेदान्तवेद्या पुराणपुरुष हैं , । जो सबके आत्मा , अविनाशी और सर्वव्यापी हैं , जिनका नाम अच्युत है , जो ज्ञानस्वरूप तथा ज्ञानियोंको शरण देनेवाले हैं , एकमात्र ज्ञानसे ही जिनके तत्त्वका बोध होता है , जिनका कोई आदि नहीं है , यह व्यष्टि और समष्टि जगत् ‌ जिनका ही स्वरूप है , वे भगवान् ‌ विष्णु मुझपर प्रसन्न हों । जिनकेअ बल और पराक्रमका अन्त नहीं है , जो गुण और जातिसे हीन तथा गुणस्वरूप हैं , ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ , नित्य तथा शर्णागतोंकी पीड़ा दूर करनेवाले हैं , वे दयासागर परमात्मा मुझे वर प्रदान करें । जो स्थूल और सूक्ष्म आदि विशेष भेदोंसे युक्त जगत्‌की यथायोग्य रचाना करके अपने बनाये हुए उस जगत्‌‍में स्वयं ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुए हैं , वह परमेश्वर आप ही हैं । हे अनन्त शक्ति - सम्पन्न परमान्मन् ‌‍ ! वह सब जगत् ‌‍ आप ही हैं ; क्योंकि अपसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है । भगवन् ‌‍ ! आपका जो शुद्ध स्वरूप है वह इन्द्रियातीत , मायाशून्य , गुण और जाति आदिसे रहित , निरञ्जन , निर्मल और अप्रमेय है । ज्ञानी संत - महात्मा उस परमार्थस्वरूपका दर्शन करते हैं । जैसे एक ही सुवर्णसे अनेक आभूषण बनते हैं और उपाधिके भेदसे उनके नाम और रूपमें भेद हो जाता है , उसी प्रकार सबके आत्मस्वरूप एक ही सर्वेश्वर उपाधि - भेदसे मानो भिन्न - भिन्न रूपोंमें दृष्टिगोचर होते हैं । जिनकी मायासे मोहित चित्तवाले अज्ञानी पुरुष आत्मारूपसे प्रसिद्ध होते हुए भी उनका दर्शन नहीं कर पाते और मायासे रहित होनेपर वे ही उन सर्वात्मा परमेश्वरको अपने ही आत्माके रुपमें देखने लगते हैं , जो सर्वत्र व्यापक , ज्योतिः - स्वरूप तथा उपमारहित हैं , उन विष्णुभगवान्‌को मैं प्रणाम करता हूँ । यहा सारा जगत् ‌‍ जिनसे प्रकट हुआ है , जिनके ही आधारपर स्थित है और जिनसे ही इसे चेतनता प्राप्त हुई है और जिनका ही यह स्वरूप है , उनको नमस्कार है ।जो प्रमाणकी पहुँचसे परे हैं , जिनका दूसरा कोई आधार नहीं है , जो स्वयं ही आधार और आधेयरूपा हैं , उन परमानन्दमय चैतन्यस्वरूप भगवान् ‌‍ वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ । सबकी हृदयगुहामें जिनका निवास है , जो देवस्वरुप तथा योगियोंद्वाराअ सेवित हैं और प्रणवमें उसके अर्थ एवं अधिदेवतारूपमें जिनकी स्थिति है , उन योगमार्गके आदिकारण परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ । जो नादस्वरूप , नादके बीज , प्रणवरूप , सत्स्वरूप अविनाशी तथा सच्चिदानन्दमय हैं , उन तीक्ष्ण चक्र धारण करनेवाले भगवान् ‌‍ विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जो जरा आदिसे रहित , इस जगत्‌‍के साक्षी , मन - वाणीके अगोचर , जिरञ्जन तथा अनन्त नामसे प्रसिद्ध हैं , उन विष्णुरूप भगवान्‌को मैं प्रणाम करता हूँ । इन्द्रिय , मन , बुद्धि , सत्त्व , तेज , बल , धृति , क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ - इन सबको भगवान् ‌‍ वासुदेवका स्वरूप कहा गया है । विद्या और अविद्या भी उन्हींके रूप हैं । वे ही परात्पर परमात्मा कहे गये हैं । जिनका आदि और अन्त नहीं है तथा जो सबका धारण - पोषण करनेवाले हैं , उन शान्तस्वरूप भगवान् ‌ अच्युतकी जो महात्मा शरण लेते हैं , उन्हें सनातन मोक्ष प्राप्त होता है । जो श्रेष्ठ , वरण करनेयोग्य़ , वरदाता , पुराण , पुरुष , सनातन , सर्वगत तथा सर्वस्वरूप हैं , उन भगवान्‌को मैं पुनः प्रणाम करता हूँ , पुन : प्रणाम करता हूँ , पुनः प्रणाम करता हूँ , पुन : प्रणाम करता हूँ । जिनका चरणोदक संसाररूपी रोगको दूर करनेवाला वैद्य है , जिनके चरणोंकी धूल निर्मलता ( अन्तः - शुद्धि ) का साधन है तथा जिनका नाम समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है , उन अप्रमेय पुरुष श्रीहरिकी मैं आराधना करता हूँ । जो सद्‌‍रूप , असद्‌रूप , सद्सद्‌‍रूप और उन सबसे विलक्षण हैं तथा जो श्रेष्ट एवं श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठतर हैं , उन अविवाशी भगवान् ‌‍ विष्णुका मैं भजन करता हूँ ।जो निरञ्जन , निराकार , सर्वत्र परिपूर्ण परमव्योममें विराजमान , विद्या और अविद्यासे परे तथा ह्रदयकमलमें अन्तर्यामीरूपसे निवास करनेवाले हैं , जो स्वयंप्रकाश , अनिर्देश्य ( जाति , गुण और क्रिया आदिसे रहित ), महान‌से भी परम महान् ‌‍ , सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म , अजन्मा , सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित , नित्य , परमानन्द और सनातन परब्रह्म हैं , उन जगन्निवास भगवान् ‌‍ विष्णुकी मै शरण लेता हूँ , योगीजन समाधिमें जिनका भजन करते है , योगीजन समाधिमें जिनका दर्शन करते हैं तथा जो पूज्यसे भी परम पूज्य एवं शान्त हैं , उन भगवान् ‌‍ श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ । विद्वान ‌‍ पुरुष भी जिन्हें देख नहीं पाते , जो इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त करके स्थित और सबसे श्रेष्ठ हैं , उन नित्य अविनाशी विभुको मैं प्रणाम करता हूँ । अन्तः करणके संयोगसे जिन्हें जीव कहा जाता है अविद्या भी उन्हींके रूप हैं । वे ही परात्पर परमात्मा कहे गये हैं । जिनका आदि और अन्त नहीं है तथाअ जो सबका धारण - पोषण करनेवाले हैं , उन शान्तस्वरूप भगवान् ‌‍ अच्युतकीजो महात्मा शरण लेते हैं , उन्हें सनातन मोक्ष प्राप्त होता है । जो श्रेष्ठ , वरण करनेयोग्य़ , वरदाता , पुराण , पुरुष , सनातन , सर्वगत तथा सर्वस्वरूप हैं , उन भगवानूको मैं पुनः प्रणाम करता हूँ . पुनः प्रणाम करता हूँ पुनः प्रणाम करता हूँ , पुन : प्रणाम करता हूँ । जिनका चरणोदक संसाररूपी रोगको दूर करनेवाला वैद्य है , जिनके चर्णोंकी धूल निर्मलता ( अन्तः - शुद्धि ) का साधन है तथा जिनक नाम समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है , उन अप्रमेय़ पुरुष श्रीहरिकी मैं आराधना करता हूँ । जो सद्‌‍रूप , असद्‌‍रूप , सदसद्‌‍रूप और उन सबसे विलक्षण हैं तथा जो श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठतर हैं , उन अविनाशी भगवान् ‌‍ विष्णुका मैं भजन करता हूँ । जो निर ‘ ञ्जन , निराकार , सर्वत्र परिपूर्ण परमव्योममें विराजमान , विद्या और अविद्यासे परे तथा ह्रदयकमलमें अन्तर्यामीरूपसे निवास करनेवाले हैं , जो स्वयंप्रकाश , अनिर्देश्य ( जाति , गुण और क्रिया आदिसे रहित ), महान्‌‍से भी परम महान् ‌‍, सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म , अजन्मा , सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित , नित्य , परमानन्द और सनातन परब्रह्म हैं , उन जगन्निवास भगवान ‌ विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ । क्रियानिष्ठ भक्त जिनका दर्शन करते हैं तथा जो पूज्यसे भी परम पूज्य एवं शान्त हैं , उन भगवान् ‌‍ श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ । विद्वान् ‌‍ पुरुष भी जिन्हें देख नहीं पाते , जो इस सम्पूर्ण जगत्‌के व्याप्त करके स्थित और सबसे श्रेष्ठ हैं , उन नित्य अविनाशी विभुको मैं प्रणाम करता हूँ । अन्तःकरणके संयोगसे जिन्हें जीव कहा जाता है और अविद्याके कार्यसे रहित होनेपर जो परमात्मा कहलाते हैं , यह सम्पूर्ण जगत् ‌‍ जिनका स्वरूप है , जो सबके कारण , समस्त कर्मोंके फलदाता , श्रेष्ठ , वरण करनेयोग्य तथा अजन्मा हैं , उन परात्पर भगवान्‌को मैं प्रणाम करता हूँ । जो सर्वज्ञ , सर्वगत , सर्वान्तर्यामी , ज्ञानके आश्रय तथा ज्ञानमें स्थित हैं , उन सर्वव्यापी श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ । जो वेदोंके निधि हैं , वेदान्तके विज्ञानद्वारा जिनके परमार्थस्वरूपका भलीभाँति निश्चय होता है . सूर्य और चन्द्रमाके तुल्य जिनके प्रकाशमान नेत्र हैं , जो ऐश्वर्यशाली इन्द्ररूप हैं , आकाशमें विचरनेवाले पक्षी एवं ग्रह - नक्षत्र आदि जिनके स्वरूप हैं तथा जो खगपति ( गरुड़ )- स्वरूप हैं , उन भगवान् ‌‍ मुरारिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो सबके ईश्वर , सबमें व्यापक , महान् ‌ वेदस्वरूप , वेद - वेत्ताओंमें श्रेष्ठ , वाणी और मनकी पहुँचसे परे , अनन्त शक्तिसम्पन्न तथा एकमात्र ज्ञानके ही द्वारा जाननेयोग्य़ हैं , उन परम पुरुष श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ । जिनकी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है , जो इन्द्र , अग्रि , यम , निऋति , वरुण , वायु , सोम , ईशान , सुर्य तथा पुरन्दर आदिके द्वारा स्वयं ही सब लोकोंकी रक्षा करते हैं , उन अप्रमेय परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ । जिनके सहस्त्रों मस्तक , सहस्त्रों पैर , सहस्त्रों भुजाएँ और सहस्त्रों नेत्र हैं , जो सम्पूर्ण यज्ञोंसे सेवित तथा सबको संतोष प्रदान करनेवाले हैं , उन उग्रशक्तिसम्पन्न आदिपुरुष श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो कालस्वरूप , काल - विभागके हेतु , तीनों गुणोंसे अतीत , गुणज्ञ , गुणप्रिय , कामना पूर्ण करनेवाले , निरीह , श्रेष्ठ , मनके द्वारा भी अगम्य , मनोमय और अन्नमय स्वरूप , सबमें व्याप्त , विज्ञानसे सम्पन्न तथा शक्तिशाली हैं , जो वाणीके विषय नहीं हो सकते तथा जो सबके प्राणस्वरूप हैं , उन भगवान्‌का मैं भजन करता हूँ । जिनके रूपको , जिनके बल और और प्रभावको , जिनके विविधा कर्मोंको तथा जिनके प्रमाणको ब्रह्या आदि देवता भी नहीं जानते , उन आत्मस्वरूप श्रीहरिकी स्तुति मैं कैसे कर सकता हूँ ? मैं संसार - समुद्रमें गिरा हुआ एक दीन मनुष्य हूँ , मोहसे व्याकुल हूँ , सैकड़ों कामनाओंने मुझे बाँध रखा है । मैं अकीर्तिभागी , चुगला , कृतघ्र , सदा अपवित्र , पापपरायाण तथा अत्यन्त क्रोधी हूँ । दयासागर ! मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये । मैं बार - बार आपकी शरण लेता हूँ।

महर्षि उत्तङ्के द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जानेपर परम दयालू तथा तेजोनिधि भगवान् ‌ लक्ष्मीपतिने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उनके श्रीअङ्रोंकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति श्याम थी । दोनों नेत्र खिले हुए कमलकी शोभा धारण करते थे । मस्तकपर किरीट , दोनों कानोंमें कुण्डल , गलेमें हार और भुजाओंमें केयूरकी अपूर्व शोभा हो रही थी । उन्होंने वक्ष : स्थलपर श्रीवत्सचिह्र और कौस्तुभमणि धारण कर रखी थी । सुवर्णमय यज्ञोपवीत उनके बायें कंधेपर सुशोभित हो रहा था । नाकमें पहनी हुई मुक्तामणिकी प्रभासे उनके श्रीअङ्रोंकी श्याम कान्ति और बढ गयी थी । वे श्रीनारायणदेव पीताम्बर धारण करके वनमालासे विभूषित हो रहे थे । तुलसीके कोमल दलोंसे उनके चरणारविन्दोंकी अर्चना की गयी थी । उनके श्रीविग्रहका महान् ‌‍ प्रकाश सब ओर छा रहा था । कटिप्रदेशमें किंकिणी और चरणोंमें नूपुर आदि आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे । उनकी फहराती हुई ध्वजामें गरुड़का चिह्ल सुशोभित था । इस रूपमें भगवान्‌‍का दर्शन करके विप्रवर उत्तङ्कने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़्कर उन्हें साष्टाङ्र प्रणाम किया और आनन्दके आँसुओंसे श्रीहरिके दोनों चरणोंको नहला दिया । फिर वे एकाग्रचित्त होकर बोले -’ मुरारे ! मेरी रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये । ’ तब परम दयाअलु भगवान् ‌‍ महाविष्णुने मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कको उठाकर छातीसे लगा लिया और कहा -’ वत्स ! कोई वर माँगो । साधुशिरोमणे ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ , अतः तुम्हारे लिये कुछ भी असम्भव नहीं है । ’ भगवान् ‌ चक्रपाणिके इस कथनको सुनकर महार्षि उत्तङ्कने पुन : प्रणाम किया और उन देवाधिदेव जनार्दनसे इस प्रकार कहा -’ भगवन् ‌‍ ! मुझे मोहमें क्यों डालते हैं ? देव ! मुझे दूसरे वरोंसे क्या प्रयोजन है ? मेरी तो जन्म - जन्मान्तरोंमें भी आपके चरणोंमें ही अविचल भक्ति बनी रहे । ’ तब जगदीश्वर भगवान् ‌‍ विष्णुने ’ एवमस्तु ’ ( ऐसा ही होगा ) यह कहकर शङ्खके सिरेसे उत्तङ्कजीके शरीरका स्पर्श कराया और उन्हें वह दिव्य ज्ञान दे दिया जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है । तदनन्तर पुन : स्तुति करते हुए विप्रवरा उत्तङ्कसे देवदेव जनार्दनने उनके सिरपर हाथ रखकर मुसकराते हुए कहा ।

श्रीभगवान् ‌‍ बोले -

जो मनुष्य तुम्हारे द्वारा किये हुए स्तोत्रका सदा पाठ करेगा , वह सम्पूर्ण कामनाओंको पाप्त करके अन्तमें मोक्षका भागी होगा ।

नारदजी ! ब्राह्यणसे ऐसा कहकर भगवान् ‌‍ लक्ष्मीपति वहीं अन्तर्धान हो गये । फिर उत्तङ्कजी भी वहाँसे बदरिकाश्रमको चलेअ गये । अतः सदा देवाधिदेव भगवान् ‌‍ विष्णुकी भक्ति करनी चाहिये । हरिभक्ति श्रेष्ठ कही गयी है । वह सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फलोंको देनेवाली है । मुने ! नरनारायणके आश्रममें जाकर उत्तङ्कजी क्रियायोगमें तत्पर हो प्रतिदिना भक्तिभावसे भगवान् ‌‍ माधवकी आराधान करने लगे । वे ज्ञान - विज्ञानसे सम्पन्न थे । उनका द्वैतभ्रम नाश हो चुका था । अतः उन्होंने भगवान् ‌‍ विष्णुके दुर्लभ परम पदको प्राप्त्कर लिया । भक्तोंकाअ सम्मान बढ़ानेवाले जगदीश्वर भगवान् ‌‍ नारायण पूजन , नमस्कार अथवा स्मरण कर लेनेपर भी जीवको मोक्ष प्रदान करते हैं । अतः इहलोक और परलोकमें सुख चाहनेवाला मनुष्य अनन्त , अपराजित श्रीनारायणदेवका भक्तिपूर्वक पूजन करे । जो इस उपाख्यानको पढ़्ता अथवा एकाग्रचित्त होकरा सुनता है , वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो भगवान् ‌‍ विष्णुके धाममें जाता है ।

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Last Updated : May 06, 2013

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