श्रीसनकजी कहते हैं -
नारदजी ! अब मैं प्रायश्चित्तकी विधिका वर्णन करूँगा , सुनिये ! सम्पूर्ण धर्मोंका फल चाहनेवाले पुरुषोंको काम - क्रोधसे रहित धर्मशास्त्रविशारद ब्राह्यणोंसे धर्मकी बात पूछनी चाहिये । विप्रवर ! जो लोग भगवान् नारायणसे विमुख हैं , उनके द्वारा किये हुए प्रायश्चित्त उन्हें पवित्र नहीं करते ; ठीक उसी तरह जैसे मदिराके पात्रको नदियाँ भी पवित्र नहीं कर सकतीं । ब्रह्महत्यारा , मदिरा पीनेवाला , स्वर्ण आदि वस्तुओंकी चोरी करनेवाला तथा गुरुपत्नीगामी - ये चार महापातकी कहे गये हैं । तथा इनके साथ सम्पर्क करनेवाला पुरुष पाँचवाँ महापातकी है । जो इनके साथ एक वर्षतक सोने , बैठने और भोजन करने आदिका सम्बन्ध रखते हुए निवास करता है , उसे भी सब कर्मोंसे पतित समझना चाहिये । अज्ञातवश ब्राह्यणहत्या हो जानेपर चीर - वस्त्र और जटा धारण करे और अपने द्वारा मारे गये ब्राह्मणकी कोई वस्तु ध्वज - दण्डमें बाँधकर उसे लिये हुए वनमें घूमे । वहाँ जंगली फल - मूलोंका आहार करते हुए निवास करे । दिनमें एक बार परिमित भोजन करे । तीनों समय स्त्रान और विधिपूर्वक संध्या करता रहे । अध्ययन और अध्यापन आदि कार्य छोड़ दे ।
निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करता रहे । नित्य ब्रह्यचर्यका पालन करे और गन्ध एवं माला आदि भोग्य वस्तुओंको छोड़ दे । तीथों तथा पवित्र आश्रमोंमें निवास करे । यदि वनमें फ - मूलोंसे जीविका न चले तो गाँवोंमें जाकर भिक्षा माँगे । इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करते हुए बारह वर्षका व्रत करे । इससे ब्रह्यहत्यारा शुद्ध होता और ब्राह्यणोचित कर्म करनेके योग्य़ हो जाता है । व्रतके बीचमें यदि हिंसक जन्तुओं अथवा रोगोंसे उसकी मृत्यु हो जाय तो वह शुद्ध हो जाता है । यदि गौओं अथवा ब्राह्यणोंके लिये प्राण त्याग दे या श्रेष्ठ ब्राह्यणोंको दस हजार उत्तम गायोंका दान करे तो इससे भी उसकी शुद्धि होती है । इनमेंसी भी प्रायश्चित्त करके ब्रह्यहत्यारा पापसे मुक्त हो सकता है । यज्ञमें दीक्षित क्षत्रियका वध करके भी ब्रह्यहत्याका ही व्रत करे अथवा प्रज्वलित अग्रिमें प्रवेश कर जाय या किसी ऊँचे स्थानसे वायुके झोंके खाकर गिर जाय । यज्ञमें दीक्षित ब्राह्यणकी हत्या करनेपर दुगुने व्रतका आचरण करे । आचार्य आदिकी हत्या हो जानेपर चौगुना व्रत बतलाया गया है । नाममात्रके ब्राह्यणकी ह्त्या हो जाय तो एक वर्षतक व्रत करे । ब्रह्यन् ! इस प्रकार ब्राह्यणके लिये प्रायश्चित्तकी विधि बतलायी गयी है । यदि क्षत्रियके द्वारा उपर्युक्त पाप हो जाय तो उसके लिये दुगुना और वैश्यके लिये तीनगुना प्रायश्चित्त बाताया गया है । जो शूद्व बाह्यणका वध करता है , उसे विद्वान् पुरुष मुशल्य ( मूसलसे मार डालने योग्य ) मानते हैं । राजाको ही उसे दण्ड देना चाहिये । यही शास्त्रोंका निर्णय है । ब्राह्यणीके वधमें आधा और ब्राह्यण - कन्याके वधमें चौथाई प्रायश्चित्त कहा गया है । जिनका यज्ञोपवीत - संस्कार न हुआ हो , ऐसे ब्राह्यण बालकोंका वध करनेपर भी चौथाई व्रत करे । यदि ब्राह्यण क्षत्रियका वध कर डाले तो वह छः वर्षोंतक कृच्छ्रव्रतका आचरण करे । वैश्यको मारनेपर तीन वर्ष और शुद्रको मारनेपर एक वर्षतक व्रत करे । यज्ञमें दीक्षित ब्राह्यणकी धर्मपत्नीका वध करनेपर आठ वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । मुनिश्रेष्ठ ! वृद्ध , रोगी , स्त्री और बालकोंके लिये सर्वत्र आधे प्रायश्चित्तका विधान बताया गया है ।
सुरा मुख्य तीन प्रकारकी जाननी चाहिये । गौड़ी ( गुड़्से तैयार की हुई ), पैष्टी ( चावलों आदिके आटेसे बनायी हुई ) तथा माध्वी ( फूलके रस , अंगूर या महुवेसे बनायी हुई ) । नारदजी ! चारों वर्णोंके पुरुषों तथा स्त्रियोंको इनमेंसे कोई भी सुरा नहीं पीनी चाहिये । मुने ! शराब पीनेवाला द्विज स्त्रान करके गीले वस्त्र पहने हुए मनको एकाग्र करके भगवान् नारायणका निरन्तर स्मरण करे और दूध , घी अथवा गोमूत्रको तपाये हुए लोहेके समान गरम करके पी जाय , फिर ( जीवित रहे तो ) जल पीवे । वह भी लौहपात्र अथवा आयसपात्रसे पीये या ताँबेके पात्रसे पीकर मृत्युको प्राप्त हो जाय । ऐसा करनेपर ही मदिरा पीनेवाला द्विज उस पापसे मुक्त होता है । अनजानमें पानी समझकर जो द्विज शराब पी ले तो विधिपूर्वक ब्रह्यहत्याका व्रत करे ; किंतु उसके चिह्लोंको न धारण करे । यदि रोग - निवृत्तिके लिये औषध - सेवनकी दृष्टिसे कोई द्विज शराब पी ले तो उसका फिर उपनयन - संस्कार करके उससे दो चान्द्रयण - व्रत कराने चाहिये । शराबसे छुवाये हुए पात्रमें भोजन करना , जिसमें कभी शराब रखी गयी हो उस पात्रका जल पीना तथा शराबसे भीगी हुई वस्तुको खाना यह सब शराब पीनेके ही समान बताया गया है । ताड़ , कटहल , अंगूर , खजूर और महुआसे तैयार की हुई तथा पत्थरसे आटेको पीसकर बनायी हुई अरिष्ट , मैरेय और नारियलसे निकाली हुई , गुड़की बनी हुई तथा माध्वी - ये ग्यारह प्रकारकी मदिराएँ बतायी गय़ी हैं । ( उपर्युक्त तीन प्रकारकी मदिराके ही ये ग्यारह भेद हैं । ) इनमेंसे किसी भी मद्यको ब्राह्यण कभी न पीवे । यदि द्विज ( ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य ) अज्ञानवश इनमेंसे किसी एकको पी ले तो फिरसे अपना उपनयन - संस्कार कराकर तप्तकृच्छ्र - व्रतका आचरण करे । जो सामने या परोक्षमें बलपूर्वक या चोरीसे दूसरोंके धनको ले लेता है , उसका यह कर्म विद्वान् पुरुषोंद्वारा स्तेय ( चोरी ) कहा गया है । मनु आदिने सुवर्णके मापकी परिभाषा इस प्रकार की है । विप्रवर ! वह मान ( माप ) आगे कहे जानेवाले प्रायश्चित्तकी उक्तिका साधन है । अतः उसका वर्णन करता हूँ ; सुनिये ! झरोखेके छिद्वसे घरमें आयी हुई सूर्यकी जो किरणें हैं , उनमेंसे जो उत्पन्न सूक्ष्म धूलिकण उड़ता दिखायी देता है , उसे विद्वान् पुरुष त्रसरेणु कहते हैं । वही त्रसरेणुका माप है । आठ त्रसरेणुओंका एक निष्क होता है और तीन निष्कोंका एक राजसर्षप ( राई ) बताया गया है । तीन राजसर्षपोंका एक गौरसर्षप ( पीली सरसों ) होता है और छः गौरसर्षपोंका एक यव कहा जाता है । तीन यवका एक कृष्णल होता है । पाँच कृष्णलका एक माष ( माशा ) माना गया है । नारदजी ! सोलह माशेके बराबर एक सुवर्ण होता है । यदि कोई मूर्खतासे सुवर्णके बराबर ब्राह्यणके धनका अर्थात सोलह माशा सोनेका अपहरण कर लेता है तो उसे पूर्ववत् बारह वर्षोंतक कपाल और ध्वजके चिह्लोंसे रहित ब्रह्यहत्या - व्रत करना चाहिये । गुरुजनों , यज्ञ करनेवाले धर्मनिष्ठ पुरुषों तथा श्रोत्रिय ब्राह्यणोंके सुवर्णको चुरा लेनेपर इस प्रकार प्रायश्चित्त करे । पहले उस पापके कारण बहुत पश्चात्ताप करे , फिर सम्पूर्ण शरीरमें घीका लेप करे और कंडेसे अपने शरीरको ढककर आग लगाकर जल मरे । तभी वह उस चोरीसे मुक्त होता है । यदि कोई क्षत्रिय ब्राह्यणके धनको चुरा ले और पश्चात्ताप होनेपर फिर उसे वहीं लौटा दे तो उसके लिये प्रायश्चित्तकी विधि मुझसे सुनिये । ब्रह्यर्षे ! वह बारह दिनोंतक उपवासपूर्वक सान्तपन - व्रत करके शुद्ध होता है । रत्न , सिंहासन , मनुष्य , स्त्री , दूध देनेवाली गाय तथा भूमि आदि पदार्थ भी स्वर्णके ही समान माने गये हैं । इनकी चोरी करनेपर आधा प्रायश्चित्त कहा है । राजसर्षप ( राई ) बराबर सोनेकी चोरी करनेपर चार प्राणायाम करने चाहिये । गौरसर्षप बराबर स्वर्णका अपहरण कर लेनेपर विद्वान् पुरुष स्त्रान करके विधिपूर्वक ८००० गायत्रीका जप करे । जौ बराबर स्वर्णको चुरानेपर द्विज यदि प्रातःकालसे लेकर सायंकालतक वेदमाता गायत्रीका जप करे तो उससे शुद्ध होता है । कृष्णल बराबर स्वर्णकी चोरी करनेपर मनुष्य सान्तपन - व्रत करे । यदि एक माशाके बराबर सोना चुरा ले तो वह एक वर्षतक गोमूत्रमें पकाया हुआ जौ खाकर रहे तो शुद्ध होता है । मुनीश्वर ! पूरे सोलह माशा सोनेकी चोरी करनेपर मनुष्य एकाग्रचित्त हो बारह वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । अब गुरुपत्नीगामी पुरुषोंके लिये प्रायश्चित्तका वर्णन किया जाता है । यदि मनुष्य अज्ञानवश माता अथवा सौतेली मातासे समागम कर ले तो लोगोंपर अपना पाप प्रकट करते हुए स्वयं ही अपने अण्डकोशको काट डाले । और हाथमें उस अण्डकोशको लिये हुए नैरऋत्य कोणमें चलता जाय । जाते समय मार्गमें कभी सुख - दुखका विचार न करे । जो इस प्रकार किसी यात्रीकी ओर न देखते हुए प्राणान्त होनेतक चलता जाता है , वह पापसे शुद्ध होता है । अथवा अपने पापको बताते हुए किसी ऊँचे स्थानसे हवाके झोंकेके साथ कूद पड़े । यदि बिना विचारे अपने वर्णकी या अपनेसे उत्तम वर्णकी स्त्रीके साथ समागम कर ले तो एकाग्रचित हो बारह वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । द्विजश्रेष्ठ ! जो बिना जाने हुए कई बार समान वर्ण या उत्तम वर्णवाली स्त्रीसे समागम कर ले तो वह कंडेकी आगमें जलकर शुद्धिको प्राप्त होता है । यदि वीर्यपातसे पहले ही माताके साथ समागमसे निवृत्त हो जाय तो ब्रह्यहत्याका व्रत करे और यदि वीर्यपात हो जाय तो अपने शरीरको अग्रिमें जला दे । यदि अपने वर्णकी तथा अपनेसे उत्तम वर्णकी स्त्रीके साथ समागम करनेवाला पुरुष वीर्यपातसे पहले ही निवृत्त हो जाय तो भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए नौ वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करे । मनुष्य यदि कामसे मोहित होकर मौसी , बूआ , गुरुपत्नी , सास , चाची , ममी और पुत्रीसे समागम कर ले तो दो दिनतक समागम करनेपर उसे विधिपूर्वक ब्रह्यहत्याका व्रत करना चाहिये और तीन दिनतक सम्भोग करनेपर वह आगमें जल जाय , तभी शुद्ध होता है , अन्यथा नहीं । मुनीश्वर ! जो कामके अधीन हो चाण्डाली ,
पुष्कसी ( भीलजातिकी स्त्री ), पुत्रवधू , बहिन , मित्रपत्नी तथा शिष्यकी स्त्रीसे समागम करता है , वह छः वर्षोंतक ब्रह्यहत्याका व्रत करें । अब महापातकी पुरुषोंके साथ संसर्गका प्रायश्चित्त बतलाया जाता है । ब्रह्यहत्यारे आदि चार प्रकारके महापातकियोंसे जिसके साथ जिस पुरुषका संसर्ग होता है , वह उसके लिये विहित प्रायश्चित्त व्रतका पालन करके निश्चय ही शुद्ध हो जाता है । जो बिना जाने पाँच राततक इनके साथ रह लेता है , उसे विधिपूर्वक प्राजापत्य कृच्छ्र नामक ब्रत करना चाहिये । बारह दिनोंतक उनके साथ संसर्ग हो जाय तो उसका प्रायश्चित्त महासान्तपन - व्रत बताया गया है । और पंद्रह दिनोंतक महापातकियोंका साथ कर लेनेपर मनुष्य बारह दिनतक उपवास करे । एक मासतक संसर्ग करनेपर पराक - व्रत और तीन मासतक संसर्ग हो तो चान्द्रय़न - व्रतका विधान है । छः महीनेतक महापातकी मनुष्योंका संग करके मनुष्य दो चान्द्रायण - व्रतका अनुष्ठान करे । एक वर्षसे कुछ कम समयतक उनका सङ्र करनेपर छः महीनेतक चान्द्रायण - व्रतका पालन करे और यदि जान - बूझकर महापातकी पुरुषोंका सङ्र किया जाय तो क्रमशः इन सबका प्रायश्चित्त ऊपर बताये हुए प्राश्चित्तसे तीनगुना बताया गया है । मेढ़क , नेवला , कौआ , सूअर , चूहा , बिल्ली , बकरी , भेड़ , कुत्ता और मुर्गा - इनमेंसे किसीका वध करनेपर ब्राह्यण अर्धकृच्छ्र - व्रतका आचरण करे और घोड़ेकी हत्या करनेवाला मनुष्य अतिकृच्छ्र - व्रतका पालन करे । हाथीकी हत्या करनेपर तप्तकृच्छ्र और गोहत्या करनेपर पराक - व्रत करनेका विधान है । यदि स्वेच्छासे जान - बूझकर गौओंका वध किया जाय तो मनीषी पुरुषोंने उसकी शुद्धिका कोई भी उपाय नहीं देखा है । पीनेयोग्य़ वस्तु , शय्या , आसन , फूल , फल , मूल तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंकी चोरीके पापका शोधन करनेवाला प्रायश्चित पञ्चगव्यका पान कहा गया है । सूखे काठ , तिनके , वृक्ष , गुड़ , चमड़ा , वस्त्र और मांस - इनकी चोरी करनेपर तीन रात उपवास करना चाहिये । टिटिहरी , चकवा , हंस , कारण्डव , उल्लू , सारस , कबूतर , जलमुर्गा , तोता , नीलकण्ठ , बगुला , सूँस और कछुआ इनमेंसे किसीको भी मारनेपर बारह दिनोंतक उपवास करना चाहिये । वीर्य , मल और मूत्र खा लेनेपर प्राजापत्य - व्रत करे । शूद्रका जूठा खानेपर तीन चान्द्रायण - व्रत करनेका विधान है । रजस्वला स्त्री , चाण्डाल , महापातकी , सूतिका , पतित , उच्छिष्ट वस्तु आदिका स्पर्श कर लेनेपर वस्त्रसहित स्त्रान करे और घृत पीवे । नारदजी ! इसके सिवा आठ सौ गायत्रीका जप करे , तब वह शुद्धचित्त होता है । ब्राह्यणों और देवताओंकी निन्दा सब पापोंसे बड़ा पाप है । विद्वानोंने जो - जो पाप महापातकके समान बताये हैं , उन सबका इसी प्रकार विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिये । जो भगवान् नारायणकी शरण लेकर प्रायश्चित्त करता है , उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं । जो राग - द्वेष आदिसे मुक्त हो पापोंके लिये प्रायश्चित्त करता है , समस्त प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है और भगवान् विष्णुके स्मरणमें तत्पर रहता है , वह महापातकोंसे अथवा सम्पूर्ण पातकोंसे युक्त हो तो भी उसे सब पापोंसे मुक्त ही समझना चाहिये । क्योंकि वह भगवान् विष्णुके भजनमें लगा हुआ है । जो मानव अनादि , अनन्त , विश्वरूप तथा रोग - शोकसे रहित भगवान् नारायणका चिन्तन करता है , वह करोड़ों पापोंसे मुक्त हो जाता है । साधु पुरुषोंके ह्रदयमें विराजमान भगवान् विष्णुका स्मरण , पूजन , ध्यान अथवा नमस्कार किया जाय तो वे सब पापोंका निश्चय ही नाश कर देते हैं । जो किसीके सम्पर्कसे अथवा मोहवश भी भगवान् विष्णुका पूजन करता , है , वह सब पापोंसे मुक्त हो उनके वैकुण्ठधाममें जाता है । नारदजी ! भगवान् विष्णुके एक बार स्मरण करनेसे सम्पूर्ण क्लेशोंकी राशि नष्ट हो जाती है तथा उसी मनुष्यको स्वर्गादि भोगोंकी प्राप्ति होती है - यह स्वयं ही अनुमान हो जाता है । मनुष्य - जन्म बड़ा दुर्लभ है । जो लोग इसे पाते हैं , वे धन्य हैं । मानव - जन्म मिलनेपर भी भगवान्की भक्ति और भी दुर्लभ बतायी गयी है , इसलिये बिजलीकी तरह चञ्चल ( क्षणभङ्रर ) एवं दुर्लभ मानव - जन्मको पाकर भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका भजन करना चाहिये । वे भगवान् ही अज्ञानी जीवोंको अज्ञानमय बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । भगवान्के भजनसे सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं तथा मनकी शुद्धि होती है । भगवान् जनार्दनके पूजित होनेपर मनुष्य परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है । भगवान्की आराधनामें लगे हुए मनुष्योंके धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष नामक सनातन पुरुषार्थ अवश्य सिद्ध होते हैं । इसमें संशय नहीं है ।
अरे ! पुत्र , स्त्री , घर , खेत , धन और धान्य नाम धारण करनेवाली मानवी वृत्तिको पाकर तू घमण्ड न कर । काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद , परापवाद और निन्द्राका सर्वथा त्याग करके भक्तिपूर्वक भगवान् जनार्दनकी आराधनामें लग जा । यमपुरीके वे वृक्ष समीप ही दिखायी देते हैं । जबतक बुढ़ापा नहीं आता , मृत्यु भी जबतक नहीं आ पहुँचती है और इन्द्रियाँ जबतक शिथिल नहीं हो जातीं तभीतक भगवान् विष्णुकी आराधना कर लेनी चाहिये । यह शरीर नाशवान् है । बुद्धिमान् पुरुष इसपर कभी विश्वास न करे । मौत सदा निकट रहती है । धन - वैभव अत्यन्त चञ्चल है और शरीर कुछ ही समयमें मृत्युका ग्रास बन जानेवाला है । अतः अभिमान छोड़ दे । महाभाग ! संयोगका अन्त वियोग ही है । यहाँ सब कुछ क्षणभङ्रर है - यह जानकर भगवान् जनार्दनकी पूजा कर । मनुष्य आशासे कष्ट पाता है । उसके लिये मोक्ष अत्यन्त दुर्लभ है । जो भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका भजन करता है , वह महापातकी होनेपर भी उस परम धामको जाता है , जहाँ जाकर किसीको शोक नहीं होता । साधुशिरोमणे ! सम्पूर्ण तीर्थ , समस्त जज्ञ और अङ्रोंसहित सब वेद भी भगवान् नारायणके पूजनकी सोलहवी कलाके बराबर भी नहीं हो सकते । जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिसे वञ्चित हैं , उन्हें वेद , यज्ञ और शास्त्रोंसे क्या लाभ हुआ ? उन्होंने तीर्थोंकी सेवा करके क्या पाया तथा उनके तप और व्रतसे भी क्या होनेवाला है ? जो अनन्तस्वरूप , निरीह , ॐ कारबोध्य , वरेण्य , वेदान्तवेद्य तथा संसाररूपी रोगके वैद्य भगवान् विष्णुका यजन करते हैं , वे मनुष्य उन्हीं भगवान् अच्युतके वैकुण्ठधाममें जाते हैं । जो अनादि , आत्मा , अनन्तशक्तिसम्पन्न , जगत्के आधार , देवताओंके आराध्य तथा जोतिःस्वरूप परम पुरुष भगवान् अच्युतका स्मरण करता है , वह नर अपने नित्यसखा नारायणको प्राप्त कर लेता है ।