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एकादशी-व्रतकी विधि

प्रथम पाद - एकादशी-व्रतकी विधि

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


एकादशी -व्रतकी विधि और महिमा -भद्रशीलकी कथा

श्रीसनकजी कहते हैं -

नारदजी ! अब मैं इस अन्य व्रतका , जो तीनों लोकोंमें विख्यात है , वर्णन करूँगा। यह सब पापोंका नाश करनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंको देनेवाला है। इसका नाम है -एकादशी -व्रत। यह भगवान् ‌‍ विष्णुको विशेष प्रिय है। ब्रह्यन् ‌‍ ! ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र और स्त्री -जो भी भक्तपूर्वक इस व्रतका पालन करते हैं , उनको यह मोक्ष देनेवाला है। यह मनुष्योंको उनकी समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करता है। विप्रवर ! सब प्रकारसे इस व्रतका पालन करना चाहिये ; क्योंकि यह भगवान् ‌‍ विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। दोनों पक्षकी एकादशीको भोजन न करे। जो भोजन कर लेता है , वह इस लोकमें बड़ा भारी पापी है। परलोकमें उसे नरककी प्राति होती है। मुनीश्वर ! मनुष्य यदि मुक्तिकी अभिलाषा रखता है तो वह दशमी और द्वादशीको एक समय भोजन करे और एकादशीको सर्वथा निराहार रहे। महापातकों अथवा सब प्रकारके पातकोंसे युक्त मनुष्य भी यदि एकादशीको निराहार रहे तो वह परम गतिको प्राप्त होता है। एकादशी परम पुण्यमयी तिथि है। यह भगवान् ‌‍ विष्णुको बहुत प्रिय है। संसार -बन्धनका उच्छेद करनेकी इच्छावाले ब्राह्यणोंको सर्वथा इसका सेवन करना चाहिये। दशमीको प्रातःकाल उठकर दन्तधावनपूर्वक स्नानन करे और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विधिपूर्वक भगवान् ‌‍ विष्णुका पूजन करे। रातमें भगवान् ‌‍ नारायणका चिन्तन करते हुए उन्हींके समीप शयन करे। एकादशीको सबेरे उठकर शौच -स्नानके अनन्तर गन्ध , पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा भगवान् ‌‍ विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा करके इस प्रकार कहे -

एकादश्यां निराहारः स्थित्वाद्याहं परेऽहनि।

भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

( ना० पूर्व० २३।१५ )

’ कमलनयन अच्युत ! आज एकादशीको निराहार रहकर मैं दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मेरे लिये शरणदाता हों। ’

सुदर्शनचक्रधारी देवदेव भगवान् ‌‍ विष्णुके समीप भक्तिभावसे उक्त मन्त्रका उच्चारण करके संतुष्टचित्त हो उन्हें एकादशीका उपवास समर्पित करे। व्रती पुरुष नियमपूर्वक रहकर भगवान् ‌‍ विष्णुके समक्ष गीत , वाद्य , नृत्य तथा पुराणश्रवण आदिके द्वारा रातमें जागरण करे। तदनन्तर द्वादशीके दिन प्रातःकाल उठकर व्रतधारी पुरुष स्नानन करे और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विधिपूर्वक भगवान् ‌‍ विष्णुकी पूजा करे। विप्रवर ! जो एकादशीके दिन भगवान् ‌‍ जनार्दनको पञ्चामृतसे स्नान कराकर द्वादशीको दूधसे नहलाता है , वह श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। ( पूजनके पश्चात् ‌‍ इस प्रकार प्रार्थना करे - )

अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव।

प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भवा ॥

( ना० पूर्व० २३।२० )

’ केशव ! मैं अज्ञानरूपी तिमिर रोगसे अन्धा हो रहा हूँ। मेरे इस व्रतसे आप प्रसन्न हों और प्रसन्नमुख होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें। ’

विप्रवर ! इस प्रकार द्वारशीके दिन भगवान् ‌‍ लक्ष्मीपतिसे निवेदन करके एकाग्रचित्त हो यथाशक्ति ब्राह्यणोंको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा दे। तत्पश्चात् ‌‍ अपने भाई -बन्धुओंके साथ भगवान् ‌‍ नारायणका चिन्तन करते हुए पञ्चमहायज्ञ ( बलिवैश्वदेव ) करके स्वयं भी मौनभावसे भोजन करे। जो इस प्रकार संयमपूर्वक पवित्र एकादशी -व्रतका पालन करता है , वह पुनरावृत्तिरहित वैकुण्ठधाममें जाता है। उपवास -व्रतमें तत्पर तथा धर्मकार्यमें संलग्न मनुष्य चाण्डालों और पतितोंकी ओर कभी न देखे। जो नास्तिक हैं , जिन्होंने मर्यादा भङ्र की है तथा जो निन्दक और चुगले हैं , ऐसे लोगोंसे उपवास -व्रत करनेवाला पुरुष कभी बातचीत न करे। जो यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला है , उससे भी व्रती पुरुष कभी न बोले।जो कुण्ड (पतिके जीते -जी परपुरुषसे उत्पन्न किये हुए पुरुष )-का अन्न खाता , देवता और ब्राह्यणसे विरोध रखता , पराये अन्नके लिये लालायित रहता और परायी स्त्रियोंमें आसक्त होता है , ऐसे मनुष्यका व्रती पुरुषी वाणीमात्रसे भी आदर न करे। जो इस प्रकारके दोषोंसे रहित , शुद्ध , जितेद्निय तथा सबके हितमें तत्पर है , वह उपवासपरायण होकर परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है। गङ्राके समान कोई तीर्थ नहीं है। माताके समान कोई गुरु नहीं है। भगवान् ‌‍ विष्णुके समान कोई देवता नहीं है और उपवाससे बढ़कर कोई तप नहीं है। क्षमाके समान कोई माता नहीं है। कीर्तिके समान कोई धन नहीं है। ज्ञानके समान कोई लाभ नहीं है। धर्मके समान कोई पिता नहीं है। विवेकके समान कोई बन्धु नहीं है और एकादशीसे बढ़कर कोई व्रत नहीं है। इस विषयमें लोग भद्रशील और गालवमुनिके पुरातन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकालकी बात है , नर्मदाके तटपर गालव नामसे प्रसिद्ध एक सत्यपरायण मुनि रह्ते थे। वे शम ( मनोनिग्रह ) और दम ( इन्द्रियसंयम )-से सम्पन्न तथा तपस्याकी निधि थे। सिद्ध , चारण , गन्धर्व , यक्ष और विद्याधर आदि देवयोनिके लोग भी वहाँ विहार करते थे। वह स्थान कंद , मूल , फलोंसे परिपूर्ण था। वहाँ मुनियोंका बहुत बड़ा समुदाय निवास करता था। विप्रवर गालव वहाँ चिरकालसे निवास करते थे। उनके एक पुत्र हुआ , जो भद्रशील नामसे विख्यात हुआ। वह बालक अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखता था। उसे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था। वह महान् ‌‍ भाग्यशाली ऋषिकुमार निरन्तर भगवान् ‌‍ नारायणके भजन -चिन्तनमें ही लगा रहता था। महामति भद्रशील बालोचित्त क्रीड़ाके समय भी मिट्टीसे भगवान् ‌‍ विष्णुकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करता और अपने साथियोंको समझाता कि ’ मनुष्योंको सदा भगवान् ‌‍ विष्णुकी आराधना करनी चाहिये और विद्वानोंको एकादशी -व्रतका भी पालन करना चाहिये। ’ मुनीश्वर ! भद्रशीलद्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर उसके साथी शिशु भी मिट्टीसे भगवान्‌‍की प्रतिमा बनाकर एकत्र या अलग -अलग बैठ जाते और प्रसन्नतापूर्वक उसकी पूजा करते थे। इस तरह वे परम सौभाग्य़शाली बालक भगवान् ‌‍ विष्णुके भजनमें तत्पर हो गये। भद्रशील भगवान् ‌‍ विष्णुको नमस्कार करके यही प्रार्थना करता था कि ’ सम्पूर्ण जगत्‌‍का कल्याण हो। ’ खेलके समय वह दो घड़ी भी ध्यानस्थ हो एकादशी -व्रतका संकल्प करके भगवान् ‌‍ विष्णुको समर्पित करता था। अपने पुत्रको इस प्रकार उत्तम चरित्रसे युक्त देखकर तपोनिधि गालव मुनि बड़े विस्मित हुए और उसे ह्रदयसे लगाकर पूछने लगे।

गालव बोले -

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग भद्रशील ! तुम अपने कल्याणमय शील -स्वभावके कारण सचमुच भद्रशील हो। तुम्हारा जो मङ्रलमय चरित्र है , वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। तुम सदा भगवान्‌‍की पूजामें तत्पर , सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्र तथा एकादशी -व्रतके पालनमें लगे रहनेवाले हो। शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंसे तुम सदा दूर रह्ते हो। तुमपर सुख -दुःख आदि द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता। तुममें ममता नहीं दिखायी देती और तुम शान्तभावसे भगवान्‌के ध्यानमें मग्र रहते हो। बेटा ! अभी तुप बहुत छोटे हो तो भी तुम्हारी बुद्धि ऐसी किस प्रकार हुई ; क्योंकि महापुरुषोंकी सेवाके बिना बगवान्‌‍की भक्ति प्रायः दुर्लभ होती है। इस जीवकी बुद्धि स्वभावतः अज्ञानयुक्त सकाम कर्मोंमें लगती है। तुम्हीरी सब क्रिया अलौकिक कैसे हो रही है ? सत्यंग होनेपर भी पूर्व पुण्यकी अधिकतासे ही मनुष्योंमें भगवद्भक्तिका उदय होता है। अतः तुम्हारी अद्भुत स्थिति देखकर मैं बड़े विस्मयमें पड़ा हूँ और प्रसन्नतापूर्वक इसका कारण पूछता हूँ। अतः तुम्हें यह बताना चाहिये।

मुनिश्रेष्ठ ! पिताके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाला पुण्यात्मा भद्रशील बहुत प्रसन्न हुआ। उसके मुखपर हास्यकी छटा छा गयी। उसने अपने अनुभवमें आयी हुई सब बातें पिताको ठीक -ठीक कह सुनायीं।

भद्रशील बोला -

पिताजी ! सुनिये। पूर्वजन्ममें मैंने जो कुछ अनुभव किया है , वह जातिस्मर होनेके कारण अब भी जानता हूँ। मुनिश्रेष्ठ ! मैं पूर्वजन्ममें चन्द्रवंशी राजा था। मेरा नाम धर्मकीर्ति था और महर्षि दत्तात्रेयने मुझे शिक्षा दी थी। मैंने नौ हजार वर्षोंतक सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन किया। पहले मैंने पुण्यकर्म भी बहुत -से किये थे , परंतु पीछे पाखण्डियोंसे बाधित होकर मैंने वैदिकमार्गको त्याग दिया। पाखण्डियोंकी कूट युक्तिका अवलम्बन करके मैंने भी सब यज्ञोंका विध्वंस किया। मुझे अधर्ममें तत्पर देख मेरे देशकी प्रजा भी सदैव पाप -कर्म करने लगी। उसमेंसे छठा अंश और मुझे मिलने लगा। इस प्रकार मैं सदा पापाचारपरायण हो दुर्व्यसनोंमें रुचिसे मैं सेनासहित एक वनमें गया और वहाँ भूख -प्याससे पीड़ित हो थका -मादा नर्मदाके तटपर आया। सूर्यकी तीखी धूपसे संतप्त होनके कारण मैंने नर्मदाजीके जलमें स्नानन किया। सेना किधर गयी , यह मैंने नहीं देखा। अकेला ही वहाँ भूखसे बहुत कष्ट पा रहा था। संध्याके समय नर्मदा -तटके निवासी , जो एकादशी -व्रत करनेवाले थे , वहाँ एकत्र हुए। उन सबको मैंने देखा। उन्हीं लोगोंके साथ निराहार रहकर बिना सेनाके ही मैं अकेला रातमें वहाँ जागरण करता रहा। और हे तात ! जागरण समाप्त होनेपर मेरी वहीं मृत्यु हो गयी। तब बड़ी -बड़ी दाढ़ोंसे भय़ उत्पन्न करनेवाले यमराजके दूतोंने मुझे बाँध लिया और अनेक प्रकारके क्लोशसे भरे हुए मार्गद्वारा यमराजके निकट पहुँचाया। वहाँ जाकर मैंने यमराजकी देखा , जो सबके प्रति समान बर्ताव करनेवाले हैं। तब यमराजने चित्रगुप्तको बुलाकर कहा --’ विद्वन् ‌‍ ! इसको द्ण्ड -विधान कैसे करना है , बताओ। ’ साधुशिरोमणे ! धर्मराजके ऐसा कहनेपर चित्रगुप्तने देरतक विचार किया ; फिर इस प्रकार कहा --’ धर्मराज ! यद्यपि यह सदा पापमें लगा रहा है , यह ठीक है , तथापि एक बात सुनिये। एकादशीको उपवास करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नर्मदाके रमणीय तटपर एकादशीके दिन यह निराहार रहा है। वहाँ जागरण और उपवास करके यह सर्वथा निष्पाप हो गया है। इसने जो कोई भी बहुत -से पाप किये थे , वे सब उपवासके प्रभावसे नष्ट हो चुके हैं। ’ बुद्धिमान् ‌‍ चित्रगुप्तके ऐसा कहनेपर धर्मराज मेरे सामने काँपने लगे। उन्होंने भूमिपर दण्डकी भाँति पड़कर मुझे साष्टाङ्र प्रणाम किया और भक्तिभावसे मेरी पूजा की। तदनन्तर धर्मराजने अपने सब दूतोंको बुलाकर इस प्रकार कहा।

धर्मराज बोले -

’ दूतो ! मेरी बात सुनो। मैं तुम्हारे हितकी बड़ी उत्तम बात बतलाता हूँ। धर्ममार्गमें लगे हुए मनुष्योंको मेरे पास न लाया करो। जो भगवान् ‌‍ विष्णुके पूजनमें तत्पर , संयमी , करो। जो भगवान् ‌‍ विष्णुके पूजनमें तत्पर , संयमी , कृतज्ञ , एकादशी - व्रतपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं और जो ’ हे नारायण ! हे अच्युत ! हे हरे ! मुझे शरण दीजिये ’ इस प्रकार शान्तभावसे निरन्तर कहते रह्ते हैं , ऐसे लोगोंको तुम तुरंत छोड़ देना। मेरे दूतो ! जो सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी तथा परम शान्तभावसे रहनेवाले हैं और जो नारायण ! अच्युत ! जनार्दन ! कृष्ण ! विष्णो ! कमलाकान्त ! ब्रह्याजीके पिता ! शिव ! शंकर ! इत्यादि नामोंका नित्य कीर्तन किया करते हैं , उन्हें दूरसे ही त्याग दिया करो। उनपर मेरा शासन नहीं चलता। मेरे सेवको ! जो अपना सम्पूर्ण कर्म भगवान् ‌‍ विष्णुको समर्पित कर देते हैं , उन्हींके भजनमें लगे रह्ते हैं , अपने वर्णाश्रमोचित आचारके मार्गमें स्थित हैं , गुरुजनोंकी सेवा किया करते हैं , सत्पात्रको दान देते , दीनोंकी रक्षा करते और निरन्तर भगवन्नामके जप - कीर्तनमें संलग्र रहते हैं , उनको भी त्याग देना। दूतगण ! जो पाखण्डियोंके संगसे रहित , ब्राह्यणोंके प्रति भक्ति रखनेवाले , सत्संगके लोभी , अतिथि - सत्कारके प्रेमी , भगवान् ‌‍ शिव और विष्णुमें समता रखनेवाले तथा लोगोंके उपकारमें तत्पर हों , उन्हें त्याग देना। मेरे दूतो ! जो लोग भगवान्‌‍की कथारूप अमृतके सेवनसे वञ्चित हैं , भगवान् ‌‍ विष्णुके चिन्तनमें मन लगाये रखनेवाले साधु - महात्माओंसे जो दूर रह्ते हैं , उन पापियोंको ही मेरे घरपर लाया करो। मेरे किङ्करो ! जो माता और पिताको डाँटनेवाले , लोगोंसे द्वेष रखनेवाले , हितैषी - जनोंका भी अहित करनेवाले , देवताकी सम्पत्तिके लोभी , दूसरे लोगोंका नाश करनेवाले तथा सदैव दूसरोंके अपराधमें हि तत्पर रहनेवाले हैं , उनको यहाँ पकड़कर लाओ। मेरे दूतो ! जो एकादशी - व्रतसे विमुख , क्रूर स्वभाववाले , लोगोंको कलङ्क लगानेवाले , परनिन्दामें तत्पर , ग्रामका विनाश करनेवाले , श्रेष्ठ पुरुषोंसे वैर रखनेवाले तथा ब्राह्यणके धनका लोभ करनेवाले हैं उनको यहाँ ले आओ। जो भगवान् ‌‍ विष्णुकी भक्तिसे मुँह मोड़ चुके हैं , शरणागतपालक भगवान् ‌‍ नारायणको प्रणाम नहीं करते हैं तथा जो मूर्ख मनुष्य कभी भगवान् ‌‍ विष्णुके मन्दिरमें नहीं जाते हैं , उन अतिशय पापमें रत रहनेवाले दुष्ट लोगोंको ही तुम बलपूर्वक पकड़कर यहाँ ले आओ। इस प्रकार जब मैंने यमराजकी कही हुई बातें सुनीं तो पश्चात्तापसे दग्ध होकर अपने किये हुए उस निन्दित कर्मको स्मरण किया। पापकर्मके लिये पश्चात्ताप और श्रेष्ठ धर्मका श्रवण करनेसे मेरे सब पाप वहीं नष्ट हो गये। उसके बाद मैं उस पुण्यकर्मके प्रभावसे इन्द्रलोकमें गया। वहाँपर मैं सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न रहा। सम्पूर्ण देवता मुझे नमस्कार करते थे। बहुत कालतक स्वर्गमें रहकर फिर वहाँसे मैं भूलोकमें आया। यहाँ भी आप - जैसे विष्णु - भक्तोंके कुलमें मेरा जन्म हुआ। मुनीश्वर ! जातिस्मर होनेके कारण मैं यह सब बातें जानता हूँ। इसलिये मैं बालकोंके साथ भगवान् ‌‍ विष्णुके पूजनकी चेष्टा करता हूँ। पूर्वजन्ममें एकादशी - व्रतका ऐसा माहात्म्य है , यह बात मैं नहीं जान सका था। इस समय पूर्वजन्मकी बातोंकी स्मृतिके प्रभावसे मैने एकादशी - व्रतको जान लिया है। पहले विवश होकर भी जो व्रत किया गया था , उसका यह फल मिला है। प्रभो ! फिर जो भक्तिपूर्वक एकादशी - व्रत करते हैं , उनको क्या नहीं मिल सकता। अतः विप्रेन्द्र ! ’ मैं शूभ एकादशी - व्रतका पालन तथा प्रतिदिन भगवान् ‌‍ विष्णुकी पूजा करूँगा। भगवान्‌‍के परम धामको पानेकी आकाड्‌‍क्षा ही इसमें हेतु है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक एकादशी - व्रत करते हैं , उन्हें निश्चय ही परमानन्ददायक वैकुण्ठधाम प्राप्त होता है। ’ अपने पुत्रका ऐसा वचन सुनकर गालव मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें बड़ा संतोष प्राप्त हुआ। उनका हृदय अत्यन्त हर्षसे भर गया। वे बोले -’ वत्स ! मेरा जन्म सफल हो गया। मेरा कुल भी पवित्र हो गया ; क्योंकि तुम्हारे - जैसा विष्णुभक्त पुरुष मेरे घरमें पैदा हुआ है। ’ इस प्रकार पुत्रके उत्तम कर्मसे मन - ही - मन संतुष्ट होकर महर्षि गालवने उसे भगवान्‌‍की पूजाका विधान ठीक - ठीक समझाया। मुनिश्रेष्ठ नारद ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने ये सब बातें कुछ विस्तारके साथ तुम्हें बता दी हैं। तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

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Last Updated : March 12, 2011

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