श्रीसनकजी कहते हैं --
मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं विशेष - रूपसे वर्ण और आश्रम - सम्बन्धी आचार और विधिका वर्णन करता हूँ , तुम सावधान होकर सुनो । जो स्वधर्मका त्याग करके परधर्मका पालन करता है , उसे पाखण्डी समझना चाहिये । द्विजोंके गर्भाधान आदि संस्कार वैदिक मन्त्रोक्त विधिसे करने चाहिये । स्त्रियोंके संस्कार यथासमय बिना मन्त्रके ही विधिपूर्वक करने चाहिये । प्रथम बार गर्भाधान होनेपर चौथे मासमें सीमन्तकर्म करना उत्तम माना गया है अथवा उसे छ्ठे , सातवें या आठवें महीनेमें कराना चाहिये । पुत्रका जन्म होनेपर पिता वस्त्रसहित स्त्रान करके स्वस्तिवाचनपूर्वक नान्दीश्राद्ध तथा जातकर्म - संस्कार करे । पुत्र - जन्मके अवसरपर किया जानेवाला वृद्धिश्राद्ध सुवर्ण या रजतसे करना चाहिये । सूतक व्यतीत होनेपर पिता मौन होकर आभ्युदयिक श्राद्ध करनेके अनन्तर पुत्रका विधिपूर्वक नामकरण - संस्कार करे । विप्रवर ! जो स्पष्ट न हो , जिसका कोई अर्थ न बनता हो , जिसमें अधिक गुरु अक्षर आते हों अथवा जिसमें अक्षरोंकी संख्या विषय होती हो , ऐसा नाम न रखे । तीसरे वर्षमें चूड़ा - संस्कार उत्तम है । यदि उस समय न हो तो पाँचवें , छठे , सातवें अथवा आठवें वर्षमें भी गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसे सम्पन्न कर लेना चाहिये । गर्भसे आठवें वर्षमें अथवा जन्मसे आठवें वर्षमें ब्राह्यणका उपनयन - संस्कार करना चाहिये । विद्वान् पुरुष सोलहवें वर्षतक उपनयनका गौणकाल बतलाते हैं ।
गर्भसे ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रियके उपनयनका मुख्यकाल है । उसके लिये बाईसवें वर्षतक गौणकाल निश्चित करते हैं । गर्भसे बारहवें वर्षमें वैश्यका उपनयन - संस्कार उचित कहा गया है । उसके लिये चौबीसवें वर्षतक गौणकाल बतलाते हैं । ब्राह्यणकी मेखला मूँजकी और क्षत्रियकी मेखला धनुषकी प्रत्यञ्चासे बनी हुई ( सूतकी ) तथा वैश्यकी मेखला भेड़के ऊनकी बनी होती है । ब्राह्यणके लिये पलाशका और क्षत्रियके लिये गूलरका तथा वैश्यके लिये बिल्वदण्ड विहित है । ब्राह्यणका द्ण्ड केशतक , क्षत्रियका ललाटके बराबर और वैश्यके दण्डकी लंबाई नासिकाके अग्रभागतककी बतायी है । ब्राह्यण आदि ब्रह्यचारियोंके लिये क्रमशः गेरुए , लाल और पीले रंगका वस्त्र बाताया गया है । विप्रवर ! जिसका उपनयन - संस्कार किया गया हो , वह द्विज गुरुकी सेवामें तत्पर रहे और जबतक वेदाध्ययन समाप्त न हो जाय , तबतक गुरुके ही घरमें निवास करे । मुनीश्वर ! ब्रह्यचारी प्रातःकाल स्त्रान करे और प्रतिदिन सबेरे ही गुरुके लिये समिधा , कुशा और फल आदि ले आवे । मुनिश्रेष्ठ ! यज्ञोपवीत , मृगचर्म अथवा दण्ड जब नष्ट या अपवित्र हो जाय तो मन्त्रसे नूतन यज्ञोपवीत आदि धारण करके नष्ट - भ्रष्ट हुए पुराने यज्ञोपवीत आदिको जलमें फेंक दे । ब्रह्यचारीके लिये केवल भिक्षाके अन्नसे ही जीवन - निर्वाह करना बताया गया है । वह मन - इन्द्रियोंको संयममें रखकर श्रोत्रिय पुरुषके घरसे भिक्षा ले आवे । भिक्षा माँगते समय ब्राह्यण वाक्यके आदिमें , क्षत्रिय वाक्यके मध्यमें और वैश्य वाक्यके अन्तमें ’ भवत् ’ शब्दका प्रयोग करे । जैसे - ब्राह्यण ’ भवति ! भिक्षां मे देहि ’ ( पूजनीय देवि ! मुझे भिक्षा दीजिये ), क्षत्रिय ’ भिक्षां भवति ! मे देहि ’ और वैश्य ’ भिक्षां मे देहि भवति ’ कहे । जितेन्द्रिय ब्रह्यचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल शास्त्रीय विधिके अनुसार अग्रिहोत्र ( ब्रह्ययज्ञ ) तथा तर्पण करे । जो अग्रिहोत्रका परित्याग करता है , उसे विद्वान् पुरुष पतित कहते हैं । ब्रह्ययज्ञ्से रहित ब्रह्यचारी ब्रह्यहत्यारा कहा गया है । वह प्रतिदिन देवताकी पूजा और गुरुकी उत्तम सेवा करे । ब्रह्यचारी नित्यप्रति भिक्षाका ही अन्न भोजन करे । किसी एक घरका अन्न कभी न खाय । वह इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्यणोंके घरसे भिक्षा लाकर गुरुको समर्पित कर दे और उनकी आज्ञासे मौन होकर भोजन कर । ब्रह्यचारी मधु मांस , स्त्री , नमक , पान , दन्तधावन , उच्छिष्ट - भोजन दिनका सोना तथा छाता लगाना आदि न करे । पादुका , चन्दन , माला , अनुलेपन , जलक्रीड़ा , नृत्य , गीत , वाद्य , परनिन्दा , दूसरोंको सताना , बहकी - बहकी बातें करना , अंजन लगाना , पाखण्डी लोगोंका साथ करना और शूद्रोंकी संगतिमें रहना आदि न करे । वृद्ध पुरुषोंको क्रमशः प्रणाम करे । वृद्ध तीन प्रकारके होते हैं । एक ज्ञानवृद्ध , दूसरे तपोवृद्ध और तीसरे वयोवृद्ध हैं । जो गुरु वेद - शास्त्रोंके उपदेशसे आध्यात्मिक आदि दुःखोंका निवारण करते हैं , उन्हें पहले प्रणाम करे । प्रणाम करते समय द्विज बालक ’ मैं अमुक हूँ इस प्रकार अपना परिचय भी दे । ब्राह्यण किसी प्रकार क्षत्रिय आदिको प्रणाम न करे । जो नास्तिक , धर्ममर्यादाको तोड़नेवाला , कृतघ्र , ग्राम - पुरोहित , चोर और शठ हो , उसे ब्राह्यण होनेपर भी प्रणाम न करे । पाखण्डी , पतित , संस्कार - भ्रष्ट , नक्षत्रजीवी ( ज्यौतिषी ) तथा पातकीको भी प्रणाम न करे । पागल , शठ , धूर्त , दौड़ते हुए , अपवित्र , सिरमें तेल लगाये हुए तथा मन्त्र - जप करते हुए पुरुषको भी प्रणाम नहीं करना चाहिये । जो झगड़लू और क्रोधी हो , वमन कर रहा हो , पानीमें खड़ा हो , हाथमें भिक्षाका अन्न लिये हो और सो रहा हो , उसको भी प्रणाम न करे । स्त्रियोंमे जो पतिकी हत्या करनेवाली , रजस्वला , परपुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाली , सूतिका , गर्भपात करनेवाली , कृतघ्र और क्रोधिनी हो , उसे कभी प्रणाम न करे । सभा , यज्ञशाला और देवमन्दिरमें भी एक - एक व्यक्तिके लिये किया जानेवाला नमस्कार पूर्वकृत पुण्यका नाश करता है । श्राद्ध , व्रत , दान , देवपूजा , यज्ञ और तर्पण करते हुए पुरुषको प्रणाम न करे ; क्योंकि प्रणाम करनेपर जो शास्त्रीय विधिसे आशीर्वाद न दे सके , वह प्रणाम करने योग्य नहीं । बुद्धिमान् शिष्य दोनों पैर धोकर आचमन करके सदा गुरुके सामने बैठे और उनके चरण पकड़कर नमस्कार करे । फिर अध्ययन करे । अष्टमी , चतुर्दशी , प्रतिपदा , अमावास्या , पूर्णिमा , महाभरणी ( भरणी - नक्षत्रके योगसे होनेवाले पर्वविशेष ) श्रवणयुक्त द्वादशी , पितृपक्षकी द्वितीया , माघशुक्ला सप्तमी , आश्विन शुक्ला नवमी - इन तिथियोंमें तथा सूर्यके चारों ओर घेरा लगनेपर एवं किसी श्रोत्रिय विद्वान्के अपने यहाँ पधारनेपर अध्ययन बंद रखना चाहिये । जिस दिन किसी श्रेष्ठ ब्राह्यणका स्वागत - सत्कार किया गया हो या किसीके साथ कलह बढ़ गया हो , उस दिन भी अनध्याय रखना चाहिये । देवर्षे ! संध्याके समय , अकालमें मेघकी गर्जना होनेपर , असमयमें वर्षा होनेपर , उल्कापात तथा वज्रपात होनेपर , अपने द्वारा किसी ब्राह्यणका अपमान हो जानेपर , मन्वादि तिथियोंके आनेपर तथा युगादि चार तिथियोंके उपस्थित होनेपर सब कर्मोंके फलकी इच्छा रखनेवाला कोई भी द्विज अध्ययन न करे । वैशाख शुक्ला तृतीया , भाद्र कृष्णा त्रयोदशी , कार्तिक शुक्ला नवमी तथा माघकी पूर्णिमा - ये तिथियाँ युगादि कही गयी हैं । इनमें जो दान दिया जाता है , उसके पुण्यको य अक्षय बनानेवाली हैं । नारदजी ! आश्विन शुक्ला नवमी , कार्तिक शुक्ला द्वादशी , चैत्र तथा भाद्रपदमासकी तृतीया , आषाढ़ शुक्ला दशमी , माघ शुक्ला सप्तमी , श्रावण कृष्णा अष्टमी , आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा , फाल्गुनकी अमावास्या , पौष शुक्ला एकादशी तथा कार्तिक , फाल्गुन , चैत्र और ज्येष्ठकी पूर्णिमा तिथियाँ - ये मन्वन्तरकी आदितिथियाँ बतायी गयी हैं , जो दानके पुण्यको अक्षय बनानेवाली हैं । द्विजोंको मन्वादि और युगादि तिथियोंमें श्राद्ध करना चाहिये । श्राद्धका निमन्त्रण हो जानेपर , चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके दिन , उत्तरायण और दक्षिणायन प्रारम्भ होनेके दिन , भूकम्प होनेपर , गलग्रहमें और बादलोंके आनेसे अँधेरा हो जानेपर कभी अध्ययन न करे । नारदजी ! इन सब अनध्यायोंमें जो अध्ययन करते हैं , उन मूढ़ पुरुषोंकी संतति , बुद्धि , यश , लक्ष्मी , आयु , बल तथा आरोग्यका साक्षात् यमराज नाश करते हैं । जो अनध्यायकालमें अध्ययन करता है , उसे ब्रह्य - ह्त्यारा समझना चाहिये । जो ब्राह्यण वेद - शास्त्रोंका अध्ययन न करके अन्य कर्मोंमें परिश्रम करता है , उसे शूद्रके तुल्य जानना चाहिये , वह नरकका प्रिय अतिथि है । वेदाध्ययनरहित ब्राह्यणके नित्य , नैमित्तिक , काम्य तथा दूसरे जो वैदिककर्म हैं , वे सब निष्फल होते हैं । भगवान् विष्णु शब्द - ब्रह्यमय हैं और वेद साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप माना गया है । जो ब्राह्यण वेदोंका अध्ययन करता है , वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।