नारदजीने कहा -
मुने ! आप तात्त्विक अर्थोंके ज्ञानमें निपुण हैं । अब मैं युगोंकी स्थितिका परिचय सुनना चाहता हूँ ।
श्रीसनकजीने कहा -
महाप्राज्ञ ! साधुवाद , तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है । मुने ! तुम सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाले हो । अच्छा , अब मैं समस्त जगत्के लिये उपकारी युग - धर्मका वर्णन आरम्भ करता हूँ । किसी समय तो पृथ्वीपर उत्तम धर्मकी वृद्धि होती है और किसी समय वही विनाशको प्राप्त होने लगता है । साधुशिरोमणे ! सत्ययुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग - ये चार युग माने गये हैं : इनकी आयु बारह हजार दिव्य वर्षोकी समझनी चाहिये । वे चारों युग उतने ही सौ वर्षोंकी संध्या और संध्यांशसे युक्त होते हैं । इनकी कला - संख्या सदा एक - सी ही जाननी चाहिये । पहले युगको सत्ययुग कहते हैं , दूसरेका नाम त्रेता है , तीसरेका नाम द्वापर है और अन्तिम युगको कलियुग कहते हैं । इसी क्रमसे इनका आगमन होता है । विप्रवर ! सत्ययुगमें देवता , दानव , गन्धर्व , यक्ष , राक्षस तथा सर्पोंका भेद नहीं था । उस समय सब - के - सब देवताओंके समान स्वभाववाले थे । सब प्रसन्न और धर्मनिष्ठ थे । कृतयुगमें क्रय - विक्रयका व्यापार और वेदोंका विभाग नहीं था । ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र - सभी अपने - अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहकर सदा भगवान् नाराय़णकी उपासना करते थे । सभी अपनी योग्यताके अनुसार तपस्या और ध्यानमें लगे रह्ते थे । उनमें काम , क्रोध आदि दोष नहीं थे । सब लोग शम - दम आदि सद्गुणोंमें तत्पर थे । सबका मन धर्मसाधनमें लगा रहता था । किसीमें ईर्ष्या तथा दूसरोंके दोष देखनेका स्वभाव नहीं था । सभी लोग दम्भ और पाखण्डए दूर रह्ते थे । सत्ययुगके सभी द्विज सत्यवादी , चारों आश्रमोंके धर्मका पालन करनेवाले , वेदाध्ययनसम्पन्न तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुन थे । चारों आश्रमोंके अपने - अपने कर्मोंके द्वारा कामना और फलासक्तिका त्याग करके परम गतिको प्राप्त होते थे । सत्ययुगमें भगवान् नारायणका श्रीविग्रह अत्यन्त निर्मल एवं शुक्लवर्णका होता है । मुनिश्रेष्ठ ! त्रेतामें धर्म एक पाद्से हीन हो जाता है । ( सत्ययुगकी अपेक्षा एक चौथाई कम लोग धर्मका पालन करते हैं । ) भगवान्के शरीरका वर्ण लाल हो जाता है । उस समय जनताको कुछ क्लेशा भी होने लगता है । त्रेतामें सभी द्विज क्रियायोगमें तत्पर रह्ते हैं । जज्ञ - कर्ममें उनकी निष्ठा होती है । वे नियमपूर्वक सत्य बोलते , भगवान्का ध्यान करते , दान देते और न्याययुक्त प्रतिग्रह भी स्वीकार करते हैं । मुनीश्वर ! द्वापरमें धर्मके दो ही पैर रह जाते हैं । भगवान् विष्णुका वर्ण पीला हो जाता है और वेदके चार विभाग हो जाते हैं । द्विजोत्तम ! उस समय कोई - कोई असत्य भी बोलने लगते हैं । ब्राह्मण आदि वर्णोंमेंसे कुछ लोगोंमें राग - द्वेष आदि दुर्गुण आ जाते हैं । विप्रवर ! कुछ लोग स्वर्ग और अपवर्गके लिये यज्ञ करते हैं , कोई धनादिकी कामनाओंमें आसक्त हो जाते हैं और कुछ लोगोंका ह्रुदय पापसे मलिन हो जाता है । द्विजश्रेष्ठ ! द्वापरमें धर्म औ अधर्म दोंनोंकी स्थिति समान होती है । अधर्मके प्रभावसे उस समयकी प्रजा क्षीण होने लगती है । मुनीश्वर ! कितने ही लोग दूसरोंको पुण्यमें तत्पर देखकर उनसे डाह करने लगेंगे । कलियुग आनेपर धर्मका एक ही पैर शेष रह जाता है । इस तामस युगके प्राप्त होनेपर भगवान् श्रीहरि श्याम रंगके हो जाते हैं । उसमें कोई बिरला ही धर्मात्मा यज्ञोंका अनुष्ठन करता है और कोईअ महान पुण्यात्मा ही क्रियायोगमें तत्पर रहता है । उस समय धर्मपरायण मनुष्यको देखकर सबलोग ईर्ष्या और निन्दा करते हैं । कलियुगएमं व्रत और सदाचार नष्ट हो जाते हैं । ज्ञान और यज्ञ आदिकी भी यही दशा होती है । उस समय सधर्मका प्रचार होनेसे जगत्में उपद्रव होते रहते हैं । सब लोग दूसरोंके दोष बतानेवाले और स्वयं पाखण्डपूर्ण आचारमें तत्पर होते हैं ।
नारदजीने कहा -
मुने ! आपने संक्षेपसे ही युगधर्मोंका वर्णन किया है , कृपया कलिका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ; क्योंकि आप धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं । मुनिश्रेष्ठ ! कलियुगमें ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शुद्रोंका खान - पान और आचार - व्यवहार कैसा होगा ?
श्रीसनकजीने कहा -
सब लोकोंका उपकार करनेवाले मुनिश्रेष्ठ ! सुनो , मैं कलि - धर्मोंका यथार्थ एवं विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ । कलि बड़ा भयङ्कर युग है । उसमें सब प्रकारके पातकोंका सम्मिश्रण होता है अर्थात् पापोंकी बहुलता हिनेके कारण एक पापमें दूसरा पाप शामिल हो जाता है । ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र धर्मसे मुँह मोड़ लेते हैं । घोर कलियुग प्राप्त होनेपर सभी द्विज वेदोंसे विमुख हो जाते हैं । सभी किसी - न - किसी बहानेसे धर्ममेम लगते हैं । सब दूसरोंके दोष बताया करते हैं । सबका अन्त : करण व्यर्थ अहङ्कारसे दूषित होता है । पण्डित लोग भी सत्यसे दूर रहते हैं । ’ मैं ही सबसे बड़ा हूँ ’ इस प्रकार सभी परस्पर विवाद करते हैं । सब मनुष्य अधर्ममेम आसक्त और वितण्डावादी होते हैं । इन्हीं कारणोंसे कलियुगमें सब लोग स्वल्पायु होंगे । ब्रह्मन् ! थोड़ी आयु होनेके कारण मनुष्य शास्त्रोंका अध्ययन नहीं कर सकेंगे और विद्याध्ययनशून्य होंगे । उनके द्वारा बार - बार अधर्मपूर्ण बर्ताव होता है । उस समयकी समस्त पापपरायण प्रजा अवस्था - क्रमके विपरीत मरने लगेगी । ब्राह्मण आदि सभी वर्णके लोगोंमें परस्पर संकरता आ जायगी । मूढ़ मनुष्य काम - क्रोधके वशीभूत हो व्यर्थके संतापसे पीड़ित होंगे । कलियुगमें सब वर्णोंके लोग शूद्रके समान हो जायँगे । उत्तम नीच हो जायँगे और नीच उत्तम । शसकगण केवल धन - संग्रहमें लग जायँगे और अन्यायपूर्ण बर्ताव करेंगे । वे अधिक कर लगाकर प्रजाको पीड़ा देंगे । द्विज लोग शुद्रोंके मुर्दे ढोने लगेंगे और पति अपनी धर्मपत्नियोंके होते हुए भी व्यभिचारमें फँसकर परायी स्त्रियोंसे संगमन करेंगे । पुत्र पितासे और सारी स्त्रियाँ पतिसे द्वेष करेंगी । सब लोग परस्त्रीलम्पट और पराये धनमें आसक्त होंगे । मछलीके मांससे जीवन - निर्वाह करेंगे और बकरी तथा भेड़्का भी दूध दुहेंगे । नारदजी ! घोर कलियुगमें सब मनुष्य पापपरायन हो जायँगे । सभी लोग श्रेष्ठ पुरुषोंमें दोष देखेंगे और उनका उपहास करेंगे । नदियोंके तटपर भी कुदालसे खोदकर अनाज बोयेंगे । पृथ्वी फलहीन हो जायगी । बीज और फूल भी नष्ट हो जायँगे । युवतियाँ प्राय : वेश्याओंके लावण्य और स्वभावको अपने लिये आदर्श मानकर उसकी अभिलाषा करेंगी । ब्राह्यण धर्म बेचनेवाले होंगे , स्त्रियाँ अपना शरीर बेचेंगी अर्थात् वेश्यावृत्ति करेंगी तथा दूसरे द्विज वेदोंका विक्रय करनेवाले और शुद्रोंके - से आचरणमें तत्पर होंगे । लोग श्रेष्ठ पुरुषोंऔर विधवाओंके भी धन चुरा लेंगे । ब्राह्यण धनके लिये लोलुप होकर व्रतोंका पालन नहीं करेंगे । लोग व्यर्थके वाद - विवादमें फँसकर धर्मका आचरण छोड़ बैठेंगे । द्विजलोग केवल दम्भके लिये पितरोंका श्राद्ध आदि कार्य करेंगे । नीच मनुष्य अपात्रोंको ही दान देंगे और केवल दूधके लोभसे गौओंसे प्रेम करेंगे । विप्रगण स्त्रान - शौच आदि क्रिया छोड़ देंगे । अधम द्विज असमयमें ( मुख्यकाल बिताकर ) संध्या आदि कर्म करेंगे । मनुष्य साधुओं तथा ब्राह्मणोंकी निन्दामें तत्पर रहेंगे ।
नारदजी ! प्राय : किसीका मन भगवान् विष्णुके भजनमें नहीं लगेगा । द्विजलोग यज्ञ नहीं करेंगे तथा दुष्ट राजकर्मचारी धनके लिये द्विजोंको भी पीटेंगे । मुने ! घोर कलियुगमें सब लोग दानसे मुँह मोड़ लेंगे और ब्राह्यण पतितोंका दिया हुआ दान भी ग्रहण कर लेंगे । कलिके प्रथम पादमें भी मनुष्य भगवान् विष्णुकी निन्दा करेंगे और युगके अन्तिम भागमें तो कोई भगवान्का नामतक नहीं लेगा । कलिमें द्विजलोग शूद्रोंकी स्त्रियोंसे संगम करेंगे , विधवाओंसे व्यभिचारके लिये ललायित होंगे और शुद्रोंके घरकी बनी हुई रसोई भोजन करेंगे । वेदोक्त सन्मार्गका त्याग करके कुमार्गपर चलने लगेंगे और चारों आश्रमोंकी निन्दा करते हुए पाखण्डी हो जायँगे । शूद्रलोग द्विजोंकी सेवा नहीं करेंगे और पाखण्ड - चिह्ल धारण करके वे द्विजातियोंके धर्मको अपनायेंगे । गेरुआ वस्त्र पहने , जटा बढ़ाये और शरीरमें भस्म रमाये शूद्रलोग झूठी युक्तियाँ देकर धर्मका उपदेश करेंगे । दूषित अन्तःकरणवाले शूद्र संन्यासी बनेंगे । मुने ! कलियुगमें लोग केवल सूदसे जीवना - निर्वाह करनेवाले होंगे । धर्महीन अधम मनुष्य पाखण्डी , कापालिक एवं भिक्षु बनेंगे । द्विजश्रेष्ठ ! शूद्र ऊँचे आसनपर बैठकर द्विजोंको धर्मका उपदेश करेंगे । ये तथा और भी बहुत - से पाखण्डमत प्रचलित होंगे , जो प्राय : वेदोंकी निन्दा करेंगे । कलिमें प्राय : धर्मके विध्वंसक मनुष्य गाने - बजानेमें कुशल तथा शूद्रोंके धर्मका आश्रय लेनेवाले होंगे । सबके पास थोड़ा धन होगा । प्रायः सभी व्यर्थ्के चिह्ल धारण करनेचाले और वृथा अहंकारसे दूषित होंगे कलिके नीच मनुष्य दूसरोंका धन ह्ड़पनेवाले होंगे प्राय : सभी सदा दान लेंगे और उनका स्वभाव जगतको बुरे मार्गपर ले जानेवाला होगा । सभी अपनी प्रशंसा और दूसरोंकी निन्दा करनेवाले होंगे । नारदजी ! कलियुगमें अधर्म ही लोगोंका भाई - बन्धु होगा । वे सब - के - सब विश्वासघाती , क्रूर और दयाधर्मसे शून्य होंगे । विप्रवर ! घोर कलियुगमें बड़ी - से - बड़ी आयु सोलह बर्षकी होगी और पाँच वर्षकी कन्याके बच्चा पैदा होगा । लोग सात या आठ वर्षकी अवस्थामें जवाना कहलायेंगे । सभी धर्मयुक्त आजीविकाको भंग करनेवाले होंगे । कलियुगमें द्विज प्रतिदिन भीख माँगनेवाले होंगे । वे दूसरोंका अपमान करेंगे और दूसरोंके ही घरमें रहकरा प्रसन्न होंगे । इसी प्रकार दूसरोंकी निन्दामें तत्पर तथा व्यर्थ विश्वास दिलानेवाले लोग सदाअ पिता , माता और पुत्रोंकी निन्दा करेंगे । वाणीसे धर्मकी बात करेंगे , किंतु उनका मन पापमें आसक्त होगा । धन , विद्या और जवानीके नशेमें मतवालेहो सब लोग दु : ख भोगते रहेंगे । रोग - व्याधि , चोर - डाकू तथा अकालसे पीड़ित होंगे । सबके मनमें अत्यन्त कपट भरा होगा और अपने अपराधका विचार न करकए व्यर्थ ही दुस्रोंपर दोषरोपण करेंगे । पापी मनुष्य धर्ममार्गका संचालन करनेचाले धर्मपरायण पुरुषका तिरस्कार करेंगे । कलियुग आनेपर म्लेच्छ जातिके राजा होंगे । शूद्व लोग भिक्षासे जीवन - निर्वाह करनेवाले होंगे और द्विज उनकी सेवा - शुश्रूषामें संलग्न रह्रेंगे । इस सङ्कटकालमें न कोई शिष्य होगा , न गुरु ; न पुत्र होगा , पिता और न पत्नी होगी न पति । कलियुगमें धनीलोग भी याचक होंगे और द्विजलोग रसका विक्रय करेंगे । धर्मका चोला पहने हुए मुनिवेषधारी द्विज नहीं बेचनेयोग्य वस्तुओंका विक्रय तथा अगम्या स्त्रीके साथ समागम करेंगे । मुने ! नरकके अधिकारी द्विज वेदों और धर्मशास्त्रोंकी निन्दा करते हुए शूद्रवृत्तिसे ही जीवन - निर्वाह करेंगे ।
कलियुगमें सभी मनुष्य अनावृष्टिसे भयभीत होकर आकाशकी ओर आँखें लगाये रहेंगे और क्षुधाके भयसे कातर बने रहेंगे । उस अकालके समय मनुष्य कन्द , पत्ते और फ्ल खाकर रहेंगे और अनावृष्टिसे अत्यन्त दु : खित होकर आत्मघात कर लेंगे । कलियुगमें अब लोग कामवेदनसे पीड़ित , नाटे शरीरवाले , लोभी , अधर्मपरायण , मन्दभाग्य तथा अधिक संतानवाले होंगे । स्त्रियाँ अपने शरीरका ही पोषण करनेवाली तथा वेश्याओंके सौन्दर्य और स्वभावको अपनानेवाली होंगी । वे पतिके वमनोंका अनादर करके सदा दूसरोके घरमें निवास करेंगी । अच्छे कुलोंकी स्त्रियाँ भी दुराचारिणी होकर सदा दुराचारियोंसे ही स्त्रेह करेंगी और अपने पुरुषोंके प्रति असद्व्यवहार करनेवाली होंगी । चोर आदिके भयसे डरे हुए लोग अपनी रक्षाके लिये काष्ठ - यन्त्र अर्थात् काठके मजबूत किवाड़ बनायेंगे । दुर्भिक्ष और करकी पीड़ासे अत्यन्त पीड़ित हुप मनुष्य दु : खी होकर गेहूँ और जौ आदि अन्नसे सम्पन्न देशमें चले जायँगे । लोग हृदयमें निषिद्ध कर्मका संकल्प लेकर ऊपरसे शुभ वचन बोलेंगे । अपने कार्यकी सिद्धि होनेतक ही लोग बन्धुता ( सौहार्द ) प्रकट करेंगे । संन्यासी भी मित्र आदिके स्त्रेह - सम्बन्धसे बँधे रहेंगे और अन्न - संग्रहके लिये लोगोंको चेले बनायेंगे । स्त्रियाँ दोनों हाथोंसे सिर खुजलाती हुई बड़ोंकी तथा पतिकी आज्ञाका उलाड्घन करेंगी । जिस समय द्विज पाखण्डी लोगोंका साथ करके पाखण्डपूर्ण बातें करनेवाले हो जायँगे , उस समय कलियुगका वेग और बढ़ेगा । जब द्विज - जातिकी प्रजा यज्ञ और होम करना छोड़ देगी , उसी समयसे बुद्धिमान् पुरुषोंको कलियुगकी वृद्धिका अनुमान कर लेना चाहिये ।
नारदजी ! कलियुगके बढ़नेसे पापकी वृद्धि होगी और छोटे बालकोंकी भी मृत्यु होने लगेगी । सम्पूर्ण धर्मोंके नष्ट हो जानेपर यह जगत् श्रीहीन हो जायगा । विप्रवर ! इस प्रकार मैम्ने तुम्हें कलिका स्वरूप बतलाया है । जो लगे भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर हैं , उन्हें यह कलियुग कभी बाधा नहीं देता । सत्ययुगमें तपस्याको , त्रेतामें भगवान्के ध्यानको , द्वापरमें यज्ञको और कलियुगमें एकमात्र दानको ही श्रेष्ठ बताया गया है । सत्ययुगमें जो पुण्यकर्म द्स वर्षोंमें सिद्ध होता है , त्रेतामें एक वर्ष और द्वापरमें एक मासमें जो धर्म सफल होता है , वही कलियुगमें एक ही दिन - रातमें सिद्ध हो जाता है । सत्ययुगमें ध्यान , त्रेताएं यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापरमें भगवान्का पूजन करके मनुष्य जिस फलको पाता है , उसे ही कलियुगमें केवल भगवान् केशवका कीर्तन करके पा लेता है । जो मनुष्य दिन - रात भगवान् विष्णुके नामका कीर्तन अथवा उनकी पूजा करते हैं , उन्हें कलियुग बाधा नहीं देता है । जो मानव निष्काम अथवा सकामभावसे ’ नमो नारायणाय ’ का कीर्तन करते हैं , उनको कलियुग बाधा नहीं देता । घोर कलियुग आनेपर भी सम्पूर्ण जगतके आधार एवं परमर्थस्वरूप भगवान् विष्णुका ध्यान करनेवाला कभी कष्ट नहीं पाता । अहो ! सम्पूर्ण धर्मोंसे रहित भय़ंकर कलियुग प्राप्त होनेपर जिन्होंने एक बार भी भगवान् केशवका पूजन कर लिया है , वे बड़े सौभाग्यशाली हैं । कलियुगमें वेदोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करते समय जो कमी - वेशी रह जाती है , उस दोषके निवारणपूर्वक कर्ममें पूर्णता लानेवाला यहाँ केवल भगवान्का स्मरण ही है । जो लोग प्रतिदिन ’ हरे ! केशव ! गोविन्द ! जगन्मय ! वासुदेव !’ इस प्रकार कीर्तन करते हैं , उन्हें कलियुग बाधा नहीं पहूँचाता । अथवा जो ’ शिव ! शङ्कर ! रुद्र ईश ! नीलकण्ठ ! त्रिलोचन ! इत्यादि महादेवजीके नामोंका उच्चारण करते हैं , उन्हें भी कलियुग बाधा नहीं देता । नारदजी !’ महादेव ! विरूपाक्ष ! गङ्राधर ! मृड ! और अव्यय !’ इस प्रकार जो शिव - नामोंका कीर्त्न करते हैं , वे कृतार्थ हो जाते हैं - अथवा जो ’ जनार्दन ! जगन्नाथ ! पीताम्बरधर ! अच्युत !’ इत्यादि विष्णु - नामोंका उच्चारन करते हैं , उन्हें इस संसारमें कलियुगसे भय नहीं है । विप्रवर ! घोर कलियुग आनेपर संसारमें मनुष्योंको पुत्र , स्त्री और धन आदि तो सुलभ हैं , किंतु भगवान् विष्णुकी भक्ति दुर्लभ है । जो वेदमार्गसे बहिष्कृत , पापकर्मपरायण तथा मानसिक शुद्धिसे रहित हैं , ऐसे लोगोंका उद्धार केवल भगवान्के नामसे ही होता है । मनुष्यको चाहिये कि अपने अधिकारके अनुसार यथाशक्ति सम्पूर्ण वैदिक कर्मोंका अनुष्ठान करके उन्हें - भगवान् महाविष्णुको समर्पित कर दे और स्वयं उन्हीं नारायणदेवकी शरण होकर रहे । परमात्मा महाविष्णुको समर्पित किये हुए कर्म उनके स्मरणमात्रसे निश्चय ही पूर्ण हो जाते हैं । नारदजी ! जो भगवान् विष्णुके स्मरणमें लगे हैं और जिनका चित्त भगवान् शिवके नाममें अनुरक्त है , उनके समस्त कर्म अवश्य पूर्ण हो जाते हैं । भगवन्नाममें अनुरक्तचित्तवाले पुरुषोंका अहोभाग्य है , अहोभाग्य है । वे देवताओंके लिये भी पूज्य हैं । इसके अतिरिक्त अन्य अधिक बातें करनेसे क्या लाभ ? अतः मैं सम्पूर्ण लोकोंके हितकी ही बात कहता हूँ कि भगवन्नामपरायण मनुष्योंको कलियुग कभी बाधा नहीं दे सकता । भगवान् विष्णुका नाम ही , नाम ही मेरा जीवन है । कलियुगमें दूसरी कोई गति नहीं है , नहीं है , नहीं है ।