गरब न कीजै बावरे, हरि गरब प्रहारी ।
गरबहितें रावन गया, पाया दुख भारी ॥१॥
जरन खुदी रघुनाथके, मन नाहिं सुहाती ।
जाके जिय अभिमान है, ताकि तोरत छाती ॥२॥
एक दया और दीनता, ले रहिये भाई ।
चरन गहौ जाय साधके रीझै रघुराई ॥३॥
यही बड़ा उपदेस है, पर द्रोह न करिये ।
कह मलूक हरि सुमिरिके, भौसागर तरिये ॥४॥