दीनबन्धु दीनानाथ, मेरी तन हेरिये ॥टेक॥
भाई नाहिं, बन्धु नाहिं, कटुम-परिवार नाहिं ।
ऐसा कोई मित्र नाहिं, जाके ढिंग जाइये ॥१॥
सोनेकी सलैया नाहिं, रूपेका रूपैया नाहिं.
कौड़ी-पैसा गाँठ नाहिं, जासे कछु लीजिये ॥२॥
खेती नाहिं, बारी नाहिं, जासों कछू माँगिये ॥३॥
कहत मलूकदास छोड़ि दे पराई आस,
रामधनी पाइकै अब काकी सरन जाइये ॥४॥