काम - कला का साधन
श्री देवी बोलीं - हे परमेश्वर ! पंचतत्त्वों से जो साधक देवी का पूजन नहीं करते, उनमें किन देवियों के साधक और कौन सब से अधिक निन्दनीय हैं ?
श्रीशिव ने कहा - हे परमेश्वरी ! कलियुग में पंचतत्त्वविहीन सभी शाक्तों में विशेषतया ब्राह्मण साधक निन्दनीय हैं । उनमें भी हे कुलेश्वरी ! कालिका और तारा के साधकों की मद्य बिना साधना अति हास्यास्पद है । हे देवी ! जैसे दीक्षा के बिना साधना करना हास्यास्पद है, उसी प्रकार इन दोनों महादेवियों के साधकों की तत्त्वरहित साधना समझनी चाहिए ।
हे देवी ! जैसे शिला में बोया हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, वर्षा के बिना भूमि जोती नहीं जा सकती, ऋतु के बिना सन्तान नहीं होती और बिना चले किसी गाँव तक पहुँचा नहीं जा सकता, उसी प्रकार पंचतत्त्वों के बिना देवी की साधना सफल नहीं होती । अतः दोनों महाविद्याओं के साधकों को प्रसन्न मन से विधिपूर्वक पंचतत्त्वों पंचतत्त्वों से पूजन करना चाहिए ।
मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और स्त्रियों के सम्पर्क में सदैव जगदम्बा का उत्तम अर्चन करना चाहिए । अन्यथा विद्वानों और देवताओं द्वारा निन्दा की जाती है । अतः मन, वचन और शरीर से तत्त्व - परायण होना चाहिए ।
कालिका और तारिणी की दीक्षा लेकर जो मनुष्य मद्य - सेवन नहीं करता, वह कलियुग में पतित होता है । वैदिकी और तान्त्रिकी सन्ध्या तथा जप - होम से बहिष्कृत होकर वह अब्राह्मण कहा जाता है तथा वह मूर्ख नष्ट होता है । पितरों के लिए वह जो तर्पण करता है, वह भी स्वीकृत नहीं होता । अतः ऐसे व्यक्ति को यदि अपने कल्याण की इच्छा हो, तो पितरों का तर्पण न करें ।
काली और तारा के मन्त्र को पाकर जो ' वीराचार ' का पालन नहीं करता, उसके शरीर में शूद्रता आ जाती हैं । ऐसे क्षत्रिय की भी वही दशा होती है । वैश्य चाण्डाल के समान और शूद्र शूकर के समान पापग्रस्त हो जाता है । अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी को सदा पंचतत्त्वों से देवी की पूजा करनी चाहिए, इसमें कुछ भी शंका न करें ।
हे देवी ! कलियुग में जो कुलेश्वरी की पूजा पंचतत्त्वों से करता है, उसके लिए तीनों लोकों में कोई भी कार्य असाध्य नहीं रह जाता
। वही व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी, विष्णुभक्त, शक्तिउपासक, गणेशोपासक, सूर्योपासक, परमार्थी और पूर्ण दीक्षित माना जाता है । वही वास्त\व में धार्मिक साधु, ज्ञानी, अत्यन्त पुण्यात्मा, यज्ञकर्ता, सभी कार्यों में योग्य और देवस्वरुप होता है ।
हे गिरिजे ! सभी का मत है कि तीर्थ पवित्र होते हैं । इन तीर्थो से भी पवित्र ' कौल ' साधक होता है, इससे अधिक क्या कहें । उसकी माँ धन्य है और उसका पिता धन्य है, उसकी जाति और परिवारवाले धन्य हैं, उससे बात करनेवाले धन्य हैं ।
हे परमेश्वरि ! समस्त पितर लोग नाचते गाते हुए आनन्द से कहते हैं कि कोई भी हमारे कुल में कुलज्ञानी होगा, जिससे हम कुलीनों की सभा में सम्मिलित हो सकेंगे । यह जानकार अन्य पितर भी उत्सक हो उठते हैं । हे देवेशि ! पंचमुखों से कुलाचार की महिमा और फलों का वर्णन कहाँ तक करुँ !
श्री देवी बोली - हे कौलेश ! साधकों को सुखदायक साधन बताइए, जो दिव्य, सुन्दर, मनोहर और सभी वांछित फलों को देनेवाला हो ।
श्रीशिव ने कहा - हे कान्ते ! सुखदायक ' कामकला ' के साधन को सुनो । जो कुछ मैंने पहले बताया था, वह विस्मृत हो गया है । उसी को फिर बताता हूँ ।
कुल - ज्ञानी साधक अत्यन्त सुन्दर और दिव्य स्थान को देखकर भक्तिपूर्वक और हदय में परमा देवी का एकाग्र चित्त से ध्यान का सुन्दर सुगन्धित पुष्पों से उस स्थान को सज्जित कर उस पर बैठें ।
श्लोक २७ से ३५ तक विशेष विधान वर्णित हैं, जो सामान्य साधकों के लिए बोधगम्य नहीं है । जिज्ञासु पाठक अपने गुरुदेव से अथवा लेखक से सम्पर्क करें ।
॥ श्रीकामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - सम्वादे षष्ठः पटलः ॥