अर्तृहरि n. एक सुविख्यात संस्कृत व्याकरणकार, जो पतंजलि के ‘व्याकरणमहाभाष्य’ का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक टीकाकार माना जाता है । महाभाष्य पर लिखी हुई इसकी टीका का ना ‘महाभाष्यप्रदीप’ है । पुण्यराज के अनुसार, भर्तृहरि के गुरु का नाम वसुरात था । चिनी प्रवासी इत्सिंग के अनुसार, यह बौद्धधर्मीय था, एवं इसने सात बार प्रवज्या, ग्रहण की थी (इत्सिंग पृ.२७४) । किंतु मीमांसकजी के अनुसार, यह वैदिकधर्मीय ही था
[संस्कृत व्याकरण का इतिहास-पृ.२५७] ।
अर्तृहरि n. संस्कृत भाषा में अंतर्गत शब्दों का संपूर्ण विवेचन पाणिनी एवं पतंजलि ने अपने व्याकरण ग्रंथो के द्वारा किया । किंतु उन्ही शब्दों को ब्रह्मस्वरुप मान कर, तत्त्वज्ञान की दृष्टि से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करने का महनीय कार्य भर्तुहरि ने अपने ‘वाक्यपदीय’ नामक ग्रंथ के द्वारा किया । इस ग्रंथ के निम्नलिखित तीन कांड हैः---ब्रह्मकांड, वाक्यकांड, प्रकीर्णकांड । मीमांसा, सांख्य, योग आदि दर्शनों का निर्माण होने के पश्चात्, व्याकरणशास्त्र एक अनुपयुक्त शास्त्र कहलाने लगे । किंतु शब्दों के अर्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर, शब्दब्रह्म की प्राप्ति होती हैं, ऐसा नया सिद्धान्त भर्तृहरि ने प्रस्थापित किया, एवं इस प्रकार व्याकरणशास्त्र का पुनरुत्थान किया । व्याडि का संग्रहग्रंथ नष्ट होने पर, पाणिनीय व्याकरण शास्त्र विनष्ट होने का संकट निर्माण हुआ; उसी संकट से व्याकरणशास्त्र को बचाने के लिये ‘वाक्यपदीय’ ग्रंथ की रचना की गयी है, ऐसा निर्देश उस ग्रंथ के द्वितीय कांड में प्राप्त है ।
अर्तृहरि n. १. महाभाष्यदीपिका; २. वाक्यपदीय; ३. वाक्यपदीय के पहले दो कांडो पर ‘स्वोपज्ञटीका’; ४. वेदान्तसूत्रवृत्ति ५. मीमांसासूत्रवृत्ति ।
अर्तृहरि II. n. एक व्याकरणकार, जो संस्कृत व्याकरणशास्त्र को काव्य के रुप में प्रस्तुत करनेवाले ‘भट्टिकाव्य’ का रचयिता था । इसने ‘भागवृत्ति’ नामक अन्य एक ग्रंथ भी लिखा था ।
अर्तृहरि III. n. एक राजा, जो शृंगार, नेति वैराग्य नामक ‘शतकत्रयी’ ग्रंथ का रचयिता था ।